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भारत-पाक वार्ता : उहापोह में इमरान, बाजवा समझौते के लिए तैयार

 

विक्रम उपाध्याय

पाकिस्तान और भारत के बीच बातचीत हो रही है। अब इसपर कोई परदा नहीं है। पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी के इनकार को वहां के आर्मी चीफ कमर बाजवा ने ही खारिज कर दिया। 24 अप्रैल की रात को बाजवा ने पाकिस्तान के चुनिंदा 20 पत्रकारों को इफ्तार के लिए आमंत्रित किया था, जहां हर विषय पर खुलकर बात हुई। हालांकि किसी भी पाकिस्तानी मीडिया हाउस ने उस प्राइवेट बातचीत की खबर नहीं चलाई, लेकिन यूट्यूब पर कई बड़े पाकिस्तानी पत्रकारों ने इफ्तार पार्टी में हुई बातचीत को लेकर कई खुलासे किए हैं। उनमें सबसे बड़ा खुलासा ही यही है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत हो रही है। फिलहाल यह बातचीत पाकिस्तान की आईएसआई और भारत के रॉ के अधिकारियों के बीच हो रही है। इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि पाकिस्तान के हुक्मरान यह मान चुके हैं कि अब कश्मीर में दुबारा 370 लागू होना संभव नहीं है और इस्लामाबाद को यह स्वीकार कर लेना चाहिए। जबकि पाकिस्तान के राजनीतिक या सरकारी संकल्प में यह कहा जाता है कि जबतक भारत कश्मीर में 5 अगस्त 2019 के पहले की स्थिति बहाल नहीं करता, तब तक कोई बातचीत नहीं हो सकती।

पाकिस्तान के बारे में एक बात सर्वमान्य है कि वहां जब तक मिलिट्री लिडरशिप तैयार नहीं होती, कोई भी समझौता मान्य नहीं होता। अच्छी बात है कि इसबार बातचीत की पहल ही पाकिस्तानी सेना ने की है। पाकिस्तान के कई पूर्व राजनयिकों ने इस बात की तस्दीक है कि दुबई में रॉ और आईएसआई के बीच कई दौर की बात हो चुकी है। कुछ ने तो यहां तक दावा किया है कि एकबार तो इस बातचीत में भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल भी शामिल हो चुके हैं। भारत ने अभीतक इस मामले में कोई भी अपना आधिकारिक बयान नहीं दिया है। हां दोनों देशों के बीच अचानक सीमा पर सीज फायर के समझौते पर यह अंदाज लगाया गया कि परदे के पीछे कुछ चल रहा है। बातचीत के कयास को तब और बल मिला जब अप्रैल के तीसरे हफ्ते में एक ही समय भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का यूएई का दौरा हुआ। दोनों के बीच कोई मुलाकात हुई, ऐसी तो खबर नहीं आई लेकिन इस खबर पर यूएई के लंदन स्थित राजदूत ने मुहर लगा दी कि उनका देश दोनों मुल्कों को करीब लाने में और कम से कम एक कामचलाऊ समझौते कराने में लगा हुआ है।


भारत में तो नहीं लेकिन पाकिस्तान में बातचीत को लेकर कयासों का दौर काफी तेजी से चल रहा है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि चूंकि भारत अब पाकिस्तान को दुश्मन नंबर एक नहीं मान रहा है, क्योंकि चीन से उसे बड़ी चुनौती मिल रही है, इसलिए नई दिल्ली ने इस्लामाबाद की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। कुछ का कहना है कि भारत बातचीत की पेशकश के जरिए पाकिस्तान को अपने जाल में फंसा रहा है, वह निगोसिएशन के नाम पर पाकिस्तान को उलझाए रखना चाहता है कि दुनिया को यह दिखा सके मोदी सरकार युद्ध के बजाए शांति प्रयासों को ज्यादा महत्व दे रही है। तमाम दलीलों के बीच सबसे विश्वसनीय दलील यह सामने आ रही है कि भारत-पाकिस्तान के बीच बातचीत कराना अमेरिका की अफगानिस्तान नीति का हिस्सा है। अमेरिका ने ही यूएई को इसमें मध्यस्थता के लिए राजी किया है, वह भी इसलिए कि पाकिस्तान तेल, गैस और आर्थिक मदद के लिए यूएई पर काफी हद तक निर्भर है और यूएई के किसी भी प्रस्ताव को सीधे नकारने की स्थिति में नहीं है।

