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    कृषि सुधार पर बंद होनी चाहिए राजनीति

  • September 23, 2020

    – प्रभुनाथ शुक्ल

    कृषि सुधार के तीन विधेयकों पर सड़क से लेकर संसद तक की राजनीति गरमा गई है। किसान एकबार फिर सियासी मोहरा बन गया है। किसान, कितना मुनाफे और घाटे में होगा यह तो वक्त बताएगा लेकिन किसान हिमायती बनने के लिए संसद में जिस तरह माननीयों का दंगल देखने को मिला उसे अनैतिक राजनीति की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा। उप सभापति के आसन के सामने आकर माननीयों ने बिल की प्रतियों को फाड़ माइक तक तोड़ डाली। इस अमर्यादित आचरण के लिए सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलम्बित करना पड़ा।

    अभी किसानों का आंदोलन पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित है। जबकि विपक्ष चाहता है कि इसकी आग पूरे देश में फैले। केंद्र सरकार बिल को लेकर इतनी उतावली क्यों है। बिल को पास कराने में उसने जल्दबाजी क्यों दिखाई। सरकार बिल पर मत विभाजन को क्यों तैयार नहीं हुई। सरकार वास्तव में अगर किसान हितैषी है तो इतनी जल्दबाजी दिखाने की क्या ज़रूरत है। सरकार बिल लाने के पूर्व इस बिल को क्यों किसानों के बीच लेकर नहीँ गई। विपक्ष मत विभाजन पर अड़ा था तो ध्वनिमत पर उसने भरोसा क्यों जताया। देश की 80 फीसदी मेहनतकश आबादी के भाग्य का फैसला जो बिल करने वाला है उसे ध्वनिमत से पास करना कहाँ का इंसाफ है। ध्वनिमत का प्रस्ताव विषम स्थितियों में होना चाहिए लेकिन अब यह उपाय सत्ता की कमजोरी बनता दिखता है।

    केंद्र सरकार जिन तीन विधेयकों को ऐतिहासिक बता रही है उनमें एक ‘कृषक उपज व्‍यापार और वाणिज्‍य’ संवर्धन और सरलीकरण विधेयक है। इस बिल पर सरकार का कहना है कि यह किसानों को पूरी उपज मंडी से बाहर बेचने की आजादी देता है। फिर क्या इसके पहले ऐसा नहीँ होता था। किसान तब भी पूरी आजादी के साथ अपनी उपज को कहीँ भी बेच सकता था। सरकार का इस प्रावधान में दावा है कि इस बिल से किसान अपनी उपज को एक राज्य से दूसरे राज्य में ले जा सकता है। इस श्रेणी में कितने फीसद किसान आएंगे यह सरकार खुद जानती है। किसान अगर अपनी फसल मंडी से बाहर बेचेगा तो कहाँ बेचेगा। उसे खरीदने वाला कौन होगा। उसकी शर्त क्या होगी।

    लोकसभा और राज्यसभा से पास दूसरा बिल कृषक सशक्‍तिकरण से सम्बन्धित है। यह अनुबंध खेती को अधिक बढ़ावा देगा। मध्यमवर्गीय किसान को बहुत बड़ा फ़ायदा होने वाला फ़िलहाल नहीँ दिखता है। तीसरा बिल आवश्यक वस्तु से सम्बन्धित है। जिसमें अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्‍याज़ आलू को आवश्‍यक वस्‍तुओं की सूची से हटाने का विधान करता है। इसका मतलब आवश्यक वस्तुओं की जमाखोरी अब अपराध नहीँ होगी। कोई भी व्यापारी किसानों से इन वस्तुओं की खरीद कर जमाखोरी कर मुनाफा कमा सकता है। बिल के बाद बाजार पर क्या सरकार का नियंत्रण होगा कि कोई भी ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ से नीचे किसान की उपज नहीँ खरीद सकता है। ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ की शर्त क्या वर्तमान में लागू हैं? वर्तमान समय में किसानों का विश्वास जीतने के लिए गेहूँ की एमएसपी 50 रुपए बढ़ा दिया है। अब यह 1925 के बजाय 1975 रुपए प्रति कुंतल (एमएसपी) होगी।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कृषि बिल को किसानों के लिए नया अध्याय बताया है। उन्होंने विपक्ष पर किसानों को गुमराह करने का भी आरोप लगाया है। प्रधानमंत्री ने साफ कहा है कि मंडी परिषद नहीं ख़त्म होगी और ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ जारी रहेगा। यही वजह रही कि सरकार ने समय से पहले फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ा दिया। किसान संगठनों का आरोप है कि नए कानून के लागू होते ही कृषि क्षेत्र भी पूँजीपतियों के हाथ में चला जाएगा। कॉरपोरट जगत अपनी शर्तों पर किसानों से अनुबंध करेगा।

    देश में कृषि सुधार अहम जरूरत है लेकिन किसान और मजदूर हमेशा वोटबैंक की राजनीति का हिस्सा रहा है। यह विषय राजनीति से ऊपर उठकर है लेकिन यह सम्भव नहीँ दिखता। लॉकडाउन में अगर भारत की कृषि अर्थव्यवस्था इतनी मज़बूत न होती तो क्या हालात होते इसकी कल्पना की जा सकती है। ऐसे में किसानों पर राजनीति बंद होनी चाहिए।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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