ना कोई जानता है ना कोई पहचानता है… कमलनाथजी ने पुडिय़ा थमाई और अक्षय ने खुद को नेता मान लिया… चार दिन की राजनीति और सीधे विधायकी का ख्वाब… ना पार्षद का चुनाव लड़ा… ना संगठन में चेहरा दिखा… ना गांधी भवन की सीढिय़ा चढ़ीं और ना धक्कों में कपड़ों की क्रिज बिगड़ी… ना नेताओं की साजिशों के शिकार हुए… ना गुटबंदी की भेंट चढ़े… कमलनाथजी का आश्वासन और दिग्गज नेताओं की खामोशी इसीलिए थी कि वे एक बलि का बकरा ढूंढ रहे थे… अब तक कई नेता भेंट चढ़ चुके हैं… अब नए की तलाश थी… जो माहौल बनाए और बिना डगमगाए खड़़ा रह पाए… ऐसे में निगाहें नेताओं पर नहीं… कारोबारियों पर टिकी… फिर जिसने कभी न राजनीति देखी ना नेतागीरी की… वो क्या जाने नेताओं के आश्वासन… उसके जैसे कइयों को कमलनाथजी ने पुडिय़ा थमाई और भाई लोग उसे टिकट समझ बैठे… जो नेता थे, वो तो समझते थे कि टिकट नसीब से मिलता है, लेकिन मिल गया तो चुनाव लड़ लेंगे और नहीं मिला तो रुआंसे होकर सहानुभूति के साथ अगली बार का आश्वासन ले लेंगे… आश्वासन देने वाले फिलहाल तो यह भी कह देंगे कि सरकार बनी तो कहीं न कहीं एडजस्ट कर लेंगे… अनुभवियों के लिए यह आश्वासन भी काफी है, लेकिन अक्षय तो अक्षय ठहरे… आज ही हिसाब- किताब पूरा करने की नीयत से गांधी भवन पर धावा बोल दिया… अच्छी खासी भीड़ जुटाई… जो भीड़ जुटाई वो भी नए-नवेलों की थी… जिन्होंने ना कभी नेताओ के लिए जिंदाबाद के नारे लगाए और ना कभी विरोध के गुर आजमाए… लिहाजा जैसे ही पुलिस ने दो-चार को घसीटा वैसे ही सारे के सारे भागते नजर आए… वैसे भी अक्षय को शुक्र मनाना चाहिए कि बिना पैसे खर्च किए नेताओं में नाम शुमार हो गया… चुनाव लड़ते तो पता नहीं कितनी जेब खाली होती और नतीजा तो सबको मालूम ही था… ऐसे में शांतिदूत बनकर अपना चरित्र बताते… नाराजगी नारों से नहीं बातों से जताते… सडक़ छाप नेता की तरह हो-हल्ला नहीं मचाते तो कमलनाथजी की नजरों में चढ़ जाते… लेकिन राजनीति में नर्सरी की कक्षा में दाखिल होने वाले अक्षय को अध्यक्ष बदलने पर हो-हल्ला मचाने वाले विनय बाकलीवाल का हश्र भी समझ में नहीं आया… विनय ने असंतोष जताकर अरविंद को पूरे की जगह आधा अध्यक्ष तो बनवा दिया, लेकिन खुद का हाथ जला लिया… इसी तरह अक्षय भी शायद नर्सरी से ही बाहर हो जाएंगे और राजनीति की पाठशाला में दाखिल ही नहीं हो पाएंगे या इसे सबक मानकर सांई जिंदाबाद की भीड़ में शामिल हो जाएंगे…
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