ब्‍लॉगर

कोरोना से जंग में कारगर है खानपान और जीवन शैली में बदलाव

– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

जर्नल सांइटिफिक रिपोर्टस में प्रकाशित हालिया रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकल कर आया है कि गंभीर कोविड की स्थिति में भी विटामिन डी की बदौलत जीवन बचाया जा सकता है। आयरलैंड के ट्रिनिटी कॉलेज, स्काटलैंड की एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी और चीन की झेजियांग यूनिवर्सिटी की एक टीम ने विटामिन डी को जीवन रक्षक के रूप में कारगर माना गया है। दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों ने यह माना है कि विटामिन डी की पूर्ति होने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और अन्य बीमारियों ही नहीं अपितु कोरोना जैसी महामारी से लड़ने में भी इसे कारगर माना गया है।

कोरोना महामारी से बचाव के लिए अन्य कारगर उपायों के साथ ही दुनियाभर के चिकित्सकों ने एक राय से इम्यूनिटी बढ़ाने पर जोर दिया है। कोरोना के इलाज और उसके बाद पोस्ट कोविड में चिकित्सकों ने जो दवाइयां प्राथमिकता से लेने की सलाह दी है या जिन पर जोर दिया है उनमें विटामिन सी, विटामिन डी, जिंक और आयरन प्रमुख है। विटामिन, जिंक और आयरन की कमी को हम घर बैठे अपनी दिनचर्या और खानपान से पूरा कर सकते हैं। पर यह निराशाजनक स्थिति है कि हम महंगी से महंगी दवाएं खाने के लिए तैयार हैं पर अपनी दिनचर्या या खानपान में बदलाव लाने को तैयार नहीं है। यही कारण है कि हमारी केमिकल्स और महंगी दवाओं पर निर्भरता अधिक बढ़ने के साथ ही रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित होने लगी है।

वैसे तो सभी विटामिनों की कमी को खानपान, रहन-सहन के तरीकों से दूर किया जा सकता है। विटामिन डी की कमी को केवल और केवल 20 मिनट धूप में बैठकर पूरा कर सकते हैं। हड्डियों में दर्द, फ्रेक्चर, जल्दी-जल्दी थकान, घाव भरने में देरी, मोटापा, तनाव, अल्जाइमर जैसी बीमारियां आज हमारे जीवन का अंग बन चुकी हैं। शरीर की जीवनी शक्ति या कहें कि प्रकृति से मिलने वाले स्वास्थ्यवर्द्धक उपहारों से हम मुंह मोड़ चुके हैं और नई से नई बीमारियों को आमंत्रित करने में आगे रहते हैं। यह आश्चर्यजनक लेकिन जमीनी हकीकत है कि मात्र पांच प्रतिशत महिलाओं में ही विटामिन डी की पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता है। देश की 68 फीसदी महिलाओं में तो विटामिन डी की अत्यधिक कमी है।

इसी तरह एसोचैम द्वारा पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट में सामने आया है कि 88 फीसदी दिल्लीवासियों में विटामिन डी की कमी है। यह स्थिति दिल्ली में ही नहीं अपितु कमोबेश देश के सभी महानगरों में देखने को मिल जाएगी। इसका कारण या निदान कहीं बाहर ढूंढने के स्थान पर हमें हमारी जीवन शैली में थोड़ा बदलाव करके ही पाया जा सकता है। पर इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आधुनिकता की दौड़ में हम प्रकृति से इस कदर दूर होते जा रहे हैं कि जल, वायु, हवा, धूप, अग्नि और न जाने कितने ही मुफ्त में प्राप्त प्राकृतिक उपहारों का उपयोग ही करना छोड़ दिया है। ऐसा नहीं है कि लोग जानते नहीं है पर जानने के बाद भी आधुनिकता का बोझ इस कदर छाया हुआ है कि हम प्रकृति से दूर होते हुए कृत्रिमता पर आश्रित होते जा रहे हैं। दरअसल हमारी जीवन शैली ही ऐसी होती जा रही है कि प्रकृति की जीवनदायिनी शक्ति से हम दूर होते जा रहे हैं। कुछ तो दिखावे के लिए तो कुछ हमारी सोच व मानसिकता के कारण।

विटामिनों की कमी के कारण हजारों रुपए के केमिकल से बनी दवा तो खाने को हम तैयार हैं पर केवल कुछ समय धूप सेवन या अन्य प्राकृतिक उपायों के लिए समय नहीं निकाल सकते हैं। आज स्कूलों में आयोजित मड उत्सव को तो धूमधाम से मनाने को तैयार हैं पर क्या मजाल जो बच्चे को खुले में खेलने के लिए छोड़ दें। मिट्टी में खेलने और खेलते-खेलते लग जाने पर प्राकृतिक तरीके से ही इलाज भी हो जाता है। तीन से चार दशक पहले कहीं लग जाने पर खून आता तो वहां पर स्वयं का मूत्र विसर्जन करने या मिट्टी की ठीकरी पीस कर लगाने या चोट गहरी हो तो कपड़ा जलाकर भर देने या खून लगातार आ रहा हो तो बीड़ी का कागज लगा देना तात्कालिक और कारगर इलाज होता था। आज जरा-सी चोट लगते ही हम हॉस्पिटल की और भागते हैं। यह सब उस जमाने की बात है जब टिटनेस का सर्वाधिक खतरा होता था।

आज यूरोपीय देश प्रकृति के सत्य को स्वीकार कर प्रकृति की ओर आने लगे हैं। खाना खाने से पहले हाथ धोने की सनातन परंपरा को विदेशी अपनाने लगे हैं। स्कूलों में रेन डे मनाने लगे हैं जबकि बरसात में बच्चा जरा सा भीग जाए तो हम उसके पीछे पड़ जाते हैं। एक जमाना था तब पहली बरसात में क्या बड़े-क्या छोटे नहाकर आनंद लेते थे। यह केवल आनंद की बात नहीं बल्कि गर्मी के कारण हुई भमोरी का प्राकृतिक इलाज भी था। आज हम न जाने कौन-कौन से पाउडरों का प्रयोग करने लगते हैं।

कैलिफोर्निया के टॉरो विश्वविद्यालय के एक अध्ययन में सामने आया है कि दुनिया में बड़ी संख्या में लोगों ने खुले में समय बिताना छोड़ दिया है। बाहर जाते हैं तब दुनिया भर के पाउडर, सनस्क्रीन और ना जाने किस किसका उपयोग करके निकलते है जिससे शरीर को जो प्राकृतिक स्वास्थ्यवर्द्धकता मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पाती है और यही कारण है कि आए दिन बीमारियां जकड़ती रहती है। यहां तक कि नई-नई और गंभीर बीमारियों से ग्रसित होने लगे हैं। ऐसे में अब समय आ गया है जब हम प्रकृति की और लौटें और प्रकृति से सीधा संवाद कायम करें। इसके लिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर साझा प्रयास करने होंगे। यह आज की आवश्यकता भी है तो समय की मांग भी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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