ब्‍लॉगर

यास तूफान का कहर

प्रमोद भार्गव
तौकते चक्रवात का कहर अभी ठंडा भी नहीं पड़ा है कि बंगाल की खाड़ी से उठा चक्रवाती तूफान यास ने पश्चिम बंगाल और ओडिशा में कहर ढाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। मौसम विभाग ने बंगाल की खाड़ी में कम दबाव के चक्रवाती तूफान के संकट की भविष्यवाणी कर दी है। यह तूफान उत्तर-उत्तर पश्चिम की ओर जाएगा तथा 26 मई के आसपास पश्चिम बंगाल-उत्तरी ओड़िशा से टकराएगा। केंद्र सरकार ने इसके मद्देनजर इन दोनों प्रांतों को चेतावनी देते हुए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन बल की तैनातियां शुरू कर दी है। महाराष्ट्र और गुजरात में ‘तौकते’ तूफान के दौरान एनडीआरएफ के जो बल तैनात थे, उन्हें हवाई मार्ग से बंगाल और ओड़िशा भेजा जा रहा है। 110 किमी की रफ्तार से आने वाले इस तूफान का असर आंध्र-प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भी पड़ सकता है। मछुआरों को इस दौरान समुद्र से बाहर निकल आने की सलाह दी गई है। तूफान के साथ तूफान प्रभावित क्षेत्रों में तेज बारिश भी होगी। जिसका आंशिक असर दिल्ली, राजस्थान, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी देखने में आएगा। 
मौसम विभाग की सटीक भविष्यवाणी और आपदा प्रबंधन के समन्वित प्रयासों के बावजूद तूफान तौकते अपना भीषण असर दिखाकर आगे बढ़ गया और अब इसके पीछे-पीछे यास ने दस्तक दे दी। इसके पहले इन दोनों राज्यों के इसी इलाके में बुलबुल और फैनी चक्रवातों ने 2019 में तबाही मचाई थी। भारतीय मौसम विभाग के अनुमान अकसर सही साबित नहीं होते, इसलिए उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं। किंतु अब समझ आ रहा है कि मौसम विभाग आपदा का सटीक अनुमान लगाकर समाज और प्रशासन को आपदा से जूझने की पूर्व तैयारियों में लगाने में समर्थ हो गया है। अन्यथा मध्य मई में आए तूफान तौकते का असर तमिलनाडू, महाराष्ट्र और गुजरात में कहीं ज्यादा देखने में आता। चेतावनी मिलने के साथ ही शासन-प्रशासन और समाज ने जागरूकता व संवेदनशीलता बरतते हुए जान-माल की ज्यादा हानि नहीं होने दी। फेलिन, हुदहुद, तितली, बुलबुल और फैनी चक्रवात से जुड़ी भविष्यवाणियां भी सटीक बैठी थीं।
दरअसल जलवायु परिवर्तन और आधुनिक विकास के कारण देश ही नहीं दुनिया आपदाओं की आशंकाओं से घिरी हुई है। ऐसे में आपदा प्रबंधन की क्षमताओं और संसाधनों को हमेशा सचेत रहने की जरूरत है। उत्तरी हिंद महासागर में आने वाले तूफानों के लिए नाम पहले ही निश्चित कर लिए गए हैं। तौकते का अर्थ छिपकली था, वहीं यास का नामाकरण ओमान ने वहां की स्थानीय बोली के आधार पर रखा है, जिसका अर्थ ‘निराशा’ होता है। अम्फान नाम थाइलैंड ने दिया था। इसका अर्थ थाई भाषा में आसमान होता है। 
हमारे मौसम विज्ञानी सुपर कंप्युटर और डापलर राडार जैसी श्रेष्ठतम तकनीक के माध्यमों से चक्रवात के अनुमानित और वास्तविक रास्ते का मानचित्र एवं उसके भिन्न क्षेत्रों में प्रभाव के चित्र बनाने में भी सफल रहे हैं। तूफान की तीव्रता, हवा की गति और बारिश के अनुमान भी कमोबेश सही साबित हुए। इन अनुमानों को और कारगर बनाने की जरुरत है, जिससे बाढ़, सूखे, भूकंप, आंधी और बवंडरों की पूर्व सूचनाएं मिल सकें और इनसे सामना किया जा सके। साथ ही मौसम विभाग को ऐसी निगरानी प्रणालियां भी विकसित करने की जरूरत है, जिनके मार्फत हर माह और हफ्ते में बरसात होने की राज्य व जिलेबार भविष्यवाणियां की जा सकें। यदि ऐसा मुमकिन हो पाता है तो कृषि का बेहतर नियोजन संभव हो सकेगा। साथ ही अतिवृष्टि या अनावृष्टि के संभावित परिणामों से कारगर ढंग से निपटा जा सकेगा। किसान भी बारिश के अनुपात में फसलें बोने लग जाएंगे। लिहाजा कम या ज्यादा बारिश का नुकसान उठाने से किसान मुक्त हो जाएंगे। मौसम संबंधी उपकरणों के गुणवत्ता व दूरंदेशी होने की इसलिए भी जरूरत है, क्योंकि जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से समुद्रतटीय इलाकों में आबादी भी ज्यादा है और वे आजीविका के लिए समुद्री जीवों पर निर्भर हैं। लिहाजा समुद्री तूफानों का सबसे ज्यादा संकट इसी आबादी को झेलना पड़ता है। इस चक्रवात की सटीक भविष्यवाणी करने में निजी मौसम एजेंसी स्काईमेट कमोबेश नाकाम रही है।
