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किसान आंदोलन तो स्थगित हो गया, एमएसपी गारंटी कानून बनना मुश्किल

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

भाजपा को चुनावों का भय स्वाभाविक था लेकिन हम यह भी न भूलें कि इस किसान आंदोलन को आम जनता का समर्थन नहीं के बराबर था। वास्तव में यह आंदोलन उक्त तीन-चार प्रदेशों के मालदार किसानों का था, जो गेहूं और चावल की सरकारी खरीद पर मालदार बने बैठे हैं।

लगभग साल भर से चल रहा किसान आंदोलन अब स्थगित हो गया है, इस पर किसान तो खुश हैं ही, सरकार उनसे भी ज्यादा खुश है। सरकार को यह भनक लग गई थी कि यदि यह आंदोलन इसी तरह चलता रहा तो उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों में भाजपा को भारी धक्का लग सकता है। यदि उत्तर भारत के इन प्रांतीय चुनावों में भाजपा मात खा जाए तो सबको पता है कि दिल्ली में उसकी गद्दी भी हिल सकती है।

भाजपा का यह भय स्वाभाविक था लेकिन हम यह भी न भूलें कि इस किसान आंदोलन को आम जनता का समर्थन नहीं के बराबर था। वास्तव में यह आंदोलन उक्त तीन-चार प्रदेशों के मालदार किसानों का था, जो गेहूं और चावल की सरकारी खरीद पर मालदार बने बैठे हैं। इन किसानों को छोटे और गरीब किसानों के समर्थन या सहानुभूति का मिलना स्वाभाविक था लेकिन यह मानना पड़ेगा कि किसान नेताओं ने इस आंदोलन को अहिंसक बनाए रखा और इतने लंबे समय तक चलाए रखा। नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। यह वास्तव में भारतीय लोकतंत्र की विजय है। इस आंदोलन के खत्म होने से दिल्ली, हरियाणा और पंजाब की जनता को भी बड़ी राहत मिल रही है। इन प्रदेशों के सीमांत पर डटे तंबुओं ने कई प्रमुख रास्ते रोक दिए थे।

सरकार ने किसानों की मांगों को मोटे तौर पर स्वीकार कर ही लिया है। उसने तीनों कानून वापस ले लिए हैं। मृत किसानों को मुआवजा देना, पराली जलाने पर आपत्ति नहीं करना, बिजली की कीमत पर पुनर्विचार करना, उन पर लगे मुकदमे वापस करना आदि मांगें भी सरकार ने मान ली हैं। सबसे कठिन मुद्दा है— सरकारी समर्थन मूल्य का। इस पर सरकार ने कमेटी बना दी है, जिसमें किसानों का भी समुचित प्रतिनिधित्व रहेगा। यह बहुत ही उलझा हुआ मुद्दा है। अभी तो सरकार बढ़ी हुई कीमतों पर गेहूं और चावल खरीदने का वादा कर रही है लेकिन लाखों टन अनाज सरकारी भंडारों में सड़ता रहता है और करदाताओं के अरबों रु. हर साल बर्बाद होते हैं। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर मालदार किसानों से दो-टूक बात की जानी चाहिए। ताकि उनका नुकसान न हो और सरकार के अरबों रु. भी बर्बाद न हों।

सरकार को सबसे ज्यादा उन 80-90 प्रतिशत किसानों की हालत बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए, जो अपनी खेती के दम पर किसी तरह जिंदा रहते हैं। यह तभी हो सकता है, जबकि सरकार इन किसानों के साथ सीधे संवाद का कोई नया रास्ता निकाले। यह सवाद निर्भीक और किसान-हितकारी तभी हो सकता है, जबकि सरकार के सिर पर प्रांतीय चुनावों के बादल न मंडरा रहे हों। विपक्ष की मजबूरी है कि चुनाव की वेला में हर मुद्दे पर वह सरकार के विरोध को जमकर उकसाए लेकिन विपक्षियों से भी आशा की जाती है कि वे अपनी तात्कालिक लाभ-हानि से अलग हटकर देश के 80-90 प्रतिशत किसानों के हित की बात सोचेंगे।

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