ब्‍लॉगर

मज़हबी नशा

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

कल मैंने पाकिस्तान और बांग्लादेश के सांप्रदायिक दंगों पर इन दोनों पूर्व-भारतीय देशों की बदनामी का जिक्र किया था लेकिन दिल्ली की सिंघु-सीमा पर हुई नृशंस हत्या ने तो भारत को भी उसी श्रेणी में ला खड़ा किया है। यदि पाकिस्तान और बांग्लादेश जिन्ना और मुजीब को शीर्षासन करवा रहे हैं तो भारत गांधी को शीर्षासन करवा रहा है। बांग्लादेश में चल रही हिंसा का कारण कुरान के प्रति बेअदबी को बताया जा रहा है तो सिंघु बार्डर पर हुए एक अनुसूचित मजदूर की हत्या का कारण गुरु ग्रंथसाहब के प्रति उसकी बेअदबी को बताया जा रहा है।

किसी धर्मग्रंथ या धर्मध्वजी या श्रद्धेय का अपमान करना सर्वथा अनुचित है। उनका अपमान उनके माननेवालों का अपमान है। यह उनके दिल को दुखाने का काम है। किसी धर्मग्रंथ या किसी महापुरुष का अपमान करके आप उसके अनुयायियों का न तो दिल जीत सकते हैं और न ही उनको डरा सकते हैं। लेकिन ऐसा करनेवाले की हत्या करना या उन्हें लंबी-चौड़ी सजा देना भी मेरी विनम्र राय में उचित नहीं है। ईसा मसीह ने तो उन्हें सूली पर लटकाने वाले लोगों के लिए ईश्वर को कहा था कि आप इन्हें माफ कर दीजिए, क्योंकि इन्हें पता नहीं है कि ये क्या कर रहे हैं। खुद पैगंबर मुहम्मद साहब उस यहूदी महिला की सेवा में जाकर जुट गए, जो रोज़ उन पर कूड़ा फेंकती थी। महर्षि दयानंद ने अपने रसोइए जगन्नाथ को 500 रु. कल्दार दिए और नेपाल भाग जाने के लिए कहा, क्योंकि उन्हें ज़हर देने के अपराध में पुलिस उसको पकड़ सकती थी।

ये अद्भुत उदाहरण हैं- महापुरुषों के लेकिन उनके अनुयायियों की अंधभक्ति देखिए कि किसी धर्मग्रंथ के खातिर वे किसी भी आदमी की जान लेने को तैयार हो जाते हैं। क्या ईसा मसीह, पैगंबर मुहम्मद, महर्षि दयानंद और गुरु नानक महाराज इस तरह के जघन्य कृत्य का समर्थन करते ? कतई नहीं। लेकिन निहंग सिखों ने मिलकर यह काम कर दिया। उनका गुस्सा स्वाभाविक है। जिस व्यक्ति ने उस अनुसूचित मजदूर की हत्या की है, उसे महानायक बनाकर उसका जुलूस निकाला गया और उसने स्वयं जाकर पुलिस थाने में समर्पण किया याने उस हत्या को निहंग लोग पुण्य-कार्य की श्रेणी में ले गए हैं लेकिन यह हत्या इतनी भयंकर थी कि हत्यारे ने ‘दोषी’ के पहले हाथ काटे, फिर पांव काटे और फिर मार डाला।

हमारे निहंगों ने गांधी के भारत को जिन्ना के पाकिस्तान और मुजीब के बांग्लादेश से भी ज्यादा नीचे गिरा दिया। उनका यह कुकृत्य उस अहिंसक किसान आंदोलन के लिए भी एक बदनुमा धब्बा बन गया है, जो अब तक सिंघु बार्डर पर शांतिपूर्वक चल रहा था। समझ में नहीं आता कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में मध्यकालीन यूरोप की तरह छाया हुआ यह मजहबी नशा कब और कैसे दूर होगा ? जब तक इस मजहबी नशे से भारत मुक्त नहीं होगा, वह आधुनिक नहीं बन पाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व जाने-माने स्तंभकार हैं।)

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