1999 में जब ओडिशा में नीलम तूफान आया था तो हजारों लोग सटीक भविष्यवाणी न होने और आपदा प्रबंधन की कमी के चलते मारे गए थे। 12 अक्टूबर 2013 को उष्णकटिबंधीय चक्रवात फैलिन ने ओडिशा तट पर दस्तक दी थी। अंडमान सागर में कम दबाव के क्षेत्र के रूप में उत्पन्न हुए नीलम ने 9 अक्टूबर को उत्तरी अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पार करते ही एक चक्रवाती तूफान का रूप ले लिया था। इसने सबसे ज्यादा नुकसान ओडिशा और आंध्र प्रदेश में किया था। इस चक्रवात की भीषणता को देखते हुए 6 लाख लोग सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाएं गए थे। तूफान का केंद्र रहे गोपालपुर से तूफानी हवाएं 220 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गुजरी थीं। 2004 में आए सुनामी तूफान का असर सबसे ज्यादा इन्हीं इलाकों में देखा गया था। हालांकि हिंद महासागर से उठे इस तूफान से 14 देश प्रभावित हुए थे। तमिलनाडू में भी इसका असर देखने में आया था। इससे मरने वालों की संख्या करीब 2 लाख 30 हजार थी। भारत के इतिहास में इसे एक बड़ी प्राकृतिक आपदा के रूप में देखा जाता है।
8 और 12 अक्टूबर 2014 में आंध्र एवं ओडिशा में हुदहुद तूफान में भी भयंकर कहर बरपाया था। इसकी दस्तक से इन दोनों राज्यों के लोग सहम गए थे। भारतीय नौसेना एनडीआरएफ ने करीब 4 लाख लोगों को सुरक्षित क्षेत्रों में पहुंचाकर उनके प्राणों की रक्षा की थी। इसलिए इसकी चपेट से केवल छह लोगों की ही मौंतें हुई थीं। हालांकि आंध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा तबाही 1839 में आए कोरिंगा तूफान ने मचाई थी। गोदावरी जिले के कोरिंगा घाट पर समुद्र की 40 फीट ऊंचीं उठी लहरों ने करीब 3 लाख लोगों को निगल लिया था। समुद्र में खड़े 20,000 जहाज कहां विलीन हुए पता ही नहीं चला। 1789 में कोरिंगा से एक और समुद्री तूफान टकराया था, जिसमें लगभग 20,000 लोग मारे गए थे। 
कुदरत के रहस्यों की ज्यादातर जानकारी अभी अधूरी है। जाहिर है, चक्रवात जैसी आपदाओं को हम रोक नहीं सकते, लेकिन उनका सामना या उनके असर को कम करने की दिशा में बहुत कुछ कर सकते हैं। भारत के तमाम इलाके बाढ़, सूखा, भूकंप और तूफानों के लिहाज से बेहद संवेदनशील हैं। जलवायु परिवर्तन और प्रदूषित होते जा रहे पर्यावरण के कारण ये खतरे और इनकी आवृत्ति लगातार बढ़ रही है। कहा भी जा रहा है कि फेलिन, ठाणे, आइला, आईरिन, नीलम सैंडी, अम्फान और तौकते जैसी आपदाएं प्रकृति की बजाय आधुनिक मनुष्य और उसकी प्रकृति विरोधी विकास नीति का पर्याय हैं। उत्तराखंड में तो आधुनिक विकास तबाही की तस्वीर लगातार देखने में आ रही है। हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में भूस्खलन और नदियों में बाढ़ एक सिलसिला बनकर कहर बरपा रही हैं।
गौरतलब है कि 2005 में कैटरीना तूफान के समय अमेरिकी मौसम विभाग ने इस प्रकार के प्रलयंकारी समुद्री तूफान 2080 तक आने की आशंका जताई थी, लेकिन वह सैंडी और नीलम तूफानों के रूप में 2012 में ही आ धमके। 19 साल पहले ओड़िशा में सुनामी से फूटी तबाही के बाद पर्यावरणविदों ने यह तथ्य रेखांकित किया था कि अगर मैग्रोंव वन बचे रहते तो तबाही कम होती। ओड़िशा के तटवर्ती शहर जगतसिंहपुर में एक औद्योगिक परियोजना खड़ी करने के लिए एक लाख 70 हजार से भी ज्यादा मैंग्रोव वृक्ष काट डाले गए थे। दरअसल, जंगल एवं पहाड़ प्राणी जगत के लिए सुरक्षा कवच हैं, इनके विनाश को यदि नीतियों में बदलाव करके नहीं रोका गया तो तय है कि आपदाओं के सिलसिलों को भी रोक पाना मुश्किल होगा ? लिहाजा नदियों के किनारे आवासीय बस्तियों पर रोक और समुद्र तटीय इलाकों में मैंग्रोव के जंगलों का सरंक्षण जरूरी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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