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भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देगा सहकारिता मंत्रालय

– मानवेंद्र सिंह

मोदी सरकार के विस्तार में लिए गए निर्णय में जिस नए सहकारिता मंत्रालय की रचना की गई है, उसमें अपार संभावनाएं हैं। यह निर्णय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विगत 7 साल में लिए गए सबसे बड़े आधारभूत फैसलों में से एक है। विगत 7 साल में मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ से लेकर नोटबंदी, आत्मनिर्भर भारत और जीएसटी जैसे बड़े आर्थिक फैसले ले चुकी है और वे फैसले सार्थक भी साबित हुए हैं। आज विश्वव्यापी महामारी कोरोना की वजह से पूरे विश्व की अर्थव्यवस्था नकारात्मक दौर से गुजर रही है। फिर भी भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी 2024 तक 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब नए मंत्रालय के गठन का निर्णय लिया तब इस निर्णय से भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी आनी स्वाभाविक है। विश्व की नजर एक बार फिर भारतीय अर्थव्यवस्था पर है। भारतीय अर्थव्यवस्था चार स्तंभों पर आधारित है-सार्वजनिक क्षेत्र, निजी क्षेत्र, संयुक्त क्षेत्र और सहकारी क्षेत्र। अर्थव्यवस्था के विकास में सहकारी योगदान महत्वपूर्ण है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करने में सहकारिता आन्दोलन की बहुत बड़ी भूमिका है और देश के कई राज्यों में इसके माध्यम से वहां के किसानों और आम आदमी के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है। सहकारिता का आन्दोलन विशुद्ध रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था से जुड़ा एक अभियान है।

सहकारी संस्थाओं की मजबूती और उनका आधार लोकतांत्रिक प्रणाली है वर्तमान नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा कार्यभार ग्रहण किए जाने के समय देश में सहकारिता की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और इस क्षेत्र में काफी उथल-पुथल थी। सहकारिता आन्दोलन में स्वार्थी तत्वों की घुसपैठ के कारण यह आन्दोलन दम तोड़ने के कगार पर था, लेकिन आज देश में सहकारिता उससे उभर कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ गया है।सूक्ष्म, लघु एवं मंझोले उद्यम (एमएसएमई) के विस्तार और विकास में सहकारिता आन्दोलन उल्लेखनीय योगदान कर सकता है। यह न केवल इस क्षेत्र को सुदृढ़ बना सकता है, बल्कि उसके माध्यम से रोजगार के सृजन और स्वावलम्बन का एक नवीन मार्ग भी प्रशस्त कर सकता है।

आर्थिक विकास के विभिन्न साधनों में सहकारिता की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। साथ मिलकर काम करने की भावना ही सहकारिता होती है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में तो सहकारिता की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यह बात अलग है कि इस भावना में निरंतर कमी होती जा रही है जिसका कारण यह है कि समाज का ढांचा वैयक्तिकता की ओर बढ़ रहा है। वर्तमान में समूह के स्थान पर व्यक्तिगत भावना का वर्चस्व अधिक है, जिसका प्रभाव सहकारिता पर पड़ रहा है। सहकारी समितियों का महत्व विकास कार्यक्रमों के संचालन में अधिक है। साथ-साथ काम करने से जहां एक ओर काम बंट जाता है, तो इसका प्रभाव उत्पादन एवं उत्पादकता पर भी पड़ता है।

सहकारिता एक ऐसा संगठन है जिसके अंतर्गत लोग स्वेच्छा से मिलकर एवं संगठित होकर जनकल्याण के लिए कार्य करते हैं। इसकी सदस्यता स्वैच्छिक होती है। किसी व्यक्ति की इच्छा के विरुद्ध इस संगठन का सदस्य बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। सहकारिता समिति का कार्य संचालन जनतांत्रिक आधार पर होता है। इसमें सबको बराबर समझा जाता है। सभी को समान अवसर व समान अधिकार प्राप्त होते हैं।सहकारी समितियां समानता की भावना पर आधारित होती है।

