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    परालीः कब समझेंगे मोल

  • October 19, 2020

    – ऋतुपर्ण दवे

    पराली को लेकर आधे अक्टूबर से दिसंबर और जनवरी के शुरू तक बेहद हो हल्ला होता है। व्यापक स्तर पर चिन्ता की जाती है, किसानों पर दण्ड की कार्रवाई की जाती है। बावजूद इसके समस्या जस की तस रही आती है। सच तो यह है कि जिस पराली को बोझ समझा जाता है वह बहुत बड़ा वरदान है। अच्छी खासी कमाई का जरिया भी बन सकती है बशर्ते उसकी खूबियों को समझना होगा। पराली के अनेकों फायदे हैं। खेतों के लिए यह वरदान भी हो सकती है और पशुओं के लिए तो खुराक ही है। इसके अलावा पराली के ऐसे उपयोग हो सकते हैं जिससे देश में भारी उद्योग खड़ा हो सकता है, जिसकी शुरुआत हो चुकी है। इसके लिए जरूरत है सरकारों, जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों, वैज्ञानिकों, किसानों और बाजार के बीच जल्द से जल्द समन्वय की और खेतों में ठूठ के रूप में जलाकर नष्ट की जाने वाली पराली जिसे अलग-अलग रूप और नाम में पुआल, नरवारी, पैरा और भूसा भी कहते हैं। देखते ही देखते भारत में एक बड़ा बाजार और उद्योग का रूप लेगा।

    बस सवाल यही कि मौजूदा लचर व्यवस्था के बीच जागरूकता और अनमोल पराली का मोल कबतक हो पाएगा? फिलहाल धान की खेती के बाद खेतों में बचे उसके ठूठ यानी पराली यूँ तो पूरे देश में जहाँ-तहाँ बड़ी समस्या हैं। वक्त के साथ यह समूचे उत्तर भारत खासकर दिल्ली और आसपास इतनी भारी पड़ने लगी कि घनी आबादी वाले ये इलाके गैस चेम्बर में तब्दील होने लगे। अक्टूबर से जनवरी-फरवरी तक पराली का धुआं राष्ट्रीय चिन्ता का विषय बन जाता है।

    सच भी है कि वर्तमान में उत्तर भारत में यह बहुत बड़ी समस्या बनी हुई है। इसका सबसे बड़ा कारण एक तो सरकारी तौर पर कोई स्पष्ट व सुगम नीति का न होना और दूसरा उपयोगिता को लेकर ईमानदार कोशिशों की कमी भी है। उससे भी बड़ा सच केन्द्र और राज्यों के बीच आपसी तालमेल की कमी भी है। पराली पहले इतनी बड़ी समस्या नहीं थी जो आज है। पहले हाथों से कटाई होती थी तब खेतों में बहुत थोड़े से ठूठ रह जाते थे जो या जुताई से निकल जाते थे या फिर पानी से गलकर मिट्टी में मिल उर्वरक बन जाते थे। लेकिन मामला दिल्ली से जुड़ा है जहाँ चौबीसों घण्टे लाखों गाड़ियाँ बिना रुके दौड़ती रहती हैं इसलिए पराली का धुँआ वाहनों के वाहनों के जहरीले धुँए में मिल हवा को और ज्यादा खतरनाक बना देता है।

    यूँ तो कानूनन सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी ने पराली जलाने को दण्डनीय अपराध घोषित कर रखा है। कई ऐसे उपकरण इजाद किए गए हैं जिससे खेतों में धान की ठूठ यानी पराली का निस्तारण हो सके। उपकरणों पर 50 से 80 प्रतिशत का सरकारी अनुदान भी है लेकिन जानकारी के आभाव और उससे भी ज्यादा कागजी कवायद के चलते किसान इसमें उलझने के बजाए जलाना ही उचित समझता है।

    शायद किसान अनजान रहता है कि पराली में फसल के लिए सबसे जरूरी पोषक तत्वों में शामिल नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश (एनपीके) मिट्टी की सेहत के लिए सबसे जरूरी बैक्टीरिया और फंगस भी होते हैं। यही नहीं भूसे के रूप में बेजुबान पशुओं का हक भी मारा जाता है। इस तरह भूमि के कार्बनिक तत्व, कीमती बैक्टीरिया, फफूंद भी जलाने से नष्ट हो जाते हैं ऊपर से पर्यावरण को नुकसान और ग्लोबल वॉर्मिंग एक्सट्रा होती ही है। पराली जलाकर उसी खेत का कम से कम 25 प्रतिशत खाद भी अनजाने ही नष्ट कर दिया जाता है।

