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मौजूदा वित्तीय संकट पहले के संकटों से अलग, ब्याज दर बढ़ाने से आम आदमी की जेब हो रही ढीली

नई दिल्ली। आज का वैश्विक वित्तीय संकट (global financial crisis) पहले के ऐसे संकटों से अलग है। वर्ष 1997 का संकट एशियाई मुद्राओं (Asian currencies) के ध्वस्त होने से पैदा हुआ था, तो वर्ष 2000 का संकट डॉटकॉम के अतिमूल्यांकित शेयरों के करेक्शन (Correction of overvalued shares of dotcom) का नतीजा था, जबकि 2008 का संकट अमेरिकी सब-प्राइम संकट (American sub-prime crisis) के कारण शुरू हुआ था। इन सबसे इतर वर्ष 2020 में स्वास्थ्य आपातकाल से वैश्विक अर्थव्यवस्था में गिरावट आई। वर्ष 1918-1922 के स्पैनिश फ्लू के बाद पहली बार दुनिया को इतने बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़ा।

दुनिया भर की सरकारों ने वर्ष 2008 के संकट से सबक सीखे हैं, जब वैश्विक वित्तीय संकट का हल न निकालने से लाखों नौकरियां गई थीं और अनेक कंपनियां दिवालिया हो गई थीं। लिहाजा वर्ष 2020 के आर्थिक संकट को देखते हुए सरकारों ने वित्तीय और मौद्रिक पैकेज जारी किए, साथ ही, सरकारों ने लोगों और व्यापारियों को सीधी मदद भी दी। नतीजतन वर्ष 1929 की महामंदी जैसी स्थिति होने के बावजूद महामारी के नियंत्रित होने के छह महीने के भीतर अर्थव्यवस्था को हुए घाटे की भरपाई हो गई।


पर नौकरी छूटने और आपूर्ति शृंखला के टूटने से व्यापक नुकसान हुआ। रेस्टोरेंट, पर्यटन, होटल और परिवहन जैसे क्षेत्रों को हुए घाटे की भरपाई आसान भी नहीं थी, नतीजतन इन क्षेत्रों में नुकसान की भरपाई असमान रही। फिर भी कोविड की पृष्ठभूमि में दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के लिए जो वित्तीय और मौद्रिक पैकेज जारी किए गए, वे कई अर्थ में अभूतपूर्व थे। वर्ष 2020 में अलग-अलग देशों ने 190 खरब डॉलर और 2021 में 100 खरब डॉलर के पैकेज अपनी-अपनी अर्थव्यवस्थाओं के लिए जारी किए।

लॉकडाउन के दौरान विभिन्न उद्योगों और विभिन्न देशों में आपूर्ति शृंखला प्रभावित हुई। मांग घटने के कारण अनेक आपूर्तिकर्ता दिवालिया हो गए और उन्हें अपना कामकाज बंद करना पड़ा। आर्थिक भरपाई होने के बावजूद कंपनियों और उपभोक्ताओं ने पाया कि आपूर्ति कोविड से पहले के स्तर पर नहीं है। ऐसे में, आपूर्ति की तुलना में मांग बढ़ती चली गई। चूंकि सरकारों ने पहले ही उपभोक्ताओं का ध्यान रखते हुए अर्थव्यवस्थाओं में काफी पैसा झोंक रखा था, ऐसे में, मांग और आपूर्ति के असंतुलन से मुद्रास्फीति चिंतनीय स्तर पर बढ़ गई।

दुनिया भर की सरकारों और केंद्रीय बैंकों ने यह स्वीकार किया कि लॉकडाउन के दौरान मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र के वैश्विक खिलाड़ी और आपूर्तिकर्ता वस्तुओं के उत्पादन और उनकी आपूर्ति करने में विफल रहे थे। मानो वही नुकसान काफी न रहा हो, विगत फरवरी में यूक्रेन पर रूस के हमले, और उसके नतीजतन रूस पर लगाए गए प्रतिबंधों के कारण खाद्य पदार्थ, उर्वरक और तेल की आपूर्ति नए सिरे से बाधित हुई। वर्ष 2021 में ज्यादातर लोग मुद्रास्फीति को अस्थायी बता रहे थे। लेकिन वर्ष 2022 में मुद्रास्फीति को स्थायी और चिंतनीय बताया जा रहा है।

