ब्‍लॉगर

सकारात्मक विरोध के बारे में भी सोचें

पवन कुमार अरविंद

अब भारत को बंद की राजनीति से आगे बढ़ना चाहिए। ‘बंद’ करने के बजाय ‘शुरू’ करने पर विचार करना चाहिए। देश बंद, प्रदेश बंद, सड़क बंद और बाजार बंद, इससे सिर्फ देश का नुकसान है, हमारा नुकसान है। पराधीन भारत के लिए यह ठीक था लेकिन स्वाधीनता के बाद भी यही चलता रहे, यह ठीक नहीं। किसी भी कार्य या अभियान में देश, समाज और परिवार के दीर्घकालिक कल्याण की संकल्पना होनी चाहिए। पर ऐसा न कर हम बार-बार सिर्फ विध्वंस का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं।

बार-बार बंद, धरना, घेराव, विरोध-प्रदर्शन और यातायात जाम से देश और हमारा, प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से कितना नुकसान होता है, यह सर्वविदित है। इस रास्ते पर चलने से जन-धन की भारी क्षति होती है। किसान आंदोलन के कारण अबतक हजारों करोड़ की क्षति हुई है। करीब दो महीने से चल रहे इस आंदोलन ने रेलवे और अन्य सेक्टरों को भारी नुकसान पहुंचाया है। इसकी वजह से हाल के दिनों में पंजाब से होकर गुजरने वाली 1,986 यात्री ट्रेनों और 3,090 मालगाड़ियों को रद्द करना पड़ा। इसके चलते रेलवे को 1,670 करोड़ का नुकसान हुआ। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक रेलवे को रोजाना मालभाड़े में करीब 36 करोड़ का नुकसान उठाना पड़ा। ये आंकड़े सिर्फ 16 नवम्बर तक के हैं। यह क्षति ऐसी है जो अपूरणीय है। केंद्र सरकार के तीन कृषि सुधार कानूनों के विरोध में किसानों के प्रदर्शन से जनता को भी कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इससे किसका लाभ हो रहा है, न हमारा और न ही सरकार का।

चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी हो- यह नारा साम्यवाद के रास्ते पर चलने वाले साथियों का है। इसके निहितार्थ और मंतव्य स्पष्ट हैं। देश और समाज हित का चिंतन किए बिना सत्ता प्रतिष्ठानों को मजबूर कर मांगें पूरी करवाना साम्यवादी संस्कृति है। जब देश और दुनिया में साम्यवाद अंतिम सांसें गिन रहा है तो भारत की आजादी के 73 साल बाद भी विरोध और अपनी मांगें मनवाने का यह परम्परागत तरीका बदलना होगा।

किसानों को यदि कृषि सुधार कानूनों का सिर्फ विरोध ही करना है तो उन्हें विरोध का यह पुराना और विध्वंसक रास्ता छोड़कर किसी नये, सार्थक एवं सकारात्मक तरीके पर विचार करना चाहिए। जैसे- किसी दिन विशेष पर अपने-अपने परिवारों में उपवास। एक समय का अन्न त्याग। अपने-अपने खेतों में काले झंडे लगाकर भी विरोध एक तरीका हो सकता है। विरोध के दूसरे तरीकों पर भी विचार किया जा सकता है, जो गति एवं प्रगति का वाहक हो। सुख, शांति और समृद्धि भी बढ़ाए। ऐसे तरीके से कोरोना महामारी के इस कालखंड में न तो दिशा-निर्देशों का उल्लंघन होगा और न ही संक्रमण का कोई खतरा रहेगा।

दुनिया ऐसे दौर से गुजर रही है जब हर क्षेत्र में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। शिक्षा, चिकित्सा, मीडिया, यातायात और बैंकिंग समेत अन्य सेक्टरों में काफी बदलाव हुए हैं। मतदान का तरीका बदला है। बैलेट पेपर की जगह इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) ने ले ली है। सूचना एवं प्रौद्योगिकी के विकास के कारण सभी क्षेत्रों में काम करने के ढंग में भी बदलाव आया है। सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संगठनों के कार्य करने के तौर-तरीकों में भी बदलाव आया है। यहां तक कि सामाजिक ताना-बाना भी बदला है। यह समय की मांग है। सवाल यह है कि जब देश और दुनिया में हर क्षेत्र में बदलाव हो रहे हैं तो विरोध-प्रदर्शन का तरीका भी बदलना होगा।

“देश के हित में करेंगे काम, काम का लेंगे पूरा दाम“- यह नारा कितना सार्थक और समीचीन है। इस कारण यह कालजयी भी है। यानी हर देशकाल एवं परिस्थिति में और शासन-प्रशासन की स्थिति एवं मनःस्थिति में प्रासंगिक है। इस नारे में सकारात्मकता है, निर्माण है, गति है और प्रगति भी। बंद करने के बजाय शुरू करने का विचार है। सतत चलते रहना जीवन है। जड़ता मृत्यु के समान है। हालांकि यह नारा भारतीय मजदूर संघ के संस्थापक दत्तोपंत ठेंगड़ी ने दिया था लेकिन उनके नाम पर मत जाइए, बल्कि इसमें निहित संदेशों को पढ़ने की कोशिश कीजिये। आजाद भारत में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकारों के सार्थक विरोध को लेकर यह नारा; विध्वंस के बजाय निर्माण के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरक है।

कोई भी आंदोलन तभी सफल हो सकता है जब उसके उद्देश्य स्पष्ट, व्यावहारिक और देशकाल एवं परिस्थिति के अनुकूल हों। किसी बिंदु पर अड़ जाना, सिर्फ अपनी ही सुनाना और दूसरे की न सुनना; संकीर्णता का सूचक होने के साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों के भी विरुद्ध है। यह ऐसा रास्ता है जो आगे के अन्य रास्ते भी बंद कर देता है। इसलिए हठ छोड़कर सार्थक और सकारात्मक विरोध के बारे में सोचना होगा। यही रास्ता देश, समाज और परिवार के हित में है।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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