जो बाइडेन प्रशासन इस बात पर दृढ़ है कि अफगानिस्तान से उसके सैनिक हर हाल में 11 सितंबर 2021 तक निकल जाएंगे। इस संबंध में अमेरिकी सिनेट में एक मई को एक बिल आने वाला है, लेकिन अमेरिकी सेना अभी से ही अपने सैन्य बेस को खाली करने में लग गई है। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अब्दुल घनी और खुद अमेरिकी प्रशासन काबुल में भारत की उपस्थिति के हामी हैं। यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिकी सेना के निकलने के बाद भारत वहां शांति स्थापित करने के लिए सेना की कुछ टुकड़िया भेज सकता है। लेकिन चूंकि अफगानिस्तान शांति वार्ता में पाकिस्तान का किरदार काफी अहम है, इसलिए यह जरूरी है कि पाकिस्तानी फौज को भी भरोसे में लिया जाए। अफगानिस्तान में शांति प्रयास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका का दावा करने वाले पाकिस्तान को भी इस बात का अंदेशा है कि अमेरिकी फौज के वहां से चले जाने के बाद उसके लिए भी एक बड़ी चुनौती खड़ी होने वाली है। इसलिए एक साथ भारत और अफगानिस्तान के बार्डर पर सेना का जमावड़ा बनाए रखना उसके लिए समस्या बन जाएगी।

अमेरिका मानता है कि अफगान तालिबान पर पाकिस्तान का काफी असर है और इस कारण समझौते के पालन कराने में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका है। वाशिंग्टन ने इस बात का दबाव पाकिस्तान पर अभी से डाल रखा है कि अफगान तालिबान के नेताओं को समझौते के लिए राजी करने में इस्लामाबाद अपनी असर का उपयोग करे। जबकि पाकिस्तान को लगता है कि तालिबान अपनी मर्जी के ना होने पर उल्टा इस्लामाबाद के लिए ही मुसीबत पैदा कर सकते हैं। अफगानिस्तान में किसी भी संभावित खून खराबे का असर पाकिस्तान में पड़ेगा।

खैर पाकिस्तानी हुक्मरान नई बातचीत में अपने लिए कुछ निकालने की जुगत में लगे हैं। भारत के साथ किसी भी बातचीत में उनके सामने कश्मीर का एजेंडा आएगा ही। अभी तक कश्मीर में आतंकवाद को आजादी की लड़ाई बताने वाले पाकिस्तानी नेता एक दम से रायशुमारी की मांग पर खामोशी अख्तियार नहीं करना चाहते, इसलिए वे बातचीत की औपचारिक टेबिल पर कहीं न कहीं कश्मीर के मसौदे को शामिल रखना चाहते हैं। भारत के रूख से इतना तो वे समझ गए हैं कि अब दुबारा कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिलाया जा सकता। इसलिए वे उन विकल्पों पर विचार कर रहे हैं, जिनके जरिए वे अपनी आवाम को यह समझा सके कि उन्होंने कश्मीर का एजेंडे पर कोई समझौता नहीं किया है। वैसे भी इमरान खान पर विपक्ष यह आरोप लगाता आ रहा है कि उसने कश्मीर का सौदा कर दिया।

पाकिस्तान बातचीत में जो विकल्प आजमाने की सोच रहा है और जिस तरह से उनकी मीडिया में इसपर बहस हो रही है, उसमें तीन बातें प्रमुख हैं। पहला तो यह कि कश्मीर में शांति बहाली की जाए और वहां के लोगों को जम्हूरी हक दिए जाए। दूसरा भारत कश्मीर में अपनी सेना की तादाद कम करे और गिरफ्तार कश्मीरी नेताओं को रिहा करे और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा की कि पाकिस्तान को कश्मीरी आवाम को इमदादी या सेहत संबंधी सहायता पहुंचाने के लिए एक कोरिडोर बनाए। पाकिस्तानियों को यह भी मालूम है कि भारत अपने एजेंडे में यह शामिल करेगा कि कश्मीर मामले में पाकिस्तान कोई अनावश्यक हस्तक्षेप ना करे, अपने यहां चल रहे सभी मुजाहिद्दीन नेटवर्क को खत्म करे और सामान्य व्यापारिक संबंधों को आगे बढ़ने दे।

हमेशा की तरह इस बार भी भारत पाकिस्तान की इस वार्ता में शह-मात का खेल चलेगा। लेकिन इसबार खास बात यह होगी कि पाकिस्तान कश्मीर के मामले में अपने पुराने रवैये से एक कदम पीछे हटने के लिए मन से तैयार हो गया है। उसे अहसास हो गया है कि नरेंद्र मोदी की सरकार धारा 370 को बहाल करने के लिए किसी भी स्थिति में तैयार नहीं होगी। यही भारत के लिए जीत की पहली बढ़त है। यानी पाकिस्तानी यह मानने के लिए तैयार हो गए हैं कि कश्मीर सचमुच भारत का अभिन्न अंग अब बन गया है। यानी किसी भी औपचारिक वार्ता की टेबिल पर पाकिस्तान इस बात की जिद नहीं करने वाला कि कश्मीर को एक अंतराष्ट्रीय विवाद के रूप में देखा जाए और इसके हल के लिए किसी तीसरे पक्ष को शामिल किया जाए। ऐसा हुआ तो भारत के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी, क्योंकि नई दिल्ली हमेशा से यह कहता रहा है कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के लिए द्विपक्षीय मामला है जिसे दोनों देशों को मिलकर सुलझाना है। यही जीत है हमारी कश्मीरी नीति की!
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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