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सपा-LJP का इतिहास दोहरा रही शिवसेना, क्या उद्धव से भी छिनेगी ‘अध्यक्षता’?


नई दिल्ली: दो धड़ों में बंटने के बाद अब शिवसेना का क्या होगा? क्या उद्धव ठाकरे के पास ही रहेगी या फिर एकनाथ शिंदे के पास चली जाएगी? शिवसेना पर दावे होने तो शुरू हो गए हैं. शिंदे गुट के सांसद जल्द ही लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला से मुलाकात करेंगे और इस गुट को अलग समूह के रूप में मान्यता देने की मांग करेंगे.

न्यूज एजेंसी के मुताबिक, शिवसेना के एक लोकसभा सांसद ने दावा किया है कि शिंदे गुट के समर्थन में 18 में से 12 सांसद हैं. और ये 12 सांसद लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला से मुलाकात कर उनके गुट को अलग समूह की मान्यता देने की मांग का पत्र सौपेंगे.

इस बीच, उद्धव गुट के शिवसेना सांसद विनायक राउत ने भी ओम बिड़ला को चिट्ठी लिखी है. इसमें उन्होंने कहा कि लोकसभा में उन्हें शिवसेना संसदीय दल का नेता और राजन विचारे को चीफ व्हिप नियुक्त किया गया है. अगर शिवसेना के दूसरे किसी सांसद की ओर से किसी और को व्हिप नियुक्त किया जाता है या कोई और आदेश जारी किया जाता है, तो उसे मंजूर न किया जाए.

शिवसेना के बागी लोकसभा सांसद ने न्यूज एजेंसी से कहा, ‘हम पार्टी नहीं तोड़ रहे हैं. हम स्पीकर से बस ये कह रहे हैं कि मौजूदा नेता पर हमें विश्वास नहीं है और राहुल शेवाले हमारे नेता हैं.’ राहुल शेवाले मुंबई साउथ सेंट्रल से लोकसभा सांसद हैं.

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे मंगलवार को दिल्ली में होंगे और बताया जा रहा है कि बागी लोकसभा सांसद उनसे मुलाकात कर सकते हैं. शिंदे ने सोमवार को राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक भी ली थी. दावा किया जा रहा है कि शिवसेना के 18 में से 12 सांसद शिंदे गुट के साथ हैं. वहीं, शिवसेना से राज्यसभा सांसद संजय राउत का कहना है कि शिंदे के साथ मीटिंग करने वाले सांसदों पर एक्शन लिया जाएगा.


राजनीतिक पार्टियों में दावे पर होती रही है जंग
ये पहला मौका नहीं है, जब किसी राजनीतिक पार्टी में दावे को लेकर दो धड़ों में जंग छिड़ गई हो. इससे पहले समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव बनाम शिवपाल यादव, आंध्र प्रदेश में एनटीआर बनाम चंद्रबाबू नायडू, अपना दल में अनुप्रिया पटेल बनाम कृष्णा पटेल में जंग हो चुकी है. पिछले साल लोक जनशक्ति पार्टी में चिराग पासवान बनाम पशुपति कुमार पारस के बीच भी बंटवारा हो गया था.

पिछले साल जब लोक जनशक्ति पार्टी में जंग हुई तो पशुपति कुमार पारस ने खुद को पार्टी का अध्यक्ष घोषित कर दिया था. बाद में मामला लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला के पास गया, तो उन्होंने पशुपति कुमार पारस को लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय दल का नेता चुन लिया था. एलजेपी के लोकसभा में 6 सांसद हैं, जिनमें से 5 सांसद पशुपति पारस के साथ चले गए थे. बाद में चिराग पासवान ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती भी दी, लेकिन अदालत ये याचिका खारिज हो गई थी.

इससे पहले अपना दल में बगावत हुई थी. 2009 में सोनेलाल के निधन के बाद उनकी पत्नी कृष्णा पटेल ने पार्टी की कमान संभाल ली. 2014 में मिर्जापुर से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने बगावत कर दी. बाद में अनुप्रिया और उनके पति आशीष सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया. दिसंबर 2016 में अनुप्रिया पटेल ने अपना दल (सोनेलाल) के नाम से नई पार्टी बना ली.

