-ललित गर्ग
हाल ही में पंजाब विश्वविद्यालय की ओर से देश के 34 शहरों में खुशी का स्तर नापने के लिये एक महत्वपूर्ण सर्वे कराया गया, अब तक इस तरह के सर्वे एवं शोध विदेशों में ही होते रहे हैं, भारत में इस ओर कदम बढ़ाना जागरूक समाज का द्योतक हैं। इस किय गए सर्वे की रिपोर्ट में लुधियाना, अहमदाबाद और चंडीगढ़ को भारत के सबसे खुश शहरों का तमगा हासिल हुआ है। लोगों की खुशी का स्तर नापने के लिए इस अध्ययन में पांच प्रमुख कारक रखे गए थे- कामकाज, रिश्ते, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य, लोकोपकार और धर्म-अध्यात्म। दुनिया के स्तर पर भी हैपिनेस इंडेक्स जारी किए जाने की खबरें हर साल आती रहती हैं। संयुक्त राष्ट्र की ओर से भी विश्व प्रसन्नता रिपोर्ट जारी की जाती है, वर्ष 2019 में भारत का स्थान 133 से नीचे सरककर 140वें पायदान पर आ गया था। इस तरह यह गंभीर चिंता की बात है कि हम प्रसन्न समाजों की सूची में पहले की तुलना और नीचे आ गये हैं।
प्रसन्नता से जुड़ी सूचनाओं से हमें अलग-जगहों पर लोगों की मनोदशा को लेकर कुछ जानकारी मिलती है, लेकिन ज्यादा बड़ी बात यह है कि कोरेे धन से खुशी तलाशने वालों को ये तथ्य सावधान करते हैं, क्योंकि धन के अलावा खुशहाली के कुछ दूसरे कारक भी हैं, जिनको पंजाब विश्वविद्यालय ने अपनी नयी सर्वे में चुना है। सरकार के नीति निर्माताओं के अजेंडे पर ये कारण आने चाहिए। इस तरह के सर्वे का उद्देश्य ही प्रसन्न समाज की बाधाओं को सामने लाना एवं प्रसन्न-खुशी समाज निर्मित करना है। इस तरह के सर्वे रिपोर्ट का आना जहां सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को आत्ममंथन करने का अवसर देता है, वहीं नीति-निर्माताओं को भी सोचना होगा कि कहां समाज निर्माण में त्रुटि हो रही है कि हम लगातार खुशहाल देशों की सूची में नीचे खिसक रहे हैं।
दुनिया में विकास के जो पैमाने स्थापित हैं क्या वे आम-जन की खुशी एवं प्रसन्नता की बुनियादी जरूरतों पर तय होते हैं? सरकारें खुद को कामयाब दिखाने के लिए जीडीपी के आंकड़े लगातार बढ़ाने की कोशिश करती हैं, उनकी आम लोगों के जीवन को खुशहाल बनाने में कितनी भूमिका है, इस पर अब दुनिया में गंभीर बहस की एवं अनुसंधान की जरूरत है। क्या दुनिया की सरकारें खुशी और प्रसन्नता को आधार बनाकर अपनी नीतियां बनाती है? दुनिया में भूटान वह अकेला देश है जहां सरकार बाकायदा जीएनएच (ग्रॉस नेशनल हैपिनेस) इंडेक्स को आधार बनाकर अपनी नीतियां तय करती है और लोगों के जीवन में खुशी लाना अपना लक्ष्य मानती है।
ऐसे सर्वे का मकसद विभिन्न देशों के शासकों को आईना दिखाना है कि उनकी नीतियां लोगों की जिंदगी खुशहाल बनाने में कोई भूमिका निभा रही हैं या नहीं? आजादी के बाद के भारत के शीर्ष नेतृत्व ने निरन्तर आदर्शवाद और अच्छाई का झूठ रचते हुए सच्चे आदर्शवाद के प्रकट होने की असंभव कोशिश की है, इसी से जीवन की समस्याएं सघन होती गयी है, नकारात्मकता का व्यूह मजबूत होता गया है, खुशी एवं प्रसन्न जीवन का लक्ष्य अधूरा ही रहा है, इनसे बाहर निकलना असंभव-सा होता जा रहा है। दूषित और दमघोंटू वातावरण में आदमी अपने आपको टूटा-टूटा सा अनुभव कर रहा है। आर्थिक असंतुलन, बढ़ती महंगाई, बिगड़ी कानून व्यवस्था, चरमर्राते रिश्ते, जटिल होंती जीवनशैली, बिगड़ता स्वास्थ्य, महामारियां एवं भ्रष्टाचार उसकी धमनियों में कुत्सित विचारों का रक्त संचरित कर रहा है। ऐसे जटिल हालातों में इंसान कैसे खुशहाल जीवन जी सकता है?
