भोपाल न्यूज़ (Bhopal News)

मप्र में भाजपा शासन काल में खत्म हो गए क्षेत्रीय दल

  • बसपा, सपा जनाधार बचाने के लिए कर रही संघर्ष, बाकी बांट हीं सिंबल
  • आम आदमी पार्टी, भीम आर्मी चुनाव में एंट्री करने को बेताव

रामेश्वर धाकड़
भोपाल। प्रदेश में निकट भविष्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी, भीम आर्मी समेत अन्य नई क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय दलों के प्रत्याशी उतर सकते हैं। जबकि 20 साल से प्रदेश में भाजपा शासनकाल में क्षेत्रीय दलों का जनाधार लगभग खत्म हो गया है। 2003 से पहले जो दल मप्र में विधानसभा में दिखाई देते थे, वे अब चुनाव में सिर्फ सिंबल बांटने तक सीमित रह गए हैं। 2008 के बाद मप्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा के अलावा अन्य कोई दल एक सीट भी जीत नहीं पाया है। यदि चंद्रशेखर रावण आजाद की आजाद समाज पार्टी अगले चुनाव में उतरती है तो सपा और बसपा के सामने भी मप्र में जनधार बचाने का संकट खड़ा होगा।
मप्र में क्षेत्रीय दलों जनाधार खत्म होने के पीछे की प्रमुख वजह मप्र की चुनावी राजनीति दो प्रमुख दल कांग्रेस एवं भाजपा तक सिमटकर रह गई है। आज की स्थिति में मप्र विधानसभा में समाजवादी पार्टी के पास सिर्फ 1 सीट बची है। इसी तरह बहुजन समाज पार्टी के पास 2 विधायक हैं। मप्र में छोटे दलों को सियासी गलियारों में चर्चा रहती है कि बसपा और सपा से विधायक बनने वाले ज्यादातर नेताओं ने अपना दल बदला है और वे अपनी पार्टी से दूसरी बार टिकट पाने में भी सफल नहीं हो पाते हैं। यही वजह हो सकती है कि छतरपुर जिले की बिजावर सीट से सपा के इकलौते विधायम राजेश शुक्ला भाजपा के पाले में पहले ही आ चुके हैं। इसी तरह बसपा के दो विधायक भिंड से संजीव सिंह और दमोह जिले की पथरिया से रामबाई भी भाजपा के नजदीक हैं। हालांकि संजीव सिंह के भाजपा में जाने की पूरी संभावना है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में 2003 से भाजपा की सरकार है।


इसलिए खत्म हो गए क्षेत्रीय दल
ऐसा नहीं है कि क्षेत्रीय दलों का जनाधार मप्र में ही घटा हो। अन्य राज्यों मेंं भी ये दल अपनी राजनीतिक विरासत बचाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं। मप्र से सटे उप्र में बसपा और सपा का लंबे समय तक राज कायम रहा है, लेकिन आज दोनों दलों की स्थित किसी से छिपी नहीं है। क्षेत्रीय दलों का प्रभाव घटने की कई वजह हैं। जिनमें से प्रमुख यह है कि भाजपा ने इन दलों के खिलाफ एक व्यक्ति या एक परिवार की पार्टी बताकर सियासी हमला बोला। इन दलों को स्थापित करने वाले नेताओं ने दूसरी पीड़ी केा खड़ा नहीं किया। अंतिम समय तक पार्टी की कमान खुद के हाथ में रखे रहे। पार्टी में फूट भी बड़ा कारण है। साथ ही बढ़ते चुनाव खर्च के अलावा अन्य भी कारण हैं।

2003 तक क्षेत्रीय दलों का रहा है दबदबा
मप्र में 2003 तक विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों का भी दबदबा था। 2003 में समाजवादी पार्टी (सपा)7, बसपा के 2 , गोंडवाना गंणतंत्र पार्टी (जीजीपी) के 3, राष्ट्रीय समानता दल (आरएसडी)के 2, कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ (सीपीयूआई एम)इंडिया, जनता दल यूनाईटेड (जेडीयू) और नेशनलिष्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी)के 1-1 विधायक चुनकर आए थे। जबकि 2008 के चुनाव में सपा और बसपा को छोड़कर अन्य शेष सभी क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय पार्टियां का जनाधार खत्म हो चुका था। 2008 में बसपा को 7, सपा को 1 सीट मिली थी। उमा भारती की जनशक्ति पार्टी भी 5 सीट जीती थी। जबकि 2013 के चुनाव में तीसरी पार्टी के रूप में सिर्फ बसपा ही 3 सीट जीत पाई थी। इसी तरह 2018 के चुनाव में बसपा 2 और सपा 1 सीट जीतकर पहुंची थी। मौजूदा स्थिति में सपा और बसपा का जनाधान सिर्फ यूपी सीमा से सटे जिलों में ही बचा है। दोनों पार्टियों का मप्र में जनाधार कम हो गया है।

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