    एक अध्ययन से पता चला है कि प्रति एकड़ पराली के ठूंठ जलाकर कई पोषक तत्वों के साथ लगभग 400 किलोग्राम फायदेमंद कार्बन, मिट्टी के एक ग्राम में मौजूद 10 से 40 करोड़ बैक्टीरिया और 1 से 2 लाख फफूंद जल जाते हैं जो फसल के लिए जबरदस्त पोषण का काम करते हैं। बाद में इन्हें ही फसल के न्यूट्रीशन के लिए ऊंची कीमतों में अलग-अलग नाम से खरीदकर खेतों को वापस देते हैं। इस तरह दोहरा नुकसान होता है। एक जानकारी बताती है कि प्रति एकड़ कम से कम 18 क्विंटल धान का भूसा यानी पराली बनती है, जिसे पशु बड़े चाव से खाता है। यदि सीजन में इसकी कम से कम कीमत आँकें तो भी 400 से 500 के बीच बनती है यानी प्रति एकड़ 7200 से 9000 हजार रुपए का यह नुकसान अलग। ऊपर से पराली जलाने से उस जगह की नमी सूखी और ताप से भूजल स्तर भी प्रभावित हुआ।

    अब वह दौर है जब हर वेस्ट यानी अपशिष्ट समझे जाने वाले पदार्थों का किसी न किसी रूप में उपयोग किया जाने लगा है। चाहे वह प्लास्टिक कचरा हो, कागजों और पैकिंग कार्टून्स की रद्दी हो, स्टील, तांबा, यहाँ तक कि रबर भी। सबकुछ रिसाइकल होने लगा है। बड़े शहरों में सूखा कचरा और गीला कचरा प्रबंधन कर उपयोगी खाद बनने लगी है जिसमें सब्जी-भाजी के छिलके भी उपयोग होते हैं। ऐसे में पराली का जलाया जाना अपने आप में बड़ा सवाल है।

    देश में कई गांवों में महिलाएं पराली से चटाई और बिठाई (छोटा टेबल, मोढ़ा) जैसी वस्तुएं बनाती हैं। अभी भोपाल स्थित काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च यानी सीएसआइआर और एडवांस मटेरियल्स एंड प्रोसेस रिसर्च यानी एम्प्री ने तीन साल की कोशिशों के बाद एक तकनीक विकसित की है जिसमें धान की पराली, गेहूं व सोयाबीन के भूसे से प्लाई बनेगी। इसमें 30 प्रतिशत पॉलीमर यानी रासायनिक पदार्थ और 70 प्रतिशत पराली होगी। इसके लिए पहला लाइसेंस भी छत्तीसगढ़ के भिलाई की एक कंपनी को दे दिया गया है जिससे 10 करोड़ की लागत से तैयार कारखाना मार्च 2021 से उत्पादन शुरू कर देगा।

    सबसे बड़ी खासियत यह कि देश में यह इस किस्म की पहली तकनीक है जिसे यूएसए, कनाडा, चीन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्पेन समेत आठ देशों से पेटेंट मिल चुका है। इस तरह खेती के अपशिष्ट से बनने वाली यह प्लाई आज बाजार में उपलब्‍ध सभी प्लाई से न केवल चार गुना ज्यादा मजबूत होगी। पराली से लेमिनेटेड और गैर लेमिनेटेड दोनों तरह की प्लाई बनेंगी जिसकी कीमत गुणवत्ता के हिसाब से 26 से 46 रुपए वर्गफीट तक होगी। निश्चित रूप से सस्ती भी होगी और टिकाऊ भी। इसकी बड़ी खूबी यह कि 20 साल तक इसमें कोई खराबी नहीं आएगी। जरूरत के हिसाब से इसे हल्की व मजबूत दोनों तरह से बनाया जा सकेगा। इसके लिए बहुत ज्यादा पराली की जरूरत होगी व कई और फैक्टरियाँ खुलने से उत्तर भारत में पराली की इतनी डिमाण्ड बढ़ जाएगी कि 80 से 90 फीसदी खपत इसी में हो जाए।

    जहाँ तक पराली की बात है अभी अनुमानतः भारत में 388 मिलियन टन फसल अवशेष हर वर्ष रह जाता है जिसमें करीब 27 प्रतिशत गेहूं और 51 प्रतिशत धान का शेष दूसरी फसलों का होता है। जाहिर है जिस तरह की तैयारियाँ हैं बस कुछ ही वर्ष में पराली जलाने नहीं बनाने के काम आएगी और देश की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा और बड़ा उद्योग होगी। किसी ने सही कहा है कि घूरे के दिन भी फिरते हैं। बहुत जल्द ही पराली प्रदूषण फैलाने नहीं धनवर्षा का साधन बनेगी।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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