ब्‍लॉगर

संकल्प पर्व जीवन का पर्व है

– गिरीश्वर मिश्र

आकाश में आजकल बादल छा रहे हैं और वर्षा भी हो रही है। यह समय वृक्षारोपण के लिए हर तरह से उपयुक्त है। आसपास का पर्यावरण इस समय हरी घास, हरे-भरे वृक्ष और लहलहाते तृण, लता-गुल्म और तमाम तरह की वनस्पतियों से खिलखिला रहा है। इनके माध्यम से प्रकृति का जीवंत संगीत मानव हृदय को अकल्पनीय सुख देता है। हरियाली आंखों को सुकून देती है और जीवन के गतिमय , सृजनशील और विकसित होते हुए ऊपर उठने की प्रवृत्ति को साकार करती है। उनसे प्राण वायु आक्सीजन मिलती है और प्रकृति के विभिन्न अवयवों के बीच संतुलन बना रहता है।

शायद वृक्षों से ज्यादा परोपकारी सृष्टि में कोई और नहीं होगा। उनका पूरा अस्तित्व ही दूसरों के लिए ही होता है। पेड़ की घनी छाया तपती दुपहरी में बड़ी प्रिय होती है। इनके फल-फूल, जड़ , छाल सबकुछ उपयोगी होते हैं। उनके द्वारा मिलने वाले बहुत से खाद्य पदार्थ और औषधियों का तो कहना ही क्या। उनकी तो ये खान हैं। आयुर्वेद की एक शाखा ही ‘वृक्षायुर्वेद’ है। नैसर्गिक रूप से विकसित होते जंगल बेतरतीब होते हैं और जैव विविधता की दृष्टि से अनमोल। जंगलों में बहुत से जीव-जंतु भी रहते हैं। उनकी वासस्थली जो ठहरे! तरह-तरह की लकड़ी का नाना प्रकार का उपयोग होता है। मिट्टी का संरक्षण और जल की उपलब्धता या कहें जलचक्र को भी ये निर्धारित करते हैं। हमारा जीवन और वन दोनों एक-दूसरे पर परस्पर निर्भर हैं। वृक्ष लगाना पुण्य का कार्य माना जाता रहा है और वे मनुष्य को सदा से समृद्ध करते रहे हैं। कभी धरती का आधा हिस्सा वनाच्छादित था। अब तीस प्रतिशत के करीब बचा है। यदि वृक्षों और वनों का पालन-पोषण और रक्षा का काम होता रहे तो वन भी रहेंगे और जीवन भी रहेगा।

भारत में वन, जंगल या अरण्य कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण हैं। परम्परागत जीवन का तीसरा आश्रम वानप्रस्थ है और रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों की अनेक कथाएं वन के बिना कही ही नहीं जा सकतीं। भगवान राम जैसे कथानायक के जीवन में वन की भूमिका से हम सभी भारतवासी भलीभांति अवगत हैं। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस का तीसरा कांड अरण्यकांड है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में वन बड़े महत्व के रहे हैं। ऋषि और मुनि का नाम सुनते ही वन तत्काल याद आ जाते हैं। वैदिक साहित्य का एक हिस्सा ‘आरण्यक’ है, जिसमें आध्यात्मिक विचार विमर्श है। अथर्व वेद को छोड़ सभी वेदों से जुड़े आरण्यक मिलते हैं। कहते हैं दही में जैसे मक्खन होता है वैसे ही वेद में आरण्यक हैं। ‘ऐतरेय’और ‘बृहदारण्यक’ तो बड़े प्रसिद्ध हैं। हमारे विश्वासों में वृक्षों पर सिर्फ देवता बसते ही नहीं हैं, कई वृक्ष देवता का दर्जा भी पा चुके हैं। पीपल (अश्वत्थ) और बरगद (वट) ऐसे ही वृक्ष हैं। यह कहने का आशय मात्र यह है कि हमारी सांस्कृतिक स्मृति में और लोकजीवन में वृक्षों की अभी भी महत्वपूर्ण जगह बनी हुई है।

दुर्भाग्य से आधुनिकता, नगरीकरण और औद्योगिकीकरण की जो धारा प्रवाहित हुई, उसने हमारा नजरिया बदल दिया। बाजार ही सबसे बड़ा तर्क हो गया। आज हम वनों को संसाधन (रिसोर्स) मानते हैं और उनका मनमाना दोहन करते हैं। उन्हें लगातार नुकसान पहुंचा रहे हैं। वनों की कटाई हो रही है, उनकी जगह वृक्षारोपण भी नहीं हो रहा है। इधर वृक्षारोपण की ओर ध्यान दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री के आह्वान पर भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने ‘संकल्प पर्व’ आयोजित कर सबको प्रेरित करने का बीड़ा उठाया है। आवश्यकता है कि इसे एक प्रभावी मुहिम के रूप में स्वीकार कर धरती को हरा-भरा बनाया जाय। जन्मभूमि ही देशवासी की मां होती है। संकल्प पर्व की मुहिम हमारे मातृऋण की अदायगी का एक उपक्रम होगा। सारी भौतिक प्रगति के बावजूद प्रकृति का कोई विकल्प नहीं है। जल, वायु और अन्न उपलब्ध कराने वाली प्रकृति हम सबका भरण-पोषण करती है। वह वस्तुत: जीवन का पर्याय है और हमारी उपेक्षा दृष्टि का नुकसान झेलते हुए जीवनक्रम अव्यवस्थित-सा हो रहा है। अत: हम सबको जहां भी अवसर मिले इस पुनीत कार्य को बल देते हुए आगे बढ़ाना चाहिए। वृक्ष हैं तो जीवन है।

(लेखक महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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