2017 में समाजवादी पार्टी में टूट पड़ गई थी. तब अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह को हटा दिया था और खुद अध्यक्ष बन गए थे. बाद में शिवपाल यादव भी इस जंग में कूद गए थे. आखिर में मामला चुनाव आयोग के पास पहुंचा और चूंकि ज्यादातर चुने हुए प्रतिनिधि अखिलेश के साथ थे, इसलिए आयोग ने चुनाव चिह्न उन्हें ही सौंपा. बाद में शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी.
ऐसे में शिवसेना का क्या होगा?

शिवसेना के दोनों धड़ों के अपने-अपने दावे हैं. शिंदे गुट अपने पास बहुमत होने का दावा कर रहा है, तो उद्धव गुट अपने पास. शिंदे गुट का दावा है कि उनके पास शिवसेना के 12 लोकसभा सांसदों का समर्थन है. अब मामला लोकसभा स्पीकर के पास जाना लगभग तय हो गया है. शिंदे गुट के सांसदों ने अपना संसदीय दल का नेता चुनने की मांग की है.

अगर एलजेपी वाला फॉर्मूला भी यहां लागू हुआ, लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला शिंदे गुट के किसी सांसद को शिवसेना का संसदीय दल का नेता नियुक्त कर सकते हैं. हालांकि, इसमें कई सारे दांव-पेंच भी हैं और स्पीकर ऐसा फैसला लेते हैं, तो इसे अदालत में चुनौती मिलना लगभग तय है.


तो क्या शिंदे के पास चली जाएगी?
किसी राजनीतिक पार्टी पर किसका अधिकार होगा? इसका फैसला चुनाव आयोग करता है. चुनाव आयोग से ही पार्टी का चुनाव चिह्न मिलता है और वही तय करता है कि किस गुट को पार्टी माना जाए. शिवसेना सांसद संजय राउत का कहना है कि वो पार्टी संगठन और चुनाव चिह्न के लिए लड़ने को तैयार हैं. वहीं, शिंदे गुट अक्सर कहता रहा है कि उनका गुट ही असली पार्टी है.

शिंदे गुट ने पहले कहा था कि पार्टी संगठन और चुनाव चिह्न पर आगे फैसला लिया जाएगा. जब एक पार्टी में दो अलग-अलग गुट दावा करते हैं, तो चुनाव आयोग दोनों पक्षों को बुलाता है और सुनवाई करता है. इसमें सबूत देखे जाते हैं. गिनती की जाती है. ये देखा जाता है कि बहुमत किस गुट के पास है. पार्टी के पदाधिकारी किस तरफ हैं. इसके बाद बहुमत जिस ओर होता है, उसी गुट को पार्टी माना जाता है.

अक्टूबर 1967 में जब एसपी सेन वर्मा मुख्य चुनाव आयुक्त बने, तो उन्होंने एक चुनाव चिह्न आदेश बनाया, जिसे ‘सिम्बल ऑर्डर 1968’ कहते हैं. इस आदेश के पैरा 16 में लिखा है कि किसी भी पार्टी के विभाजन में तीन चीजें जरूरी हैं. पहली ये कि चुने हुए प्रतिनिधि किस तरफ हैं? दूसरा ऑफिस के पदाधिकारी किस तरफ हैं? और तीसरा संपत्तियां किस तरफ हैं? लेकिन किस धड़े को पार्टी माना जाएगा? इसका फैसला चुने हुए प्रतिनिधियों के बहुमत के आधार पर होता है. मसलन, जिस धड़े के पास ज्यादा चुने हुए सांसद-विधायक होंगे, उसे ही पार्टी माना जाएगा.

महाराष्ट्र में शिवसेना के 55 विधायक हैं. इनमें से 40 विधायक शिंदे गुट के पास हैं. वहीं, शिंदे गुट का दावा है कि लोकसभा के 12 सांसद भी उनकी तरफ हैं. ऐसे में बहुमत शिंदे गुट के पास दिख रहा है. 2017 में जब समाजवादी पार्टी में टूट हुई थी, तब चुनाव आयोग ने इसी आधार पर अखिलेश यादव के गुट को पार्टी माना था. हालांकि, शिवसेना के मामले में आखिरी फैसला चुनाव आयोग ही करेगा.

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