ब्‍लॉगर

पूर्णता का आग्रह

– गिरीश्वर मिश्र

ईशावास्य उपनिषद् के अनुसार (ब्रह्म) पूर्ण है, यह (जगत) भी पूर्ण है । पूर्ण जगत की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। उसके बाद भी उस( ब्रह्म ) की पूर्णता ज्यों कि त्यों बनी रहती है, अर्थात शेष ब्रह्म भी पूर्ण रहता है। ब्रह्म रचयिता है। प्रकृति रचना है। यानी ब्रह्म से प्रकृति का उदय होता है । अपने पूर्ण में से पूर्ण प्रकृति की रचना के पश्चात भी ब्रह्म पूर्ण बना रहता है। बीज से वृक्ष बनता है और वृक्ष से अनेक बीज बनते हैं। भौतिकी की शब्दावली में ऊर्जा का पदार्थ में रूपांतरण होता है। पूरे से पूरा निकलता है और पूरे का पूरापन लेने पर भी पूरा ही बचा रहता है। शून्य में से शून्य घटाने पर शून्य शेष रहता है। शून्य शून्य ही रहता है। उसमें कोई विकार नहीं आता है। पूर्ण का पूर्णत्व ले कर पूर्ण ही बच रहता है। सम्पूर्ण , सकल , समग्र और समावेशी यह अभी अपने अहं भाव के अतिक्रमण के लिए आह्वान करते हैं। ईश उपनिषद् में ही यह स्थापना भी है कि सकल संसार में चतुर्दिक ईश्वर का ही वास है इसलिए उससे जो प्रसाद मिले उसे स्वीकार करना चाहिए और किसी अन्य के धन संपदा पर अधिकार की बात नहीं करनी चाहिए। अर्थात त्यागपूर्वक भोग करना ही श्रेयस्कर है।

जगत के प्रति यह दृष्टि सर्वोदय, स्वराज और स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन का प्रमुख आधार था। भारत का अमृत महोत्सव ‘स्वराज’ पाने कि स्मृति को ताजा करता है और पूर्णत्व का अभिलाषी है । यह संयोग ही है कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और महर्षि अरविंद की 150 वीं जयन्ती भी साथ में मनाई जा रही है। इस अवसर का महत्व इस अर्थ में और बढ़ जाता है कि मानसिक स्वराज को स्थापित करने का संकल्प भी नई शिक्षा नीति में किया गया है। ज्ञान की विरासत को आधुनिक ज्ञान से जोड़ने का यह अनुष्ठान ऐसे मोड़ पर हो रहा है जब वैश्विक महामारी मन , शरीर और भौतिक पदार्थ की दुनिया के आपसी रिश्तों को फिर से देखने समझने के लिए मजबूर कर रही है। मानवता की विकास यात्रा का यह पड़ाव अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक महत्वपूर्ण और निर्णायक है। चेतना ही गति रूप में ऊर्जा और स्थूल रूप में पदार्थ में रूपांतरित होती।

भारत प्राचीन काल से ज्ञान केंद्र रहा है। देश के रूप में उसकी भौगोलिक सत्ता है जो विश्व की एक प्राचीनतम सभ्यता में पनपाने वाले विचारों और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता आ रहा है। सत्य (स्थिरता ) और ऋत ( गति) के साथ समग्र को आत्मसात की भारत-दृष्टि मनुष्य और सृष्टि को भिन्न नहीं करती और यत पिंडे तद् ब्रह्मांडे की अवधारणा के साथ सबके बीच निरंतरता को स्वीकार करती है। ऐसे में प्रकृति और मनुष्य प्रतिद्वंद्वी न हो कर परस्पर निर्भर और अनुपूरक के रूप में उपस्थित होते हैं।

इस विश्व दृष्टि में मनुष्य सृष्टि का केंद्र नहीं है। जड़ और चेतन जो भी है उसमें कोई निरपेक्ष भोक्ता और भोज्य नहीं है । प्रकृति पर नियंत्रण की जगह उसके साथ सहकार महत्वपूर्ण है। यह विचार अनेक रूपों में व्यक्त और ध्वनित होता रहा है। जब यहां की दृष्टि को सनातन कहते हैं तो वह कालबद्ध न हो कर कालातिक्रामी हो जाती है। वह जीवन के स्वभाव को व्यक्त करता है जिसकी उत्कृष्ट तम अभिव्यक्ति ‘धर्म’ के विचार में मिलती है जो सबको धारण करता है। यह शुद्ध , उचित और कल्याणकारी आचार-प्रणाली है जो अपना, दूसरों का यानी सबका हित साधती है। इसी अर्थ को न्याय वैशेषिक में यतोभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म: कह कर व्यक्त किया गया। चाणक्य ने अर्थशास्त्र में जब यह कहा कि सुखस्य मूलं धर्म: तो उनका भी यही आशय था। महाभारत किसी भी हल में धर्म न छोड़ने के लिए कहता है। कामना, भय तथा लोभ आदि से अपने बचाते हुए सदैव धर्म का आचरण करना चाहिए; धर्म ही नित्य है । धर्म पूरे समाज को ले कर चलता है सबके कल्याण की प्राप्ति चाहता है।

