ब्‍लॉगर

बहन जी को फिर याद आये ब्राह्मण

– डॉ. प्रभात ओझा

राजनीति में एक ही परिस्थिति हर बार नहीं होती लेकिन एक बार किसी विशेष परिस्थिति में सफल दल अथवा नेता उसकी वापसी के मंसूबे पालते ही हैं। बहुजन समाज पार्टी भी इन दिनों यही कर रही है। वह ब्राह्मणों को लुभाने की जतन में जुटी है और 23 जुलाई से ब्राह्मण सम्मेलन शुरू हो चुके हैं।

पार्टी की इस कोशिश को समझने के लिए इतिहास में झांकना होगा। वर्ष 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव आते-आते बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती समझ चुकी थीं कि सिर्फ दलित वोटों के भरोसे सत्ता पर मजबूत पकड़ नहीं हो सकती। इसके पहले 2002 में वे भाजपा और रालोद के समर्थन से मुख्यमंत्री बनीं थीं। वह सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल पायी और मायावती के ही कुछ बागी विधायकों एवं कांग्रेस के सहयोग से मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बन गये थे। अगले यानी 2007 की रणनीति में मायावती ने सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता सतीश मिश्र को ब्राह्मण-दलित गठजोड़ के लिए सामने किया। ब्राह्मणों में तब सत्ता के प्रति बहुत नाराजगी थी। उस बार भाजपा अथवा कांग्रेस की सरकार बनती नहीं दिख रही थी, लिहाजा प्रदेश के ब्राह्मणों ने मायावती का साथ दिया और बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार लखनऊ में काबिज हुई।

तब अजीब चमत्कार हुआ था। ‘तिलक, तराजू और तलवार। इनको मारो जूते चार’ का नारा देने वाली बसपा प्रमुख मायावती के साथ ब्राह्मण इसलिए खड़े हो गये कि उनकी नाराजगी मुलायम सिंह यादव और समाजवादी पार्टी से थी। ब्राह्मणों को तत्काल भारतीय जनता पार्टी अथवा कांग्रेस से उम्मीद नहीं रही। कांग्रेस तो उस समय मुलायम सिंह सरकार के साथ थी ही।

मायावती ने सतीश मिश्र के साथ मिलकर तब के चुनाव में सोशल इंजीनियरिंग का खूब ख्याल रखा। उनकी पार्टी ने 139 सीटों पर सवर्ण उम्मीदवार उतारे। सवर्णों में सबसे अधिक 86 ब्राह्मण उम्मीदवार थे। पार्टी ने 36 क्षत्रिय व 15 अन्य सवर्ण उम्मीदवार बनाये। तब बसपा ने 114 पिछड़ों व अतिपिछड़ों, 61 मुस्लिम एवं 89 दलितों को उम्मीदवार बनाये। साफ तौर पर 89 दलित और 86 ब्राह्मण का गणित देखने लायक था। पार्टी को इसका सुखद परिणाम भी मिला। वर्ष 1984 में बनी बसपा पहली बार अपने दम पर सरकार में आयी। बसपा के कुल 206 सीटें हासिल हुईं, जबकि सपा को 97 सीटें ही मिल सकीं थी। वर्ष 2002 में 88 सीट पाने वाली भाजपा 51 सीट पर आकर सिमट गयी। कांग्रेस भी पहले के 25 के मुकाबले 22 पर आ गयी।

लगता है कि बहुजन समाज पार्टी 2007 का प्रयोग फिर से दोहराना चाहती है। वह 2012 के चुनाव में सत्ता से बाहर हो गयी थी। तब अखिलेश यादव की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ बनी। यही क्रम 2017 में रहा, जब भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में आयी। तीन बार के विधानसभा चुनाव में फर्क यह आया है कि बहुजन समाज पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग लड़खड़ा गयी। वह समाजवादी पार्टी अथवा भारतीय जनता पार्टी के साथ चली गयी। यहां यह भी ध्यान रखना होगा कि सत्ता परिवर्तन में सरकार विरोधी रुख और कुछ अन्य कारण भी कारगर होते हैं। पिछली बार तो भाजपा और मोदी लहर ने ही कमाल किया था।

बसपा को आज लगता है कि वह योगी सरकार के मुकाबले खुद को प्रस्तुत कर सकती हैं। अभी हाल में मायावती ने मीडिया को बुलाकर कहा कि पिछले विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण बीजेपी के बहकावे में आ गए और एकतरफा वोट देकर भाजपा की सरकार बनवा दी। अब वे पछता रहे हैं। सब जानते हैं कि उन पर इस सरकार में कितनी ज्यादती हुई। आने वाले विधानसभा चुनाव में ब्राह्मणों को फिर से बसपा के साथ आ जाना चाहिए।

इसी प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलन करने की जानकारी दी। योजना के तहत ऐसा पहला सम्मेलन सतीश मिश्र के नेतृत्व में 23 जुलाई को अयोध्या में करने का फैसला हुआ। यह सिलसिला चुनाव के पहले तक चलता रहेगा। इसबार बसपा का यह ब्राह्मण कार्ड कितना सफल होगा, यह तो भविष्य ही बताएगा। वर्ष 2012 में बसपा अध्यक्ष ने इस फॉर्मूले को छोड़कर मुसलमानों को तरजीह दी थी। ब्राह्मण उम्मीदवार 2012 के 86 के मुकाबाले 74 थे लेकिन बसपा को करारा झटका लगा था। इसबार भी राह बहुत आसान नहीं है। राज्य की योगी सरकार के पास गिनाने के लिए अपने ढेर सारे काम हैं। सपा भी बसपा के मुकाबले कहीं से कमजोर नहीं है।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार के न्यूज एडिटर हैं।)

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