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जयंती विशेषः रानी दुर्गावती से युद्ध में ही मारा गया था शेरशाह सूरी

– रमेश शर्मा

रानी दुर्गावती को हम गोंडवाना की महारानी के रूप में जानते हैं। उन्होंने अकबर के आक्रमण का पुरजोर उत्तर दिया था। आखिरकार वह वीरांगना आसफ खाँ की उस कुटिल चाल का शिकार बनीं, जो उसने जबलपुर के नरई नाले पर रची थी। इसी स्थान पर रानी का बलिदान हुआ था। पर यह कम ही लोग जानते हैं कि आक्रांता शेरशाह सूरी की मौत कालिंजर के युद्ध में वीरांगना दुर्गावती के प्रहारों से ही हुई थी।

कालिंजर का किला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में स्थित है। इस किले और इस क्षेत्र कालिंजर, दोनों का इतिहास भारत में हर युग की घटनाओं से जुड़ा है। यदि पुराण काल में विविध नामों से कालिंजर का उल्लेख मिलता है तो मौर्य काल और गुप्त काल में भी। यह कालिंजर का आकर्षण ही है कि लगभग प्रत्येक आक्रांता ने यहाँ हमला बोला। महमूद गजनवी से लेकर अलाउद्दीन खिलजी , बाबर और शेरशाह सूरी ने भी। आक्रांताओं ने कालिंजर में हत्या, लूट और आतंक तो बहुत किया पर किला हमेशा अजेय रहा।

शेरशाह यूँ तो जौनपुर के एक जागीरदार का लड़का था लेकिन अपने छल-कपट, हिंसा और आक्रामक युद्ध शैली के लिए पूरे भारत में जाना जाता है। उत्तर, मध्य और पश्चिमी भारत की अधिकांश रियासतों पर उसने हमला बोला। वह 1529 में बंगाल का शासक बना। यह वही शेरशाह सूरी है जिसने 1539 में चौसा के युद्ध में हुमायूँ को हराकर मुगल सल्तनत पर कब्जा कर लिया था और हुमायूँ अफगानिस्तान की ओर भाग गया था। इसी शेरशाह सूरी ने 1545 में कालिंजर पर धावा बोला।

रानी दुर्गावती का जन्म इसी कालिंजर के किले में हुआ था। वे कालिंजर के राजा पृथ्वी देव सिंह चंदेल की पुत्री थीं । उनका जन्म 5 अक्टूबर 1524 को हुआ था। वह अपने पिता और प्रभावशाली साम्राज्य की एकमात्र संतान थीं, इसलिये उनका लालन-पालन बहुत लाड़ के साथ हुआ। उनके पिता अपनी प्रिय पुत्री में पुत्र की छवि भी देखते थे, इसलिये उन्हें शास्त्र और शस्त्र विद्या की शिक्षा भी बचपन से ही दी गयी। वन विचरण, सखियों के साथ आखेट भी वे निर्भय होकर करती थीं। बचपन से उनके साथ वीरांगनाओं की एक टोली थी। इसे देखकर ही उनका नाम दुर्गावती रखा गया था।

कालिंजर पर अक्सर हमले होते थे इस कारण वहां के नागरिकों में भी युद्ध कला शिक्षा का चलन हो गया था। इसी संघर्षमय वातावरण में दुर्गावती बड़ी हुईं। दुर्गावती कितनी साहसी थीं इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कृपाण से चीते का शिकार कर लेतीं थीं। उन्होंने बचपन से युद्ध देखे थे। उनकी माता ने उन्हें इतिहास और पूर्वजों की वीरोचित परंपरा की कहानियाँ सुनाकर बड़ा किया था।

दुर्गावती जब 20 वर्ष की थीं तब शेरशाह का आक्रमण कालिंजर पर हुआ। शेरशाह तोपखाने के साथ कालिंजर आया। उसने घेरा डाला, रसद रोकी और समर्पण का संदेश भिजवाया। वीरांगना दुर्गावती के रूप सौन्दर्य वीरता और आकर्षण की चर्चा दूर-दूर तक थी । शेरशाह ने समर्पण के साथ दुर्गावती से विवाह की शर्त रखी। ऐसा शेरशाह ने कई रियासतों में किया था। यही शर्त उसने यहाँ रखी। राजा पृथ्वी देव सिंह चंदेल ने शेरशाह की कोई शर्त मानने से इंकार कर दिया। घेरा लगभग एक माह पड़ा रहा। अंत में शेरशाह ने तोपों से हमला करने का आदेश दिया और राजा ने द्वार खोलकर युद्ध करने का निर्णय लिया। भीषण युद्ध हुआ। युद्ध कुछ दिन चला, अंत में राजा घायल हो गये। उन्हें अचेत अवस्था में भीतर लाया गया। पुनः किले के दरवाजे बंद कर लिये गये। किले के भीतर जौहर की तैयारियां होने लगी लेकिन वीरांगना दुर्गावती ने कुछ क्षण रुकने को कहा। वे किले के बुर्जे पर आईं उन्होंने समझौते का संदेश दिया।