धर्म की रक्षा से हमारी रक्षा होती है और उसके विनाश से हमारा विनाश होता है। धर्म की यह व्यापक अवधारणा दीर्घकाल के गहन चिंतन-मनन का नवनीत कहा जा सकता है। इसलिए धर्म सदैव रक्षणीय है। जीवन लक्ष्यों के रूप में पुरुषार्थों में परिगणित अर्थ, काम और मोक्ष की अपेक्षा धर्म प्रधान है। ऐसे काम और अर्थ का परित्याग करना चाहिए जो धर्म विरुद्ध हो। इसी अर्थ में भारत स्वयं को धर्म प्रधान देश कहा जाना पसंद करता है। मन, वचन और कर्म में धर्म ही व्यक्त होना चाहिए। धर्म को प्रतिष्ठित करने लिए समाज ने व्यवस्था भी बनाई। पितृ ऋण,, ऋषि ऋण , देव ऋण और मनुष्य ऋण का विधान किया गया जो चारित्रिक रूप से सबल और पूरे परिवेश के प्रति उत्तरदायित्व को प्रतिष्ठित करता है। इन ऋणों को चुकाने के लिए वैसी ही जीवनशैली को अपनाने की व्यवस्था की गई । चार आश्रम भी देशकाल में उपयुक्त व्यवहार का विधान करते हैं।

मनुष्य की सत्ता बहुस्तरीय और समग्रतावादी है जो इस अर्थ में अतिक्रामी है कि वह भौतिक तक सीमित न रह कर आध्यात्मिक स्तर तक जाती है। वह सबको समेटती है और सृष्टि या ब्रह्माण्ड से जोड़ती चलती है। अन्नमय कोश , प्राणमय कोश , विज्ञान मय कोश , मनोमय कोश और आनंदमय कोश के रूप में अस्तित्व की औपनिषदिक परिकल्पना चैतन्य के क्रमिक उदात्त, उच्चस्तरीय और समावेशी दृष्टि को स्थापित करते हैं। ज्ञान या विद्या की सहायता से जीवन यात्रा में व्यवधानों से मुक्ति मिलती है और इसीलिए कहा गया- सा विद्या या विमुक्तए।

उपर्युक्त दृष्टि भारत की छवि निर्मित करती है। उस भारत की जो भारत अग्नि के उपासकों के समुदाय से निर्मित हुआ था। सत, प्रकाश या ज्ञान और अमृतत्व की साधना का आह्वान करते हुए प्रार्थना की गई : असतो मा सद्गमय, तमसोमाज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय। पारस्परिकता, बहुलता और विविध प्रभावों को आत्मसात करने की प्रवृत्ति दर्शन, संगीत, स्थापत्य, शिल्प, प्रदर्शनकारी कलाओं, योग तथा आयुर्वेद सब में दिखाई पड़ती है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में पृथ्वी माता के सदृश भिन्न भाषा भाषी और धर्मानुयायियों सबका भलीभांति भरण-पोषण करती है ।

योग हमें शारीरिक, सामाजिक, नैतिक स्तरों पर आचरण को संयमित करने के लिए आवाहन करता है। महर्षि पतंजलि के आठ चरण सामाजिक और निजी स्तरों पर अभ्यासों को स्थापित करते हैं। आसन शरीर को शुद्ध और नियमित करते हैं । प्राणायाम जीवन और चेतना का संचार करता है तो प्रत्याहार आत्म-नियंत्रण और ध्यान एकाग्र बनाता है। समाधि चेतना का परिष्कार करते हुए कैवल्य की स्थिति की ओर ले जाती है। स्मरणीय है कि शरीर पञ्च महाभूतों (पृथ्वी, जल, वायु, आकाश , अग्नि) से निर्मित है। ये परिवेश के साथ निरंतरता में हैं। वस्तुत: शरीर भी प्रकृति का अंग है और सत्व , रज और ताम के गुण दोनों में व्याप्त हैं। संतुलन और साम्यावस्था प्राप्त करना सर्वथा हितकर होता है। उपयुक्त आहार , विहार और कर्म अपनाते हुए प्रसन्नतापूर्वक जीवन जीवन का उत्कर्ष तो राग, भय और क्रोध जैसी स्थितियों से अविचलित होने में ही है । वही ‘स्थित धी’ या स्थित्प्रज्ञ होता है जो वीतरागभयक्रोध हो। सद्वृत्त का मार्ग अपना कर ही सबके कल्याण का मार्ग खुल सकता है। तभी हम लोक कल्याण का लक्ष्य पा सकेंगे।

भारतीय जीवन दर्शन में सबको देखने वाली दृष्टि अर्थात पूर्णता की दृष्टि, जिसे गीता में सब में एक अव्यय भाव को पहचानने वाली नजर (सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते) कहा गया, अपनाने पर बल दिया गया है। स्वराज पाने के आन्दोलन में जिस भारत-भाव का विकास हो रहा था वह विविधताओं के बीच धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा की भिन्नताओं के बीच परस्पर सौहार्द और सहनशीलता से श्रेय की प्राप्ति की ओर अग्रसर था। देश सबके विचार के केंद्र में था। स्वतंत्र भारत में इनका संकोच शुरू हुआ और देश की जगह धर्म, जाति, क्षेत्र और भाषा जैसी सीमित अस्मिताओं के प्रलोभन बढ़ने लगे और सामाजिक – राजनीतिक प्रश्नों पर विचार पर छाने लगे । भिन्नताओं का लाभ दिखने लगा और देश या राष्ट्र के लिए समावेशी दृष्टि कमजोर पड़ने लगी जब कि जोड़ सकने वाले संचार साधनों और मीडिया की उपस्थिति तीव्र होती गई । देश की उन्नति के लिए असहज असहनशीलता की जगह चाहिए कि हम साथ आएं ! साथ बोलें ! हमारे मन के तार मिलें !

(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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