अलीगढ़ । इस्लाम (Islam) में दो प्रमुख ईदें (Eid) मनाई जाती हैं, ईद-उल-फितर और ईद-उल-अजहा (Eid-ul-Fitr and Eid-ul-Adha). ये दोनों त्यौहार न सिर्फ धार्मिक महत्त्व रखते हैं, बल्कि समाज में आपसी भाईचारे, सहयोग और इंसानियत की मिसाल भी पेश करते हैं. बकरा ईद इस बार 7 जून को दुनियाभर मे मनाई जाएगी. मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना इफराहीम हुसैन बताते हैं कि ईद-उल-अजहा, जिसे आम बोलचाल में ‘बकरा ईद’ कहा जाता है, हजरत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की कुर्बानी की याद में मनाई जाती है. मौलाना इफराहीम (Maulana Ifrahim) बताते हैं कि कुरआन शरीफ के मुताबिक, अल्लाह ने इब्राहीम की आजमाइश ली थी और उनसे उनके सबसे प्यारे बेटे हजरत इस्माइल की कुर्बानी मांगी थी.
उन्होंने बिना किसी झिझक के अल्लाह का हुक्म मान लिया. जब वे अपने बेटे की कुर्बानी देने लगे, तो अल्लाह ने एक दुम्बा भेजा और उसे कुर्बानी के लिए पेश कर दिया. इस वाकये से हमें यह सीख मिलती है कि जब इंसान पूरी सच्चाई और ईमानदारी से अल्लाह की राह में कुर्बानी देता है, तो अल्लाह उसकी नीयत को देखता है और उसकी कुर्बानी को कुबूल करता है.
मौलाना इफराहीम कहते हैं कि ईद-उल-फितर रमजान के पूरे होने के बाद मनाई जाती है, जब मुसलमान पूरे महीने रोजा रखते हैं. यह ईद रोजों की इबादत और संयम का इनाम होती है. इस दिन फितरा (दान) देना जरूरी होता है ताकि गरीब और जरूरतमंद भी ईद की खुशियों में शामिल हो सकें. इस ईद में मिठाइयां, सेवइयां और मिलजुल कर खुशियां बांटना मुख्य होता है. जबकि ईद-उल-अजहा कुर्बानी की ईद है. यह हज के बाद मनाई जाती है और इसमें जानवरों की कुर्बानी दी जाती है, जिसका गोश्त तीन हिस्सों में बांटा जाता है. एक हिस्सा गरीबों को, एक रिश्तेदारों को और एक अपने लिए. यह ईद त्याग, सहयोग और इंसानियत की भावना का प्रतीक है.
मौलाना इफराहीम के अनुसार, इन दोनों ईदों का उद्देश्य न सिर्फ धार्मिक कर्तव्यों की पूर्ति है, बल्कि समाज में प्रेम और समानता का संदेश फैलाना भी है. चाहे वह रोजों का संयम हो या कुर्बानी का जज्बा, दोनों हमें बेहतर इंसान बनने की राह दिखाते हैं.
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