ऐसे में, केंद्रीय बैंकों की मौद्रिक नीति भी उदार नीति से सख्त नीति में तब्दील हो गई है। केंद्रीय बैंक भी यह मान रहे हैं कि सख्त मौद्रिक नीति से रुकी पड़ी आपूर्ति शृंखला को दुरुस्त नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद वे मांग पर अंकुश लगाने के लिए ब्याज दर बढ़ा रहे हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने इस मामले में वैश्विक केंद्रीय बैंकों का अनुसरण करते हुए पहले मई में रेपो दर बढ़ाया, फिर इसमें दो बार और वृद्धि की। नतीजतन रेपो दर चार फीसदी से बढ़कर 5.4 प्रतिशत हो गई है।

ब्याज दर बढ़ाकर मांग घटाना, और इस तरह से मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाना सही समाधान नहीं है, क्योंकि आपूर्ति में आई कमी और रूस पर लगे प्रतिबंध से महंगाई बढ़ी है। फिर ब्याज दर बढ़ाने से उपभोक्ता तथा कॉरपोरेट, दोनों प्रभावित होंगे, और इसका अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। ब्याज दर बढ़ने से हाउसिंग लोन, पर्सनल लोन और ऑटो लोन की किस्तें बढ़ी हैं, जिससे कर्ज लेने वालों पर बोझ बढ़ा है। केंद्र और राज्य सरकारें सबसे ज्यादा कर्ज लेती हैं।

रेपो रेट में वृद्धि से उनके लिए भी कर्ज लेना महंगा होगा, जिसका नतीजा वित्तीय घाटे में वृद्धि के रूप में सामने आएगा। इसके बावजूद केंद्रीय बैंकों के पास बढ़ती मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए रेपो दर में वृद्धि के अलावा दूसरा विकल्प नहीं है। विगत एक अप्रैल से आठ अगस्त तक दुनिया भर में ब्याज दरों में 0.5 बेसिस पॉइंट से लेकर 50 बेसिस पॉइंट तक की कुल 86 वृद्धि हुई है।

ब्याज दरों में वृद्धि को भोथरा औजार माना जाता है, जो सरकारी वित्त को नुकसान पहुंचाता है, परिवारों के खर्च कर पाने की क्षमता में कमी करता है, साथ ही, नया निवेश कर पाने की कॉरपोरेट्स की क्षमता भी घटाता है। लेकिन 2020 और 2021 के दौरान वैश्विक अर्थव्यवस्था में काफी पैसा झोंकने और अमेरिका, यूरोप और एशिया के बड़े हिस्से में मुद्रास्फीति के 40 साल के शिखर पर पहुंच जाने के कारण केंद्रीय बैंकों पर सख्त मौद्रिक नीति अपनाने का भारी दबाव है।

वे आपूर्ति शृंखला के सुधरने तक इंतजार नहीं कर सकते। पर खतरा यह है कि सख्त मौद्रिक नीतियों का नतीजा अर्थव्यवस्थाओं में मंदी के रूप में सामने आ सकता है। ऐसे में, केंद्रीय बैंकों के पास विकल्प बहुत सीमित हैं। या तो वे मुद्रास्फीति को बढ़ते देखते रहें या फिर उपभोक्ताओं की खर्च करने की क्षमता कम करके मांग कम करें और यह उम्मीद करें कि इससे आने वाले समय में मांग और आपूर्ति के बीच संगति बनेगी।

मुद्रास्फीति से गरीब वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होता है। अच्छी बात सिर्फ यह है कि बचत करने वालों और सेवानिवृत्त लोगों को सावधि जमा राशि का अच्छा रिटर्न मिलता है। डॉलर का महंगा होना भारत के लिए अतिरिक्त चिंता की बात है, क्योंकि इससे कच्चे तेल के आयात के साथ हमारी मुद्रास्फीति भी बढ़ेगी। ऐसे ही, अमेरिकी फेडरल रिजर्व अपनी ब्याज दर बढ़ाएगा, तो अपनी मुद्राओं को सुरक्षित करने के लिए दूसरे देशों को भी ब्याज दरें बढ़ानी होंगी।

यहां फेडरल रिजर्व के पूर्व प्रमुख बेन बर्नानकी को उद्धृत किया जा सकता है, जिसने कहा था कि मौद्रिक नीति रामबाण नहीं है। अच्छे उद्देश्यों के लिए 2020 और 2021 में गलतियां की गई थीं। वैसी गलती इस साल भी होगी। गरीब इससे सर्वाधिक प्रभावित होंगे। लेकिन इन सबसे बेअसर हम आगे बढ़ते जाएंगे, जैसे कि हमेशा ही बढ़ते हैं।

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