खरी-खरी ब्‍लॉगर

अखबार को ऐतबार बनाने में दे डाली प्राणों की आहुति

 

 

 

कसक के 39 बरस
आज 39 बरस हो गए हैं उनसे जुदा हुए… वक्त को खफा हुए…संकरे-से शहर में उम्मीदों की कलम की स्याही को रोशन कर उन्होंने अग्निबाण का ख्वाब लिखा और उसकी ताबीर में खुद को खपा दिया…जेब से फक्कड़ थे, मगर जिगर में जुनून था… जेहन में चिंताएं थीं तो पौरुष में संघर्ष और मशक्कत का हौसला…वो लड़ भी रहे थे… अड़ भी रहे थे…मुकाबला कड़ा था… सफर भी बड़ा था…जान अकेली थी, मगर जिगर बहुत बड़ा था…अपनी लड़ाई…अपना युद्ध… हाथ निहत्थे, लेकिन हौसलों के हथियारों से जंग जीतने की जिद…सुबह होती थी…शाम होती थी, लेकिन मुसीबतें थीं कि तमाम ही नहीं होती थीं… अपने पेट से ज्यादा चिंता खबरों की भूख मिटाने की… खर्च को जुटाने की… समय को साधने की… हर दिन की परीक्षा…हर दिन की पढ़ाई… किताब बदल जाती…खबर का सिरा पकडऩे जाएं तो समय फिसल जाता… और समय को पकडऩे जाएं तो खबरें छूट जातीं… एक दिन कामयाब हो जाएं तो दूसरे दिन की चिंता सताती…शहर में शाम का पहला अखबार…नया-नया प्रयोग… सुबह-सुबह ही खबरें पढक़र खबरों की भूख मिटाने और तृप्त हो जाने वाले लोगों को समय की महत्ता समझाना…शाम के अखबार की आदत बनाना…और उनमें हर शाम अखबार पढऩे की आदत जगाना न तो आसान था और न ही मुमकिन…सुबह के बड़े अखबार और पन्नों की भरमार के मुकाबले चार पन्नों की शक्ल में हाथभर का अखबार अपेक्षा से ज्यादा उपेक्षा सहता नजर आता था…अखबार की कीमत चुकाने से पहले पाठक विश्वास की पूंजी मांगते थे और वक्त भी देना नहीं चाहते थे…यह वो सफर होता है, जब हौसले टूट जाते हैं…रास्ते बदल जाते हैं… जुनून आंसू बहाते हैं…जंग लड़ते लोग हथियार डालते हैं…सपने खाक हो जाते हैं…ताने-उलाहने सहना पड़ जाते हैं…लेकिन इन सारी कवायदों को ठुकराते खुद को ढाल बनाकर लोगों के सवालों के बीच ढालते अग्निबाण के संस्थापक प्राण-पुरुष नरेशचंद्रजी चेलावत ने हर दिन…हर सवाल का जवाब खुद बनाकर…अरमानों को स्याही में डुबाकर… विश्वसनीयता को हथियार बनाकर अग्निबाण एक-एक पाठक तक पहुंचाया…कभी खुद कलम चलाई तो कभी खुद खबरें बटोरीं…कभी खुद मशीन चलाई तो कभी खुद हॉकर तक की भूमिका निभाई…न साधन थे न संसाधन…न पूंजी थी न चुकाने के लिए वेतन…रोज की कमाई और उससे ज्यादा खर्च की लंबाई…लेकिन इन सारी मुसीबतों के मुकाबले था तो उनका हौसला… हिम्मत…संघर्ष और पराक्रम…सारी गर्दिशों में भी यदि उनकी आंखों के लिए कोई रोशनी बनता था तो वो था हर दिन पाठकों का बढऩा…उनका एहसास…उनकी तादाद…उनकी संतुष्टि… खबरों पर यकीन होता जा रहा था… शाम का समय भी अखबार की जरूरतों की याद दिलाता था… शाम की चाय की चाहत के साथ अग्निबाण भी जुड़ता जा रहा था… केवल समाचार ही नहीं, विचारों का पुंज भी अखबारों में नजर आ रहा था…मोर्चे सारे खुले हुए थे, लेकिन जीत नजर आ रही थी…विपदाओं से घिरे हुए थे, लेकिन उम्मीदें हौसला बढ़ा रही थीं…अखबार पाठकों के हाथों में ही नहीं दिल में भी जगह बना रहा था…लेकिन सफलताओं का सूरज अखबार के नायक को एक गहरे अंधकार की ओर धकेलता जा रहा था…अखबार को अवाम तक पहुंचाने की मशक्कत में प्राण-पुरुष ने खुद को तमाम कर लिया था…दिल तो बहुत बड़ा था, लेकिन पाठकों को समर्पित कर दिया था… और इसी थपेड़े में आज ही के दिन… आज से 39 वर्ष पूर्व 24 मार्च 1983 को हिम्मत…हौसले…जंग और जिद की तमाम मशक्कतें गहन और गंभीर विश्राम का रुख कर गईं…जीवन की आपाधापी और भागदौड़ एक अनंत शून्य में थम गई…जीवन की सार्थकता…जीने की कला और जिंदगी का महत्व समझाकर वो चले गए…लेकिन जाने से पहले लडख़ड़ाते…डगमगाते अग्निबाण को अपने मजबूत पैरों पर खड़ा कर गए…फल खाने का जब वक्त आया तो वो पेड़ ही छोड़ गए…इससे बड़ी तपस्या…इससे बड़ा संतत्व…इससे बड़ा समर्पण न गीता में नजर आएगा न कुरआन बता पाएगा…लाखों को अपना बनाना और अपनों के आंसुओं में डूब जाना…जमाने में अपनी कमी छोड़ जाना और आसमान का तारा बन जाना मानव जीवन की सार्थकता और सफलता का वो शिखर है, जिसे देवत्व कहते हैं…लोग तो मंदिरों की मूर्तियों में भगवान स्थापित करते हैं…हमारे तो जेहन में वो रहते हैं… जान लगाकर उन्होंने अखबार को ऐतबार बनाया…ऐसा कोई दिन नहीं होगा जब उनके विश्वास का अलख हमने नहीं जगाया… उनको साक्षी मानकर हम वादा करते हैं कि अग्निबाण को उनका प्राण समझकर हम साहस…निडरता और सत्यता के साथ समाचार और विचारों का स्पंदन करते रहेंगे…अखबार के हर पन्ने पर आपको उनके वचन का एहसास नजर आएगा…न कोई झूठ जगह पाएगा और सच चाहे जितना घातक हो सामने लाया जाएगा…अखबार को शहर के विकास…व्यक्ति के चरित्र…समाज के संस्कार का आईना बनाया जाएगा…साल में एक दिन नहीं, बल्कि हर दिन प्राण-पुरुष को इसी तरह नमन किया जाएगा…

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