आधुनिक समाज व्यवस्था का यह कटु यथार्थ है कि भौतिक सुविधाओं तक पहुंच एक ठोस हकीकत है जिसे देखा, समझा और नापा जा सकता है। उन सुविधाओं की बदौलत किसको कितनी खुशी मिलती है या नहीं मिलती, यह व्यक्ति की अपनी बनावट, मनःस्थिति एवं सरकार की नीतियों पर निर्भर करता है। इसे कैसे नापा जाए और सरकारें इसे नीति निर्धारण का आधार बनाएं तो उन नीतियों की सफलता-असफलता का आकलन कैसे हो? हालांकि यह व्यक्ति के मनोजगत की बात है, फिर भी इसके कुछ सूत्र पंजाब यूनिवर्सिटी की स्टडी में मिलते हैं। जैसे, आधुनिक पारिवारिक संरचना को लें तो रिपोर्ट में पाया गया कि शादीशुदा लोगों के मुकाबले अविवाहित लोग खुद को ज्यादा खुश बताते हैं। इसका मतलब यह लगाया गया कि स्थिरता के बजाय जिम्मेदारियों के झंझट से बचे रहना खुशी का एक जरिया हो सकता है। विकास की सार्थकता इस बात में है कि देश का आम नागरिक खुद को संतुष्ट और आशावान महसूस करे। स्वयं आर्थिक दृष्टि से सुदृढ़ बने, कम-से-कम कानूनी एवं प्रशासनिक औपचारिकताओं का सामना करना पड़े, सरकारी, पारिवारिक झंझट कम से कम हो, तभी वह खुशहाल हो सकेगा।
सवाल यह भी है कि आखिर वे कौन सी जरूरतें या जिम्मेदारियां हैं जिनसे किसी को अपने जीवन की खुशी छिनती हुई जान पड़ती है। बच्चों की पढ़ाई की चिंता से मुक्ति एवं बीमार पड़ने पर किसी आर्थिक संकट में फंसे बगैर इलाज हो जाने का भरोसा ऐसे कारण हैं, जो आमजन की छिनती खुशी पर अंकुश लगा सकते हैं, बहरहाल, इस अध्ययन से इतना तो पता चलता ही है कि सरकारी नीतियों की दिशा ऐसी होनी चाहिए जो आम व्यक्ति को खुशी जीवन दे सके। जिसके लिये सरकार की सोच को एवं नीतियांे में व्यापक बदलाव की जरूरत है, सरकार की नीतियों का लक्ष्य समाज में सुशासन, प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, सुरक्षा का भरोसा, सामाजिक सहयोग, कम-से-कम सरकारी औपचारिकताएं एवं झंझट, स्वतंत्रता और उदारता आदि होना चाहिए। लेकिन विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि हमारा भारतीय समाज एवं यहां के लोग पाकिस्तान और बांग्लादेश सहित अपने ज्यादातर पड़ोसी समाजों से कम खुश है।
यहां प्रश्न यह भी है कि आखिर हम खुशी और प्रसन्नता के मामलें क्यों पीछे हैं, जबकि पिछले कुछ समय से भारतीय अर्थव्यवस्था की तेजी को पूरी दुनिया ने स्वीकार किया है। अनेक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों ने इस मामले में हमारी पीठ ठोकी है। यही नहीं, खुद संयुक्त राष्ट्र ने मानव विकास के क्षेत्र में भारतीय उपलब्धियों को रेखांकित किया है। बावजूद इसके, खुशहाली में हमारा मुकाम नीचे होना आश्चर्यकारी है।
दरअसल पिछले तीन-चार दशकों में भारत में विकास प्रक्रिया अपने साथ हर मामले में बहुत ज्यादा विषमता लेकर आई है। जो पहले से समर्थ थे, वे इस प्रक्रिया में और ताकतवर हो गए हैं। यानी लखपति करोड़पति हो गए और करोड़पति अरबपति बन गए। एकदम साधारण आदमी का जीवन भी बदला है लेकिन कई तरह की नई समस्याएं उसके सामने आ खड़ी हुई हैं। नौकरी-रोजगार, अर्थव्यवस्था, महंगाई, पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम, रुपया का अवमूल्यन, किसानों की दुर्दशा, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था, महिलाओं पर बढ़ते अपराध, शिक्षा, चिकित्सा, महामारियां ऐसे अनेक ज्वलंत मुद्दे हैं, जिनका सामना करते हुए व्यक्ति निश्चित ही तनाव में आया है। उसकी खुशियां कम हुई है, जीवन में एक अंधेरा व्याप्त हुआ है। क्यों होता है ऐसा? कभी महसूस किया आपने?
वास्तव में यह स्थितियां एक असंतुलित एवं अराजक समाज व्यवस्था की निष्पत्ति है। ऐसे माहौल में व्यक्ति खुशहाल नहीं हो सकता। एक महान विद्वान ने कहा था कि जब हम स्वार्थ से उठकर अपने समय को देखते हुए दूसरों के लिए कुछ करने को तैयार होते हैं तो हम सकारात्मक हो जाते हैं। सरकार एवं सत्ताशीर्ष पर बैठे लोगों को निस्वार्थ होना जरूरी है। उनके निस्वार्थ होने पर ही आम आदमी के खुशहाली के रास्ते उद्घाटित हो सकते हैं। खुशहाल भारत को निर्मित करने के लिये आइये! अतीत को हम सीख बनायें। उन भूलों को न दोहरायें जिनसे हमारी रचनाधर्मिता एवं खुशहाल जीवन जख्मी हुआ है। जो सबूत बनी हैं हमारे असफल प्रयत्नों की, अधकचरी योजनाओं की, जल्दबाजी में लिये गये निर्णयों की, सही सोच और सही कर्म के अभाव में मिलने वाले अर्थहीन परिणामों की। एक सार्थक एवं सफल कोशिश करें खुशहाली को पहचानने की, पकड़ने की और पूर्णता से जी लेने की।
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