ब्‍लॉगर

श्रीलंका को नए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे से उम्मीदें

– डॉ. रमेश ठाकुर

रानिल विक्रमसिंघे पांचवीं बार श्रीलंका के प्रधानमंत्री बन गए हैं। कांटों से भरे इस ताज के साथ विक्रमसिंघे के समक्ष कठिनाइयों और चुनौतियों का अंबार है। सुप्रीम कोर्ट और राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे स्वतः बीते एकाध दिनों से लगातार ऐसे फैसले ले रहे हैं जिससे देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था किसी भी तरह से सुधारी जा सके। इसलिए नए प्रधानमंत्री रानिल के कंधों पर उम्मीदों का बड़ा भार है।

हालांकि अनमने मन से उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला जरूर है, लेकिन भय उनके भीतर भी है। लेकिन विपक्षी दलों ने उनसे साफ कहा है, उनके किसी फैसले का विरोध नहीं करेंगे, बस देश को सुधार दो। कोर्ट, प्रशासन, राजनीति, जनता, तमाम तंत्र उनके साथ चलने को राजी है। जिस बुरे दौर से श्रीलंका गुजर रहा है, ऐसी कल्पना श्रीलंकाइयों ने सपनों में भी नहीं की होगी।

नए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे युनाइटेड नेशनल पार्टी यानी यूएनपी के प्रमुख नेता हैं। उन्हें श्रीलंका का सबसे अच्छा प्रशासक और ताकतवर देशों का समर्थक माना जाता है। भारत के अलावा अमेरिका के साथ उनके संबंध अच्छे रहे हैं। पर, समस्याएं इस वक्त विकट हैं, इससे पहले भी वे चार बार देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। हालांकि तब की परिस्थितियों से आज के हालात की तुलना नहीं की जा सकती। इस वक्त समूचा श्रीलंका तबाह हुआ पड़ा है। लोग खाने-पीने की चीजों के साथ अन्य जरूरी चीजों के मोहताज हैं। काम-धंधे, व्यापार, नौकरियां, स्कूल-कॉलेज सब पर ताले हैं। जनजीवन थम गया है। पर्यटकों ने आना बंद कर दिया है। ये ऐसा क्षेत्र है जो देश की अर्थव्यवस्था में मजबूती देता है। राजनीतिक उठापठक के बीच आर्थिक संकट के समुद्र में भी श्रीलंका गोता खा रहा है, उससे देश को बाहर निकालना रानिल विक्रमसिंघे की सबसे बड़ी चुनौती है। प्रधानमंत्री पद की कमान भले उन्होंने संभाल ली, पर जिन चुनौतियों से उन्हें अगले कुछ महीनों में लड़ना है, उसमें वह कितना सफल होते हैं, ये कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगी।

कुल मिलाकर, श्रीलंका को एक अनुभवी प्रशासक चाहिए था। शायद रानिल के मिलने से यह खोज पूरी होगी। वे बेदाग नेता हैं। बिना लाग-लपेट और साफगोई से अपनी बात कहते हैं। निर्णय लेने में वह ज्यादा देरी नहीं करते। सबको साथ लेकर चलने में उन्हें महारथ हासिल है। रानिल के प्रधानमंत्री बनने पर भारत ने भी खुशी जाहिर की है।

रानिल के राजनीतिक करियर को देखें तो ऐसा लगता है कि श्रीलंका को ऐसे ही नेता की इस वक्त जरूरत थी। वह अपनी पार्टी युनाइटेड नेशनल पार्टी के 1994 से सर्वमान्य के नेता हैं। प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने 7 मई 1993 से 18 अगस्त 1994, 8 दिसंबर 2001 से 6 अप्रैल 2004, 9 जनवरी 2015 से 26 अक्टूबर 2018 और 15 दिसंबर 2018 से 21 नवंबर 2019 तक देश की बागडोर संभाली। इसके अलावा वे सदन में दो बार नेता विपक्ष भी रहे। वह श्रीलंका में ही नहीं, बल्कि संसार भर में राजनीतिक पटल पर जाने पहचाने नेता हैं।

श्रीलंका की स्थिति इस वक्त ऐसी है जिसे राजनीतिक-प्रशासनिक गठजोड़ ही उबार पाएगा। बिगड़ी अर्थव्यवस्था में अगर रानिल कुछ महीनों में तीस-चालीस फीसदी भी सुधार कर पाते हैं तब भी उनकी बड़ी उपलब्धि होगी। उनकी नियुक्ति इसलिए अहम मानी जा रही है, क्योंकि श्रीलंका की अवाम को उनसे बड़ी उम्मीदें हैं। वह इकलौते ऐसे नेता हैं जिसपर जनता विश्वास करती है। वे देश को राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक संकट और हिंसा से बाहर निकाल पाएंगे, ऐसी उम्मीद वहां के लोग लगाए बैठे हैं।

श्रीलंका में बीते डेढ़ महीने से कानून-व्यवस्था चौपट हो चुकी है, उसे दुरूस्त करना होगा। सुरक्षा दृष्टि से इस पड़ोसी मुल्क को हमेशा से शांत प्रिय कहा जाता है। लिट्टे के आतंक से मुक्ति के बाद देश में अमन-चैन लौटा था। लेकिन अचानक उगता सूरज डूब गया, अर्थव्यवस्था धड़ाम हो गई। इन सभी समस्याओं से रानिल विक्रमसिंघे को जूझ कर समाधान निकालना होगा। बहुत जल्द कुछ ऐसा करना होगा, जिससे आम जीवन कुछ सामान्य हो सके। जैसे भारत ने आर्थिक मदद, पेट्रोल, खाद्य सामग्री भेजी है, श्रीलंका की मदद के लिए कुछ और देशों को आगे आना होगा। इसके लिए प्रधानमंत्री रानिल को कुछ देशों से सहयोग की अपील करनी होगी।

बहरहाल, श्रीलंका में इस वक्त आपातकाल लगा है। सबसे पहले प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को इसे हटाना होगा, जिससे आम जनजीवन सामान्य हो पाएगा। संकट के इस दौर में समूचा विपक्ष एकजुट है और होना भी चाहिए। विपक्षी दलों ने संकटकाल में सामूहिकता प्रकट कर अच्छी तस्वीरें पेश की है। 225 सदस्यों वाली श्रीलंकाई संसद में रानिल विक्रमसिंघे की पार्टी यूनाइटेड नेशनल पार्टी के एक ही सीट है। बावजूद इसके सत्तारूढ़ श्रीलंका पोदुजाना पेरामुना, विपक्षी समगी जन बालावेगाया के एक धड़े और अन्य कई दलों ने संसद में विक्रमसिंघे को अपना बहुमत देकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर इस उम्मीद से बैठाया है कि वे अपने अनुभवों से देश को फिर पटरी पर ला पाएंगे। भारत भी उम्मीद करता है कि नए प्रधानमंत्री जल्द से जल्द श्रीलंका को संकट से बाहर निकालें।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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