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’कौए’ दिखते नहीं, कैसी पूरी होगी श्राद्ध की मान्यता ?

– डॉ. रमेश ठाकुर

श्राद्ध में अब कौवे नहीं दिखाई देते, जबकि भोजन उन्हीं को ध्यान में रखकर बनाया जाता है। सवाल उठता है गुजरे हुए पुरखों तक भोजन पहुंचाने वाले वाहक रूपी ‘कौए‘ ही नहीं होंगे, तो श्राद्धों की मान्यताएं कैसी पूरी होंगी ? शुरू से होता आया है कि श्राद्ध में पितरों का भोजन जबतक कौए नहीं आएंगे, श्राद्ध की परंपरा संपूर्ण नहीं होगी। माना यही जाता रहा है कि कौए आएंगे, खाना चुगेंगे और पितरों तक पहुंचाएंगे। पर, अब कौवे नहीं आते, ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी दिखते हैं लेकिन शहरों से कौवे नहीं दिखाई देते।

श्राद्ध पक्षों से कौवों का सीधा संबंध होता है। पौराणिक मान्यता है कि श्राद्धों में जो व्यंजन बनाए जाते हैं उन्हें पितरों तक पहुंचाने का काम कौए ही करते हैं। श्राद्ध में लोग अपने गुजरे पितरों को भोजन कराने के लिए घरों के छतों, खेतों, चौक-चौराहे पर रखते हैं और कौओं के आने का इंतजार करते हैं। अगर उस खाने को कौआ खा ले, तो समझा जाता है कि उनकी श्राद्ध आस्था पूरी हुई। लेकिन बदलते वक्त के साथ श्राद्ध का भोजन पहुंचाने वाले कौए तकरीबन गुम हो गए हैं।

बदलते वक्त के साथ-साथ श्राद्ध का स्वरूप भी बदल गया। कौओं की जगह श्राद्ध के भोजन पर गली-मोहल्ले के आवारा कुत्ते, भेड़-बकरी आदि जानवर झपट्टा मारते जरूर देखे जाने लगे हैं। मजबूरन अब लोगों ने इन्हीं को कौवों का प्रतिरूप मान लिया है। क्योंकि इसके सिवाए दूसरा कोई विकल्प भी नहीं। लगातार दूषित होते पर्यावरण में पक्षियों की कई प्रजातियां खत्म हो गई हैं, उन्हीं में कौए भी हैं। एक वक्त था, जब घरों के आँगन और मुंडेरों पर कौए और उनकी शगुन भरी कांव-कांव की आवाजें सुनाई देती थीं। कौए दूसरे पक्षियों के मुकाबले तुच्छ माने जाते हैं। पुरानी मान्यताओं में इस बात का जिक्र है कि मरने के पश्चात कौए का शरीर औषधि के तौर पर भी प्रयुक्त किया गया। कौआ छोटे-छोटे जीव एवं अनेक प्रकार की गंदगी खाकर जीवन यापन करता है। मान्यताओं के मुताबिक श्राद्ध पक्षों में इस दुर्लभ पक्षी की भक्ति और विनम्रता से यथाशक्ति भोजन कराने की बात विष्णु पुराण में भी बताई गई है। इसी कारण कौए को पितरों का प्रतीक मानकर श्राद्ध पक्ष के सभी दिनों में भोजन कराया जाता है।

श्राद्ध चल रहे हैं जिनमें कौवा के सिवाए पीपल को भी पितृ प्रतीक माना जाता है। इन दिनों कौए को खाना एवं पीपल को पानी पिलाकर पितरों को तृप्त किया जाता है। मेहमानों के आगमन की सूचना देने वाले कौए की कांव-कांव मानों कहीं खो गई है। एक वक्त वह भी था जब परिवार की महिलाएं शगुन मानकर कौवा को मामा कहकर घर में बुलाया करती थी, तो कभी उसकी बदलती हुई दिशा में कांव-कांव करने को अपशकुन मानते हुए उड़ जा कहके बला टालतीं थीं। इसके अलावा घर की बहुएं कौए के जरिये अपने मायके से किसी के आने का संदेश पाती थीं।

गौरतलब है, बेजुबान पक्षियों की आबादी घटने में मानवीय हिमाकत प्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार है। पक्षियों के रहने और खाने की सभी जगहों को नष्ट कर दिया गया है। पक्षियों के ठिकाने कच्चे घरों की छत हुआ करती थी, वह अब नदारद हैं। पेड़ों पर भी इनका निवास होता था, वह भी लगातार काटे जा रहे हैं। वह वक्त ज्यादा दूर नहीं जब श्राद्ध के अलावा किसी भी मौसम में कोई पक्षी नहीं दिखाई देगा। वर्तमान की आधुनिक सुविधाओं ने इंसानी जीवन को तो सुरक्षित कर दिया है। पर, प्रकृति से छेड़छाड़ और धरती के दोहन ने बेजुबान जीवों का जीवन मुश्किल में डाल दिया। कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के संरक्षक वैज्ञानिक केनेथ रोजेनबर्ग ने कहा भी है कि मोबाइलों टावरों से निकलने वाली रेडिएशन ने पक्षियों को खत्म करने में बड़ी भूमिका निभाई है। विशेषकर कौए, तोते, गिद्ध, गोरिया जैसे अद्भुत पक्षियों को। समूची दुनिया में पक्षियों की आबादी लगभग एक तिहाई खत्म हो चुकी है। ऐसा ही रहा तो वह वक्त दूर नहीं जब हम पक्षी विहीन हो जाएंगे।

सवाल उठता है कौए को बचाया कैसे जाए। सबसे पहले सामाजिक और सरकारी स्तर पर लोगों को जागरूक करना होगा। खेतीबाड़ी में कीटनाशकों के इस्तेमाल से बचना होगा। पक्षियों के उन तमाम प्राकृतिक आवासों को प्रोत्साहित करना होगा जिसके जरिए उनके रहन-सहन को माकूल तौर पर बढ़ावा मिल सके। तमाम ऐसे प्रयास हैं जिनसे पक्षियों की बची हुई प्रजातियों को बचाया जा सकता है। बचपन में देखते थे कि गांव के बाहर या सड़कों के किनारे मरे पड़े जानवरों को गिद्ध और कौए खा जाते थे, लेकिन अब इनके न रहने से जानवर सड़ते रहते हैं। उनकी दुर्गंध दूर-दूर तक फैलती है जिससे उनसे संक्रामक रोग फैलने का खतरा बना रहता है। इस तरह की गंदगी की सफाई के लिए गिद्ध, चील और कौए ही गिने जाते थे।

कौए की भूमिका को संसार नकार नहीं सकता। पर्यावरण संरक्षण की बात हो, या फिर प्रकृति को संतुलित रखने की बात, हर जगह कौए ने अपना महत्वपूर्ण किरदार निभाया। इतना सब होने के बाद भी कौवों के बचाव के लिए कोई उपाय नहीं किए जा रहे हैं। संख्या तेज गति से कम हो रही है। कौए कितने बचे हैं और कितने गायब हो गए हैं, इसकी संख्या और इसका सटीक कारण न सरकार के पास है और न वन विभाग को भनक है। पर्यावरणविद् के अलावा देश के अनगिनत पशु-पक्षी प्रेमी सालों से चिंता जता रहे हैं कि कौआ, चील, गिद्ध, गौरैया, सारस के अलावा तमाम किस्म के भारतीय पक्षी विलुप्त हो रहे हैं। लेकिन कोई ध्यान नहीं दे रहा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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