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I.N.D.I.A गठबंधन को बिहार CM नीतीश कुमार ने सियासी दांव-पेंच में उलझाया !

पटना (Patna)। बिहार के मुख्‍यमंत्री नीतीश कुमार (Chief Minister Nitish Kumar) ने बिहार की सियासत में जबरदस्त सस्पेंस पैदा कर दिया है। वे इधर हैं कि उधर हैं या किधर हैं, किसी की समझ में नहीं आ रहा। खुल कर कहें तो यह पता कर पाना बड़ा मुश्किल हो गया है कि नीतीश कुमार एनडीए के सीएम हैं या महागठबंधन (grand alliance) के। यह समझ पाना बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों के लिए मुश्किल हो गया है।

नीतीश कुमार के सियासी दांव-पेंच को समझने में दिक्कत इसलिए हो रही है कि वे भाजपा के नेता और भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ के पुल बांधते नहीं थकते। उनका नाम माला की तरह जपते रहते हैं। अपने राजनीतिक करियर के उत्थान में वे अटल बिहारी वाजपेयी की मदद को भूलते नहीं हैं। उसे सार्वजनिक तौर पर गिनाते-बताते भी हैं।

भाजपा नेता की जयंती क्यों मनाते हैं
इतना ही नहीं, नीतीश कुमार जनसंघ (अब भाजपा) के बड़े नेता और आरएसएस से आजीवन संबद्ध रहे पंडित दीनदयाल उपाध्याय को भी याद करते हैं। उनकी प्रतिमा पर फूल चढ़ाते हैं। राजकीय स्तर पर जयंती मनाते हैं। वे लालकृष्ण आडवाणी को भी शिद्दत से याद करते हैं, यह कह कर कि ‘अटल-आडवाणी के जमाने की भाजपा अब नहीं रही।’ यानी नीतीश भाजपा की खराब हालत (जैसा भाव होता है नीतीश के कहने का) से दुखी भी होते हैं। उन्हें भाजपा पर फख्र और अफसोस दोनों ही होता है। ऐसे में किसी के लिए यह समझ पाना मुश्किल है वे किधर हैं।

मोदी की आलोचना, उन्हीं के साथ भोज
एनडीए से अलग होने के बाद दिन-रात नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार को कोसने वाले, उनकी कमियां-खामियां गिनाने वाले नीतीश कुमार भोज में मुलाकात होने पर उनसे बतियाते भी हैं। हंस-हंस कर बात करते हैं। बातें क्या हुई होंगी, यह तो वे दोनों ही जानें, लेकिन दोनों की बातचीत का अंदाज और अदाएं कुछ दूसरा ही इशारा करते हैं। हालांकि उन इशारों को नीतीश यह बोल कर खारिज भी करते हैं कि कौन इस तरह की अफवाह फैलाते रहता है। हम तो विपक्षी को एकजुट करने में लगे हैं।

तेजस्वी ने भी DDU को फूल चढ़ाए
नीतीश के भाजपा के प्रति अथाह प्रेम का अंदाज इसी बात से लगा सकते हैं कि नीतीश ने उस आदमी की प्रतिमा के सामने उन लोगों को भी खड़ा कर दिया, जिनकी जुबान से भाजपा और आरएसएस के लिए कभी सीधे बोल नहीं फूटते। तेजस्वी यादव और विजय नारायण चौधरी जैसे समाजवादी नेता से दीनदयाल उपाध्याय की प्रतिमा पर पुष्प भी अर्पित कराते हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण संबंधी बयान को तेजस्वी के पिता लालू यादव ने साल 2015 के विधानसभा चुनाव में जीत का हथियार बना दिया था।

भाजपा के साथ नीतीश के 15 साल
भाजपा के प्रति इस प्रेम की वजह शायद नीतीश कुमार का लंबे समय तक बीजेपी के साथ रहना है। यह भी सच है कि आरंभ से लेकर पिछले साल अगस्त 2022 तक भाजपा का सहारा यदि नीतीश को नहीं मिला होता तो शायद ही वे सीएम की कुर्सी तक पहुंच पाते और 15 साल तक निष्कंटक राज कर पाते। पहली दफा वाजपेयी की कृपा से भले ही वे कुछ ही दिनों के सीम रहे, लेकिन उसके बाद के वर्षों में भाजपा ने नीतीश का इतना साथ दिया कि वे ऊब ही गये। उसका 15 साल पुराना साथ छोड़ दिया।

पिछली बार 17 माह, अबकी बार कब?
नए साथी के रूप में महागठबंधन के साथ नीतीश का महज पहला साल बीता है। पिछले अनभव को आधार मान कर देखें तो उनके पास अभी पांच-छह महीने का समय है। सिर्फ 17 महीने महागठबंधन के साथ सरकार चलाने का अनुभव उनका अच्छा नहीं रहा। वे फिर पुराने साथी भाजपा के साथ आ गए थे। 17 महीने पूरे होने में अभी चार-पांच महीने का वक्त बचा है। नवंबर-दिसंबर वही वक्त होगा, जब पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो चुके होंगे या होने वाले होंगे। लोकसभा चुनाव की भी सरगर्मी चरम पर होगी। तोड़-फोड़ की प्रक्रिया अंतिम दौर में होगी। तोड़ने के लिए सत्ताधारी एनडीए लोभ के दाने बिखेर चुका होगा। यह नीतीश के लिए निर्णायक समय होगा। उन्हें दो में किसी एक नाव की सवारी छोड़नी पड़ेगी।

नीतीश को लेकर संदेह क्यों होता है
नीतीश कुमार बार-बार यह कहते हैं कि वे विपक्षी दलों की एकता का काम कर रहे हैं। उसका काम आगे बढ़ रहा है। बैठकें होने लगी हैं। परिणाम भी जल्दी आ जाएगा। कहते तो यह भी हैं कि विपक्षी दलों के बीच बिहार में सीटों के बंटवारे को लेकर कोई लफड़ा नहीं है राष्ट्रीय स्तर पर भी विपक्षी गठबंधन के घटक दलों में सीटों के लिए कोई झगड़ा नहीं है। कुछ बातें अगर थोड़ी-बहुत होंगी भी तो उसे सुलझा लिया जाएगा। नीतीश भले ही ऐसी बातें कहें, विपक्षी गठबंधन में नीतीश की पूछ अब वैसी नहीं रही, जैसे शुरुआती दिनों में थी।

कोऑर्डिनेशन कमिटी बनी है, जिसकी पहली बैठक भी हो चुकी है। कमेटी में नीतीश खुद शामिल नहीं हैं, लेकिन अपनी पार्टी जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह को नामित किया है। गठबंधन का संयोजक बनने का नीतीश का सपना टूट चुका है। संयोजक की अवधारणा ही अब खत्म कर दी गई है। कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने कमान संभाल ली है। अब अलग से संयोजक रखने की कोई जरूरत नहीं है। खैर, जो हालात दिख रहे हैं, उसमें नवंबर-दिसंबर तक का समय बिहार की राजनीति में काफी उथल-पुथल वाला रहने वाला होगा।

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