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काफी दिलचस्प है अखाड़ों का लोकतंत्र! 13 सौ साल से चली आ रही परंपरा

नई दिल्ली। निरंजनी अखाड़े (Niranjani Akhara) से संबद्ध प्रयागराज (Prayagraj) के बाघंबरी मठ ( Baghambari Math) के महंत नरेंद्र गिरि (Mahant Narendra Giri) की मौत ने अखाड़ों पर चर्चा फिर तेज कर दी है. लोग सनातन धर्म की परंपरा में अखाड़ों की परंपरा, व्यवस्था, पदानुक्रम और तरह-तरह की मान्यताएं सब कुछ जानना चाहते हैं. सनातन धर्म में संत, संन्यास और वैराग्य की परंपरा तो सिद्ध और नाथों के काल से मिलती है लेकिन अखाड़ों की परंपरा आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के समय से शुरू होती है।

बौद्ध धर्म में बढ़ रही कुरीतियां और अनेक राजाओं के बौद्ध धर्म अपना लेने की वजह से सनातन परंपरा के लुप्त होते और उस पर भी विधर्मी आक्रांताओं के हमलों से उत्पन्न आसन्न संकट को भांप कर शंकराचार्य ने संन्यासियों की फौज धर्म के प्रचार और अधर्म के नाश के लिए बनाई।


वैसे अखाड़ा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के अखंड और अलख शब्द से हुई. लगातार चलने वाली परंपरा. जो कालांतर में अखाड़ा बन गई. चूंकि संन्यासी शुरू से ही धर्म, मंदिर मठ और उनसे जुड़े श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए तैनात सैनिक की भूमिका में रहते थे तो शारीरिक सौष्ठव पर स्वाभाविक रूप से ध्यान देते थे तो कुश्ती, वर्जिश और जोर आजमाइश की जगह को भी अखाड़ा कहा जाने लगा।

13 सौ सालों में सात अखाड़े
शंकराचार्य ने बौद्धिक और सैन्य भावना से लैस ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवारों से तरुण युवाओं को राष्ट्र और संस्कृति की रक्षा के लिए मांगा और उनकी सेना तैयार की. नागा संन्यासियों और उनकी फौज पिछले करीब 13 सौ सालों में सात अखाड़ों में बांट दी गई. सबसे पहले आह्वान अखाड़ा फिर अटल फिर निरंजनी फिर महानिर्वाणी और आनंद होते हुए जूना और अग्नि अखाड़े अस्तित्व में आए।

अखाड़ों के अधीन मढ़ियां होती हैं, यानी क्षेत्रीय केंद्र. कुल 52 मढ़ी हैं. सबकी परंपरा नारंगी की तरह मूल रूप से एक होते हुए भी थोड़ी बहुत भिन्न है। शैव संन्यासियों के सात अखाड़ों के अलावा वैष्णव वैरागियों के तीन अखाड़े निर्वाणी, निर्मोही और दिगंबर हैं. फिर उदासीन संन्यासियों के दो अखाड़े बड़ा उदासीन और नया उदासीन अखाड़ा हैं. सिख साधुओं का निर्मल अखाड़ा है। शैव संन्यासियों के लिए आद्य शंकराचार्य ने पुरी, गिरि, सरस्वती, भारती, तीर्थ, पर्वत, सागर, आश्रम, वन, अरण्य इन 10 नामों में विभक्त किया।

उदासीन अखाड़ों को छोड़कर प्राय: सभी संन्यासी अखाड़ों में आचार्य महामंडलेश्वर सर्वोच्च होते हैं. फिर महामंडलेश्वर और उनके अधीन कई मंडलेश्वर और फिर श्री महंत होते हैं. संन्यासी अखाड़ों के प्रबंधन में थानापति और कोठारी भी प्रमुख भूमिका में होते हैं. वैष्णव वैरागियों में श्रीमहंत सर्वोच्च होते हैं. उनके अधीन महंत और कोठार जैसे अन्य पदवी धारी होते हैं. पदवियां योग्यता के अनुरूप दी जाती हैं. लेकिन अखाड़ों का प्रबंधन और प्रशासन चुनी हुई निकाय के माध्यम से होता है.

सभी अखाड़े कुंभ के दौरान नई कार्यसमिति चुनते हैं. हां, कौन सा अखाड़ा किस कुंभ के दौरान अपने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और कोषाध्यक्ष के साथ कार्यसमिति के सदस्यों यानी श्री महंतों का चुनाव करेगा, ये सबकी अपनी-अपनी परंपरा और विधान के अनुसार होता है. उदाहरण के तौर पर महानिर्वाणी अखाड़ा प्रयाग कुंभ और महाकुंभ में अपनी नई कार्यसमिति का चुनाव करता है. यानी छह छह साल पर।

उत्तराधिकारी के चयन में महंत की मर्जी
कुछ अखाड़े हरिद्वार कुंभ और अर्धकुंभ के दौरान भी नई कार्यसमिति चुनते हैं. कुछ त्र्यंबकेश्वर नासिक सिंहस्थ के हिसाब से चलते हैं। महंत अपने उत्तराधिकारी अपनी मर्जी से चुनते हैं. सभी शिष्यों में सबसे योग्य शिष्य को उत्तराधिकारी घोषित करने की परंपरा है. लेकिन उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद शिष्य या तो चारित्रिक पतन, जेल या संन्यास धर्म का त्याग कर दे तो गुरु उत्तराधिकारी को बदल भी सकता है।

अखाड़ों में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और पंचों के रूप में न्यायपालिका भी होती है जो अनुशासनहीनता की गलती या अपराध करने वाले साधु संन्यासी के लिए सजा भी तजवीज कार्य है। अखाड़े के किसी भी मठ, मढ़ी या गद्दी के महंत के उत्तराधिकारी को तभी मान्यता मिलती है जब गुरु के षोडशी कर्म के बाद सभी अखाड़े अपनी रजामंदी की चादर शिष्य को उढ़ा कर मान्यता दे दें।

आसान नहीं है चेला बनना
सभी अखाड़े अंग्रेजों के जमाने से ही सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट में रजिस्टर्ड हैं. सभी के पैन कार्ड हैं जिनमें अखाड़े के सभी बैंक खाते रजिस्टर्ड हैं. यानी संसारी जीवन छोड़कर संन्यस्त जीवन में भी अनुशासन होता है।

महानिर्वाणी अखाड़े के महंत रविंद्र पुरी जी के मुताबिक अखाड़ों में दाखिला इतना आसान नहीं होता. पूरी जांच परख यानी शरीर और चरित्र के समुचित परीक्षण के बाद ही चेला बनाया जाता है. पहले अखाड़े की परंपरा पूजा-पद्धति, अपना भोजन बनाना, वरिष्ठ गुरु बंधुओं और गुरुओं की सेवा सत्कार और अन्य तौर तरीके व अनुशासन के साथ साधना कराई जाती है. शरीर और मन को मजबूत बनाने का कठोर प्रशिक्षण दिया जाता है. तब जाकर चमत्कृत करतब दिखाने वाले नागा संन्यासी तैयार होते हैं. इसी तरह नागा संन्यासियों की परंपरा सतत चली आ रही है।

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