उन्होंने संदेश के साथ यह भी कहलाया कि वे स्वयं भी समर्पण के लिये तैयार हैं। इस संदेश के बाद शेरशाह ने तोपों की गोलाबारी रोक दी। वस्तुतः वीरांगना दुर्गावती चाहतीं थीं कि शेरशाह किले पर तैनात तोपों की सीमा में आ जाये। उन्होंने समर्पण की तैयारी का समय लेने के बहाने अपनी वीरांगना टोली के साथ किले की दीवारों के नीचे तैयारी आरंभ कर दी। किले में बाजे बजने लगे मानों वीरांगना दुर्गावती विवाह करके विदा हो रहीं हों। शेरशाह भी उत्साह में आ गया। अपनी तैयारी के बाद रानी ने शेरशाह को किले में आमंत्रण भेजा। शेरशाह को विश्वास हो इसके लिए बलिदानी वीरांगनाओं की टोली भेजी गई। जैसे ही शेरशाह वीरांगनाओं की इस टोली के साथ बाहर आया, किले की तोप की सीमा में आया। किले की तोप गरज उठी। शेरशाह धोखा-धोखा कहकर उल्टा भागा और एक तोप के गोले से मारा गया।

इस प्रकार वीरांगना दुर्गावती की रणनीति से ही क्रूर हमलावर शेरशाह सूरी मारा गया। यह घटना 22 मई 1545 की है। हालांकि कुछ इतिहासकारों ने लिखा कि शेरशाह तोप के गोले से तो मारा गया पर वह कालिंजर के किले की नहीं खुद शेरशाह की तोप के गोले से मरा। जब शेरशाह ने धोखा-धोखा कह कर तोप चलाने का आदेश दिया तब उक्का नामक तोप का गोला किले की दीवार से टकराकर बिना फटे पलटकर आया और शेरशाह पर गिरा। इन इतिहासकारों से यह प्रश्न किसी ने नहीं पूछा कि तोप के गोले में क्या हवा भरी थी जो पलटकर आ गया। तोप का गोला बिना फटे हमेशा किले की दीवार के आसपास ही गिरता है। खैर जो हो यदि यह मान भी लिया जाय कि शेरशाह अपनी ही तोप के गोले के पलटने से मरा तब भी यह तो स्पष्ट ही है कि उसकी मौत वीरांगना दुर्गावती की रणनीति और उन्हीं से युद्ध करते हुए हुई थी।

इसी वर्ष आगे चलकर दुर्गावती कि विवाह गोंडवाना के राजा दौलत शाह से हो गया। वे रानी बनकर जबलपुर आ गयीं। तब गोंडवाना साम्राज्य मंडला, नागपुर से लेकर नर्मदा पट्टी तक भोपाल था जिसमें आज के रायसेन, सीहोर, भोपाल और होशंगाबाद जिले भी आते हैं ।

एक वर्ष बाद उन्हें पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। रानी का वैवाहिक जीवन लंबा न चला चार वर्ष बाद ही उनके पति की मृत्यु हो गयी। उन्होंने अपने तीन वर्षीय पुत्र वीर नारायण को सिंहासन पर बैठाया और राजकाज संभालने लगीं। वे प्रजा वत्सल वीरांगना थीं। जबलपुर का आधारताल, चेरी ताल और रानीताल उन्हीं के कार्यकाल में हुये। उन पर माँडू के सुल्तान बाज बहादुर ने तीन बार आक्रमण किया वह तीनों बार पराजित हुआ।

अकबर के सेनापति आसफ खाँ का मुख्यालय इलाहाबाद था। उसने दो बार आक्रमण किया, एक बार पराजित हुआ किन्तु दूसरी बार उसने नाले पर युद्ध की रणनीति तैयार की। यहीं युद्ध करते हुए रानी का बलिदान हुआ, यह 24 जून 1564 का दिन था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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