पूंजी धर्म, राजनीति, जाति, सामाजिक स्तर आदि किसी भी आधार पर कोई भी भेदभाव नहीं किया जाता। इन समितियों में संस्था के सदस्य अपने कार्यों का प्रबंध व संचालन स्वयं करते हैं, यहां तक कि संगठन अपने सेवा कार्यों हेतु वित्तीय संसाधनों सहित सभी व्यवस्थाएं स्वयं करता है। आज की व्यक्तिवादी अर्थव्यवस्था में सहकारिता का महत्व अधिक बढ़ गया है। आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने में इसका महत्व विशेष रूप से रहा है। विगत दशकों में सहकारिता ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए जिन प्रमुख संस्थाओं की आवश्यकता महसूस की गई, उसमें सहकारी समिति प्रमुख हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों की स्थापना का मतलब है कि ग्रामीण निर्बल व्यक्ति भी अपना विकास करने में समर्थ हो जाते हैं क्योंकि इन समितियों का सदस्य बनने में धनी व निर्धन के बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता। सभी को समान अवसर, अधिकार व उत्तरदायित्व प्राप्त होते हैं। सहकारी समितियों का समाज में इसीलिए अधिक महत्व है, क्योंकि यह संगठन शोषण रहित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था स्थापित करने में सहायक है।

ग्रामीण समुदाय में सहकारिता का लाभ विशेष रूप से मिलता है क्योंकि देश का ग्रामीण क्षेत्र विकास की धारा में पीछे रह जाता है। अत: आर्थिक विकास को इन क्षेत्रों में तीव्र करने का यह मुख्य साधन है। लेकिन यदि हम सहकारिता के आर्थिक आंकड़ों को छोड़कर वास्तविक रूप में उसकी समीक्षा करें तो पाएंगे कि देश के कई भागों में आज भी इसका विस्तार नहीं हो पाया है। लगभग 40 से 50 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी सहकारी समितियों के क्षेत्र में बाहर हैं।

सहकारी समितियों में आपसी वाद-विवाद बढ़ते जा रहे हैं। राजनीतिक प्रभाव इनमें दृष्टिगत हो रहा है। यद्यपि समितियों ने देश के आर्थिक विकास में विशेष रूप से ग्रामीण विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, लेकिन इसके बावजूद भी ये अनेक क्षेत्रों में दोषपूर्ण रही है। सहकारी समितियों की असफलता का एक महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि इन समितियों में प्रशिक्षित व कुशल प्रबंध का अभाव रहा है। फलस्वरूप इनकी आय, व्यय, ऋण आदि के हिसाब में अनियमितताएं एवं अन्य अनेक कमियां परिलक्षित होती है। सहकारी समितियों का उद्देश्य आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक व नैतिक विकास करना भी था, लेकिन देखने में यह आया है कि ये सहकारी समितियां मात्र वित्तीय समितियां बनकर रह गई है, इनके द्वारा सामाजिक व नैतिक विकास का लक्ष्य अधूरा रह गया है। सहकारी साख समितियों के पास पर्याप्त संसाधनों की कमी है।

कई जगह वित्तीय संसाधनों ग्रामीण किसानों एवं कारीगरों को उपलब्ध कराई गईं, वह अपर्याप्त रूप में रहीं। उसमें कुछ राज्यों में ऋण राशि अधिक रही है, तो अनेक राज्यों में यह बहुत ही कम रही है। सहकारी समितियों की स्थापना भी देश में सभी जगह समान रूप से नहीं हो पाई है। पंजाब, महाराष्ट्र राज्यों की 75 प्रतिशत, जनता के लिए सहकारी समितियां उपलब्ध हो पाई हैं, जबकि उड़ीसा, बिहार, तथा असम राज्यों में 25 प्रतिशत ग्रामीण जनता को भी यह सुविधा सुलभ नहीं हो पाई है।

ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी समितियों के पूर्ण सफल न होने के पीछे एक कारण यह भी है कि इनकी नीति व कार्यक्रमों में समन्वय का अभाव रहा है। सहकारी समितियों की पूर्ण सफलता के लिए यह आवश्यक है कि इन समितियों की नियमित जांच, सर्वेक्षण, पर्यवेक्षण तथा निरीक्षण होना चाहिए। तभी ये ग्रामीण विकास में अपना पूर्ण योगदान दे सकेंगी, वर्तमान सरकार जिस इच्छाशक्ति के साथ नए सहकारी मंत्रालय का रचना किए हैं उसके पुराने निर्णय को देखते हुए यह उम्मीद लगाई जा सकती है कि सरकार इस योजना को सफल बनाने के लिए नए नियम बनाएगी जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को सफलता का नया आयाम मिल सके और नरेंद्र मोदी सरकार भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को प्राप्त कर सके।

— लेखक स्वतंत्र चिंतक हैं।

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