ब्‍लॉगर

अमृतकाल में महात्मा गांधी का स्मरण

– गिरीश्वर मिश्र

भारत की आजादी का अमृत महोत्सव हर भारतीय के लिए जहां गर्व का क्षण है वहीं आत्म-निरीक्षण का अवसर भी प्रस्तुत करता है । पराधीनता की देहरी लांघ कर स्वाधीनता के परिसर में आना निश्चय ही गौरव की बात है । लगभग दो सदियों लम्बे अंग्रेजों के औपनिवेशिक परिवेश ने भारत की जीवन पद्धति को शिक्षा, कानून और शासन व्यवस्था के माध्यम से इस प्रकार आक्रांत किया था कि देश का आत्मबोध निरंतर क्षीण होता गया। इसके फलस्वरूप हम एक पराई दृष्टि से स्वयं को और दुनिया को भी देखने के अभ्यस्त होते गए । उधार ली गई विचार की कोटियों के सहारे बनी यथार्थ की समझ और उसके मूल्यांकन की कसौटियां ज्ञान-विज्ञान में नवाचार और आचरण की उपयुक्तता के मार्ग में आड़े आती रहीं और राजनैतिक दृष्टि से एक स्वतंत्र देश होने पर भी देश को मानसिक बेड़ियों से मुक्ति न मिल सकी।

मानसिक अनुबंधन के फलस्वरूप पाश्चात्य को (जो स्वयं में मूलतः एक प्रकार का स्थानीय या देसी ही था) सार्वभौम मान बैठने की भूल हुई परंतु उसके कुचक्र में भारतीय दृष्टि और उसकी विशाल ज्ञान-परम्परा का प्राय: तिरस्कार ही होता रहा और वह ओझल होती गई। दूसरी ओर सृष्टि की चेतना और संवेदना की व्यापक परम्परा के साथ व्यष्टि और समष्टि चिंता रखने की जगह घोर स्वार्थ केंद्रित भौतिकवाद और उपयोगितावाद को अंतिम सत्य स्वीकारने वाली पश्चिमी दृष्टि हम पर हाबी होती गई । यद्यपि इस मार्ग की सीमाओं को महात्मा गांधी जैसे समाज-चिंतकों ने बताया था विशेषत: ‘हिंद स्वराज’ तो बीसवीं सदी के शुरू में ही इस तरह के जोखिम भरे भविष्य की झलक दिखला चुका था। जीवन भर बापू अपने रचनात्मक कार्यक्रमों और आश्रमों द्वारा आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक और नैतिक जीवन के विकल्प का मार्ग प्रयोग रूप में भी दिखा रहे थे। इस दृष्टि से वे ‘स्वदेशी’ को स्वाभाविक और समाज तथा भौतिक परिवेश के अनुकूल पाते थे । वे यह भी मान रहे थे कि स्वदेशी को अपनाने से देश के संसाधनों का देश को समृद्ध बनाने के लिए उपयोग हो सकेगा ।


स्वतंत्र भारत की शिक्षा, देश के विकास की योजनाओं और आर्थिक- सांस्कृतिक समृद्धि के लिए जिन विविध उपायों को अपनाने के साथ देश की जीवन-यात्रा शुरू हुई उन सबका केंद्र भारत या स्वदेशी न हो कर विदेशी या पश्चिम के तथाकथित विकसित देश थे । विकास में पश्चिम हम से आगे था और हमें वैसा ही बनना था वह भी फ़ौरन से पेश्तर । अर्थात भारतीय समाज की नियति महत्वपूर्ण अर्थों में पूर्ववत ही बनी रही और स्वाधीन भारत में भी औपनिवेशिक समय के लक्ष्यों की संगति में निरंतरता बनी रही । परिणामत: हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल और उधारी की भरमार हो गई । कालक्रम में चलते हुए वैश्वीकरण की आड़ में पश्चिमी देशों का नव उपनिवेश भी बनने लगा ।

