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स्वतंत्रता दिवस विशेषः अन्नपूर्णा महाराणा, स्वतंत्रता सेनानी से समाज सेविका तक

– प्रतिभा कुशवाहा

अन्नपूर्णा महाराणा एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक हुईं। सारे जीवन वे गांधीवादी आदर्शों और सिद्धांतों पर चलती रहीं। स्वतंत्रता के बाद भी वे सामाजिक जीवन में सक्रिय रहीं। समाज में महिलाओं, बच्चों और आदिवासी समाज के लिए किए गए उनके कार्यों को आज भी याद किया जाता है। अन्नपूर्णा महाराणा का जीवन अपने समाज के लोगों के लिए निःस्वार्थ समर्पण और देशभक्ति का एक प्रमुख उदाहरण है।

03 नवंबर 1917 को नबकृष्ण चौधरी परिवार में उनका जन्म हुआ। उनके पिता गोपाबंधु चौधरी, ब्रिटिश सरकार में मजिस्ट्रेट थे, जिनका अपना रुतबा था। महात्मा गांधी के आह्वान पर उनके पिता अंग्रेजी सरकार की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संघर्ष में कूद गए। अपने पिता के कार्यों से प्रभावित अन्नपूर्णा भी उनके नक्शे कदमों पर चल पड़ीं। उन्होंने बहुत कम उम्र में स्वतंत्रता संघर्ष में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने चौदह साल की किशोरावस्था से अंग्रेजों के विरुद्ध चलने वाले आंदोलनों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। उन्होंने बानर सेना ज्वाइन किया, जो बच्चों की एक ब्रिगेड थी और इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी की मदद किया करती थी। 1930 में नमक आंदोलन के समय उनकी पहली बार गिरफ्तारी हुई। इस दौरान वे छह महीने जेल में रहीं। 1931 में बहुत ही युवा आंदोलनकारी के रूप में उन्होंने कराची में हुई इंडियन नेशनल कांग्रेस की मीटिंग में भाग लिया।

इसी उम्र में उन्हें सीमांत गांधी कहे जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान से जुड़ने का मौका मिला। वे इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक एक्टिव मेंबर थीं। इसलिए उनके पास कांग्रेस की हर कांफ्रेंस में भाग लेने का मौका होता था। जब 1934 और 1938 में महात्मा गांधी ओडिसा आए तो को-आर्डिनेटर के रूप में उन्होंने अपने राज्य का प्रतिनिधित्व किया। 1934 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में ‘हरिजन पद यात्रा’ पुरी से भद्रक तक निकाली गई, तब अन्नपूर्णा ने पूरे जोश के साथ अपनी भागीदारी निभाई। इसी तरह 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय उनकी गिरफ्तारी हुई।

15 अगस्त 1947 को देश के स्वतंत्र होने के बाद भी अन्नपूर्णा सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहीं। वे महिलाओं और बच्चों के उत्थान के लिए निरंतर सक्रिय रहीं। बिनोवा भावे के भूदान आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया। 1964 के राउरकेला सांप्रदायिक दंगों के दौरान उन्होंने शांतिदूत की भूमिका निभाई। उन्होंने अपने राज्य के जनजातीय समुदाय के बीच जाकर न केवल उनकी समस्याओं को जाना-पहचाना, बल्कि उन्हें दूर करने की कोशिश की, खासकर बच्चों के लिए। उन्होंने उनकी पढ़ाई के लिए रायगढ़ जिले में स्कूल खोला। 1971 में पश्चिमी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश में मानवीय संकट के समय आगे बढ़कर सहायता पहुंचाई, इसी तरह ओडिशा में आये तूफान में भी आगे बढ़कर काम किया। 1975 की इमरजेंसी के समय उन्होंने अपनी मां रमादेवी की पेपर निकालने में मदद भी की। इसके अलावा उन्होंने सर्वोदय आंदोलन के प्रचार-प्रसार के लिए पूरे विश्व में कई कांफ्रेंस आयोजित कीं। वे सर्वोदय के विचारों से काफी प्रभावित थीं।

अन्नपूर्णा महाराणा आजाद भारत में केवल सामाजिक कार्यों तक ही सीमित नहीं थी, वे आनेवाली नई पीढ़ी के लिए एक लिखित इतिहास भी छोड़ जाना चाहती थीं। शायद इसीलिए उन्होंने अपने सीमित समय से कुछ वक्त निकालकर लिखने-पढ़ने में भी लगाया। उन्होंने महात्मा गांधी और बिनोवा भावे की किताबों का उड़िया में अनुवाद किया। इसके अलावा उन्होंने चंबल दस्यु समर्पण के अनुभवों पर ‘दस्यु हृदयारा देबता’ लिखा। ‘अमृता अनुभब’ विनोबा भावे के विचारों पर है। इसके अलावा उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े अपने कई अनुभवों पर भी कई किताबें लिखीं।

अन्नपूर्णा ने सरत चंद महाराणा से 1942 में विवाह किया, यह एक अंतरजातीय विवाह था। समाज में जाति को लेकर चलने वाले भेदभाव पर उनका प्रहार था। उनके पति भी उनकी तरह समाज और देश के लिए सोचने वाले व्यक्ति थे। सरत चंद महाराणा ओडिशा के जानेमाने शिक्षाविद् थे जिन्होंने बेसिक शिक्षा के क्षेत्र में काफी काम किया था। उन्हें समय-समय पर कई सम्मानों और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें ओडिशा से सम्मानित सम्मान उत्कल रत्न से भी सम्मानित किया गया। 96वें साल की भरपूर और सक्रिय जिंदगी जीते हुए 31 दिसम्बर, 2012 को वे इस संसार से विदा हो गईं।

(लेखिका हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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