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कांग्रेस को 51 साल बाद मिला दलित अध्यक्ष, मगर आसान नहीं होगा दलितों को साधना

नई दिल्ली। पूर्व केंद्रीय मंत्री मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) कांग्रेस (Congress) के नए अध्यक्ष (new president) चुन लिए गए हैं। पार्टी को पूरे 24 साल बाद गैर गांधी और 51 साल बाद दलित अध्यक्ष मिला है। ऐसे में अध्यक्ष के तौर पर खड़गे की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है क्योंकि, उत्तर भारत (North India) सहित ज्यादातर प्रदेशों में दलित मतदाता (Dalit Voters) पार्टी से दूर हो गया है। कई चुनावों से दलित दूसरी पार्टियों को वोट कर रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में खड़गे को बड़े दलित नेता के तौर पर पेश करती रही है। चुनाव में पर्चा दाखिल करने के लिए पार्टी ने कर्नाटक (Karnataka) में दलितों के लिए किए गए उनके काम का खूब बखान किया, पर राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि खड़गे के लिए दलितों को जोड़ना आसान नहीं है। हर प्रदेश में दलितों की अपनी पार्टी व नेता है।

विश्लेषक मानते हैं कि खड़गे पूरे देश के दलित नेता नहीं हैं। दलित नेता के तौर पर पूरे कर्नाटक में भी उनकी अपील नहीं है। दलितों के बीच उनका असर सिर्फ गुलबर्गा और उसके आसपास तक सीमित है। ऐसे में खड़गे को दलितों को कांग्रेस के साथ जोड़ने में कामयाबी मिलने की उम्मीद कम है।


पहले भी दलित कार्ड खेल चुकी है कांग्रेस
पार्टी पहले भी दलित मतदाताओं का फिर से भरोसा जीतने के लिए दलित कार्ड खेल चुकी है। पार्टी ने सुशील कुमार शिंदे (Sushil Kumar Shinde) को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया था। फिर 2002 में उपराष्ट्रपति चुनाव में भी उम्मीदवार बनाया था। बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार को यूपीए सरकार में लोकसभा अध्यक्ष बनाया, पर दलितों ने कांग्रेस पर दोबारा भरोसा नहीं जताया।

पहले दलित अध्यक्ष
कांग्रेस के वरिष्ठ दलित नेता जगजीवन राम वर्ष 1970 से 71 के बीच पार्टी के अध्यक्ष रहे। बाबू जगजीवन राम के वक्त दलित मतदाता कांग्रेस के साथ थे। अध्यक्ष के तौर पर उन्होंने पूरे देश में पार्टी को मजबूत करने और लोकप्रियता बढ़ाने की कोशिश की। इसके परिणाम स्वरूप वर्ष 1971 के आम चुनाव में पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ लौट आई, पर उन्होंने आपातकाल का विरोध करते हुए कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी का गठन किया।

क्या गांधी परिवार के लिए केसरी साबित होंगे खड़गे?
कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर मल्लिकार्जुन खड़गे का गांधी परिवार को चुनौती देना मुश्किल है। क्योंकि सोनिया गांधी और राहुल गांधी की पार्टी पर मजबूत पकड़ है। ऐसे में खड़गे पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव और सीताराम केसरी की तरह गांधी परिवार को अलग-थलग नहीं कर पाएंगे। वैसे भी राव और केसरी के वक्त गांधी परिवार राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं था। इसलिए, खड़गे के लिए परिवार को चुनौती देना मुश्किल है।

अध्यक्ष पद के लिए पहली पसंद नहीं थे खड़गे
कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे पार्टी की पहली पसंद नहीं थे। पार्टी के तमाम नेता और कार्यकर्ता राहुल गांधी को एक बार फिर अध्यक्ष के तौर पर देखना चाहते थे। राहुल के इनकार के बाद राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सर्वसम्मत उम्मीदवार के तौर पर उभरे। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर चुनाव लड़ने का भी ऐलान कर दिया।

पार्टी के अंदर एक तबका गहलोत को अध्यक्ष के तौर पर नहीं देखना चाहता था। इस तबके को लगता था कि गहलोत अपनी मर्जी से निर्णय लेंगे और उनकी पार्टी पर पकड़ खत्म हो जाएगी। इसलिए, नामांकन करने से पहले ही गहलोत की जगह सचिन पायलट को सीएम बनाने के लिए पार्टी ने केंद्रीय पर्यवेक्षकों को जयपुर भेज दिया।

गहलोत विरोधी गुट जानता था कि पायलट के नाम पर मुख्यमंत्री के भरोसेमंद नेता खुलकर विरोध करेंगे। ऐसा ही हुआ, पार्टी के इतिहास में पहली बार केंद्रीय पर्यवेक्षकों को विधायकों से मिले बगैर वापस लौटना पड़ा। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने दिल्ली आकर कांग्रेस अध्यक्ष से माफी मांगी, पर उस वक्त तक बहुत देर हो चुकी थी।

गहलोत के बाद लगातार दो दिन तक नए अध्यक्ष की तलाश चलती रही। इस बीच नामांकन करने के लिए दिग्विजय सिंह भी भारत जोड़ो यात्रा छोड़कर दिल्ली पहुंच गए। कई दौर की मुलाकात और बैठकों के बाद आखिरकार खड़गे के नाम पर सहमति बनी। खड़गे को अध्यक्ष पद के लिए नामांकन भरने से करीब आठ घंटे पहले बताया गया।

महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (एमडीयू) के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर राजेंद्र शर्मा कहते हैं कि ऐसी स्थिति में देश को पहला दलित प्रधानमंत्री मिल सकता है क्योंकि, खड़गे के नाम पर सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हो सकती है। हालांकि, खड़गे की उम्र इस राह में उनके लिए बड़ी बाधा बन सकती है। इस वक्त उनकी उम्र 80 साल है।

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