नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव को लेकर बीजेपी सत्ता की हैट्रिक लगाने की कोशिश में है तो इंडिया गठबंधन हरहाल में उसकी राह में बाधा बनने की कवायद में है. ऐसे में दोनों ही दलों की कोशिश वंचितों के सहारे सत्ता की गद्दी को सुरक्षित करने की है. दलित और आदिवासी समुदाय काफी है, जो किसी भी दल के खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही इस बड़े वोटबैंक को अपने पाले में करके सत्ता की सिंहासन पर काबिज होना चाहती है, क्योंकि 26 फीसदी सीटें उनके लिए आरक्षित है. ऐसे में देखना है कि इस बार वंचितों के जरिए कौन अपनी कुर्सी सुरक्षित करता है?
दलित और आदिवासी समुदाय पर एक समय तक कांग्रेस की मजबूत पकड़ रही है, लेकिन अब बीजेपी का पूरी तरह से दबदबा कायम है. एससी और एसटी के लिए आरक्षित ज्यादातर सीटों पर बीजेपी ने कब्जा जमाया था. कांग्रेस सामाजिक न्याय के नारे के सहारे दलित और आदिवासी समुदाय के विश्वास को जीतने की कोशिश में है, लेकिन पीएम मोदी के लाभार्थी दांव से अपनी पकड़ को मजबूत बनाए रखने की है. ऐसे में देखना है कि दलित और आदिवासी समुदाय के दिल में कौन जगह बना पाता है?
दलित-आदिवासी सुरक्षित 131 सीटें
देश में कुल 543 लोकसभा सीटें है, जिसमें 131 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. दलित समुदाय के लिए 84 लोकसभा सीट रिजर्व है जबकि आदिवासी समुदाय के लिए 47 सीटें सुरक्षित हैं. यह सीटें जिन समुदाय के लिए आरक्षित हैं, उसके सिवा कोई दूसरे समुदाय के लोग चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. इसीलए सभी राजनीतिक दल आदिवासी आरक्षित सीट पर आदिवासी समुदाय के प्रत्याशी पर दांव खेलते हैं तो दलित रिजर्व सीट पर सिर्फ दलित जाति के प्रत्याशी उतारे जाते हैं.
आरक्षित सीट के चुनावी नतीजे
2019 के लोकसभा चुनाव आरक्षित सीटों के नतीजे देखें तो बीजेपी ने एकछत्र राज कायम है. दलित समुदाय के लिए आरक्षित 84 सीटों में से बीजेपी ने 46 सीटें जीती थी जबकि कांग्रेस महज पांच सीटें ही हासिल कर सकी थी. इसी तरह आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित 47 लोकसभा सीटों में से बीजेपी ने 31 सीटें जीती थी और कांग्रेस के महज चार सीट पर जीत मिली थी. इसके अलावा बाकी सीटें अन्य क्षेत्रीय दलों ने जीती थी. वहीं, 2014 में दलित सुरक्षित 84 सीटों में से बीजेपी ने 40 सीटें जीती थी तो कांग्रेस को सिर्फ सात सीटें मिली थी. इसी तरह से आदिवासी समुदाय के लिए रिजर्व 47 सीटों में बीजेपी ने 27 पर जीत दर्ज की थी जबकि कांग्रेस सिर्फ 5 सीटें हासिल कर सकी थी.
2024 में एससी-एसटी पर दांव
बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए और कांग्रेस के अगुवाई वाले इंडिया गठबंधन दोनों की कोशिश एससी-एसटी समुदाय के लिए रिजर्व सीटों पर जीत दर्ज करने की है. ऐसे में पीएम मोदी जनकल्याणकारी योजनाओं के जरिए मजबूत पकड़ बनाए रखने की है. पीएम मोदी कई बार कह चुके हैं कि गरीब और वंचितों का विकास ही असल सामाजिक न्याय है. बीजेपी ने अपनी तमाम योजनाओं के जरिए लाभार्थी वोटबैंक तैयार किया है, जिसमें बड़ी हिस्सेदारी आदिवासी और दलित समुदाय के लोगों की है. बीजेपी ने दलित और आदिवासी समुदाय के बीच एक नई लीडरशिप और वोटबैंक तैयार किया है, जिसे हिंदुत्व के छतरी के नीचे मजबूत करने की है. इसके लिए पार्टी प्रतीकों की राजनीति भी करती रही है. मोदी सरकार आने के बाद पहले दलित समुदाय से रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया तो उसके बाद आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति बनी.
आदिवासी-दलित वोटों पर कांग्रेस की नजर
वहीं, कांग्रेस दोबारा से आदिवासी और दलित वोटों पर पकड़ बनाए रखने की कोशिश में है, जिसके लिए घोषणा पत्र में सबसे ज्यादा जगह दी है. कांग्रेस ने दलित चेहरे के तौर पर मल्लिकार्जुन खरगे हैं, जो पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष हैं. कर्नाटक और तेलंगाना के विधानसभा चुनाव में खरगे के स्थानीय प्रभाव ने भी एससी मतदाताओं को कांग्रेस की ओर मोड़ने में कामयाब रहे, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में असर नहीं दिखा. इसके बाद भी कांग्रेस दलित और आदिवासी वोटों को अपने साथ जोड़ने के लिए तमाम कवायद कर रही है.
2024 के लोकसभा दलित और आदिवासी समुदाय को जोड़ने की रणनीति साफ दिखाई दे रही है. इन दोनों समुदाय पर अपनी पकड़ मजबूत कर चुकी भाजपा हर हाल में इन्हें थामे रखना चाहती है तो कांग्रेस इन्हें फिर से पाने के लिए परेशान है. वहीं, इन दोनों समुदाय की राजनीति करने वाले क्षेत्रीय दलों के साथ अन्य पार्टियां भी इस वोटबैंक में हिस्सेदारी के लिए हाथ-पैर मारती दिखाई दे रही हैं. बसपा, एलजेपी आरपीएल, झामुमो जैसे दल खालिस अनुसूचित वर्ग की ही राजनीति कर रहे हैं, जिनकी नजर इस वर्ग के वोटबैंक पर है. ऐसे में देखना है कि 2024 में दलित और आदिवासी वोटर किस पर अपना भरोसा जताते हैं?
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