आज तीन चौथाई सदी बीतने पर हम देश को जहां खड़े पा रहे हैं और जिन समस्याओं से जूझ रहे हैं वह स्थिति यदि कुछ क्षेत्रों में गर्व का अनुभव कराती है तो अनेक क्षेत्रों में असफलता और हीनता का भी अहसास कराती है । आज हर कोई यह अनुभव कर रहा है कि गरीबी, बेरोजगारी, आर्थिक और अन्य अपराध, विभिन्न प्रकार के भेद-भाव, घर और बाहर फैलती हिंसा, पारस्परिक अविश्वास, निजी और सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों से स्खलन होने की घटनाएं जिस तरह बढ़ रही हैं वे आम आदमी की जीवन-चर्या को निरंतर असहज और पीड़ादायी बनाती जा रही हैं । छल-छद्म, दिखावे, लालफीताशाही, भाई भतीजावाद, चापलूसी और अकर्मण्यता के चलते उत्कृष्टता की दिशा में आगे बढ़ने में आने वाली अनेक बाधाएं लोगों में क्षोभ पैदा कर रही हैं । ये सब आज के कठिन समय के अभिलक्षण जैसे होते जा रहे हैं और इन्हें अनिवार्य मान कर लोग छोटे बड़े समझौतों के साथ जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं । समानता, समता और बंधुत्व के भाव अभी भी अधिकांश में हमारी जीवन शैली में प्रतीक्षित ही बने हुए हैं ।

वर्तमान की उपलब्धियों और सीमाओं को ध्यान में रख कर देश के भविष्य पर विचार करते समय हमारा ध्यान देश को सशक्त और आत्मनिर्भर बनाने पर जाता है । इस लक्ष्य को पाने के लिए स्वदेशी का विचार स्वधर्म के रूप में उभर कर आता है जो सकारात्मक कार्य संस्कृति को संभव कर सकता है । स्वदेशी कहते हुए हमारा ध्यान अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल देशज व्यवस्था की ओर जाता है । स्वदेशी को अपनाते हुए हम अपने निकट के संसाधनों के उपयोग पर ध्यान देते हैं और पारिस्थितिकी की सीमाओं का सम्मान करते हैं । इससे स्थानीय व्यवस्था को सुदृढ़ करने में मदद मिलती है, सत्ता का विकेंद्रीकरण होता है और सामान्य जन को समृद्ध होने का अवसर भी उपलब्ध होता है । उससे रोजगार के अवसर भी बढ़ते हैं और विस्थापन तथा पलायन की विकराल होती समस्या का समाधान भी मिलता है । इन सबसे ऊपर प्रकृति–पर्यावरण के अंधाधुंध शोषण और दोहन की वैश्विक चुनौती का निदान भी स्वदेशी की राह चल कर ही मिल सकेगा । हम सब एक मातृभूमि की संतानें हैं इसलिए पराये को अपनाने की जगह अपनी स्वदेशी की दृष्टि को अंगीकार करने से ही भारत अपनी समस्याओं का सफलतापूर्वक समाधान कर सकेगा । आजादी के अमृत महोत्सव के अवसर पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का स्मरण यह अनुभव कराता है कि सहज और साधारण जीवन भी मूल्यों से जुड़ कर असाधारण बन जाता है और असंभव संभव हो जाता है।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

Share:

Next Post

गोल्फः अदिति अशोक ने रचा इतिहास, एशियन गेम्स में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं

Mon Oct 2 , 2023
हांगझू (Hangzhou)। भारत (India) की अदिति अशोक (Aditi Ashok) ने रविवार को एशियन गेम्स (Asian Games) में महिलाओं की व्यक्तिगत गोल्फ स्पर्धा (Women’s individual golf event) में रजत पदक जीतकर (win silver medal) इतिहास रच दिया है। शुरुआती तीन राउन्ड तक अदिति बढ़त बनाए हुए थीं लेकिन अंतिम समय में उनका कुछ शॉट इधर-उधर चले […]