ब्‍लॉगर

खेती की राजनीति या राजनीति की खेती !

– गिरीश्वर मिश्र

पखवाड़े के करीब बीतने को हुए खेती-किसानी के सवालों को लेकर दिल्ली को चारों ओर से घेरकर पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का धरना-आन्दोलन बदस्तूर जारी है। सरकारी पक्ष के साथ पांच-छह दौर की औपचारिक बातचीत में कृषि से जुड़े तीन बिलों के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत चर्चा हुई पर अभीतक बात नहीं बन पाई है। भारत बंद का भी देश में मिलाजुला असर रहा। अब आन्दोलन को और तेज करने और सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश हो रही है। किसान के मन में कृषि के कॉर्पोरेट हाथों में दिये जाने की शंका बनी हुई है। वे प्रस्तावित तीन कानूनों को रद्द करने से कम पर राजी नहीं दिख रहे हैं। सरकार किसानों की मुश्किलों को दूर करने की कोशिश में जुटी है। संशोधनों के साथ जो प्रस्ताव सरकार की ओर से पेश किया गया है, वह किसानों को मंजूर नहीं है।

भारत मुख्यत: कृषि प्रधान देश है परन्तु किसानों का शोषण भारतीय समाज की ऐसी पुरानी दुखती रग है जिसके लिये बहुआयामी सुधारों की जरूरत बहुत दिनों से महसूस की जाती रही है। स्वामीनाथन समिति ने महत्वपूर्ण सुधार सुझाए थे। चूंकि किसान का वोट सरकार बनाने के लिये जरूरी है इसलिए किसान पर हर दल की नजर रहती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसानों को आगे कर जो तर्क दिये जा रहे हैं और व्यवस्था दी जा रही है, वह तथ्यों से परे है। विपक्षी नेताओं के प्रयासों में राजनीति की बंजर पड़ती धरती में फसल उगाने की भी कोशिश साफ झलक रही है। धीरे-धीरे एक-एक कर सारे विपक्षी दल अवसर पहचान कर लग गए। वे तीन नए सुधारों से जुड़े केन्द्रीय सरकार के कानूनों के विरोध में लामबंद हो रहे हैं।

स्वाभाविक है कि मुद्दों के अभाव में खाली हाथ समय बिताते विरोधी दलों के लिये यह अवसर उच्च मानवीय मूल्यों की रक्षा की आड़ में प्राणदायी दिख रहा था। इसलिये वे दल और नेता भी जो कभी खुद इस तरह के बदलाव लाना चाहते थे, ताल ठोंककर मैदान में आकर विरोध में डटने को तत्पर दिख रहे हैं। कुछ किसान भी हैं पर वे दमदार और हर तरह से संपन्न किसान हैं। उनमें ज्यादातर वे हैं जिन्हें खेती के अतिरिक्त और संसाधन भी उपलब्ध हैं। किसी ओर से वे उस व्यापक ग्रामीण जगत का प्रतिनिधित्व करते नहीं दिखते जो भारत के गावों में रहता है। उनमें बहुतों को न कानून का पता है न यही कि वे क्या चाहते हैं और उनकी भलाई किस नीति में है।

किसान नेताओं और सरकार के साथ वाद, विवाद और संवाद की कोशिश में विपक्षी दलों के हाथ बंटाने से पूरे मामले के राजनैतिक आशय प्रकट हो रहे हैं। भारत बंद को कुछ प्रदेशों की कांग्रेसी सरकारों के समर्थन ने इसे जाहिर कर दिया है। साथ ही यह बात भी स्पष्ट हो रही है कि कानूनों को बनाते समय किसानों के साथ जरूरी मशविरा नहीं किया जा सका था और उन्हें विश्वास में नहीं लिया गया था। सरकार किसानों तक अपना पक्ष पहुंचाने में अपेक्षित रूप में सफल नहीं हो सकी। सरकार की रीति-नीति को लेकर जनता के भ्रम जिस तरह बार-बार टूटते रहे हैं उनसे विश्वास और भरोसे की खाई दिनों-दिन बढ़ती गई है। यह भी सच है कि अक्सर विकास की परिकल्पना में कृषि और गाँव हाशिये पर ही रहे हैं।

यह पूरा आन्दोलन राजनीतिक किसानी की अद्भुत मिसाल बन रहा है। सियासत चमकाने के लिये नेतागण किस-किस तरह की युक्तियों का उपयोग कर सकते हैं, सबके सामने आ रहा है। दिल्ली की राह रोकते समृद्ध किसानों के हावभाव को देखकर यही लगता है कि इनको देश की अधिकांश छोटे किसानों की कोई चिंता नहीं। एमएसपी के प्रश्न पर देशहित के बदले स्वार्थ के समर्थन को किसी भी तरह से उचित नहीं माना जा सकता।

गौरतलब है कि इस विकट समय में छोटे किसान आजकल खेत में जुटे हुए हैं। मण्डी में अनाज की पहुंच और बिक्री भी हो रही है। यह भी काबिले गौर है कि आन्दोलनरत हजारों किसानों के भोजन, स्वास्थ्य और मनोरंजन की चुनौती खुद किसान परिवार ही सभाले हुए हैं। पुलिस बल के साथ छोटी-मोटी तकरार के अलावा आन्दोलन पूरी तरह शान्तिपूर्वक चल रहा है। किसान अन्नदाता हैं और भारतीय समाज के मूल आधार हैं। राजनीति के फौरी हानि- लाभ तो हैं पर देश से छोटे हैं। देश की एकता-अखंडता और समृद्धि के लिए किसानों की मुसीबतों का प्राथमिकता से समाधान जरूरी है। खेती रहेगी तभी राजनीति भी हो सकेगी।

(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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