ब्‍लॉगर

‘आधी दुनिया’ के प्रति बढ़ते अपराध

– योगेश कुमार गोयल

महिलाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने और उनके अधिकारों पर चर्चा के लिए प्रतिवर्ष 8 मार्च को ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ मनाया जाता है। इस वर्ष अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की थीम को संयुक्त राष्ट्र की ओर से महिलाओं के नेतृत्व को समर्पित किया गया है। कोरोना काल में सेवाएं देने वाली महिलाओं और लड़कियों के योगदान को रेखांकित करने के लिए इसबार महिला दिवस की थीम ‘महिला नेतृत्व: कोविड-19 की दुनिया में एक समान भविष्य को प्राप्त करना’ है। दरअसल पिछले एक साल से भी अधिक समय कोविड-19 महामारी के कहर से पूरी दुनिया प्रभावित हुई है और इस बुरे दौर में कोरोना योद्धाओं ने मानवीय सेवा की बड़ी मिसाल पेश की। इन्हीं कोरोना योद्धाओं में दुनियाभर में बहुत सारी महिलाओं ने भी न केवल आगे बढ़कर अग्रिम मोर्चे पर सेवाएं दी बल्कि अपनी कुशल नेतृत्व क्षमता का लोहा भी मनवाया।

सोशलिस्ट पार्टी के आह्वान पर सबसे पहला महिला दिवस अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में 28 फरवरी 1909 को एक समाजवादी राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में आयोजित किया गया था। उसके बाद जर्मनी की क्लारा जेडकिंट ने वर्ष 1910 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का विचार रखा। उनका कहना था कि विश्व में प्रत्येक देश की महिलाओं को अपने विचार रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस मनाने की योजना बनानी चाहिए। उसी के बाद एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसमें 17 देशों की कुल सौ महिलाओं ने हिस्सा लेते हुए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने पर सहमति जताई और 19 मार्च 1911 को ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, जर्मनी तथा स्विट्जरलैंड में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। करीब दो वर्ष बाद वर्ष 1913 में इसे 19 मार्च के बजाय 8 मार्च को मनाया जाना निर्धारित कर दिया गया। 1917 में सोवियत संघ द्वारा इस दिन राष्ट्रीय अवकाश घोषित किया गया था। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा पहली बार वर्ष 1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का निर्णय लिया गया और 8 मार्च 1975 से दुनियाभर में यह दिवस प्रतिवर्ष अलग-अलग थीम के साथ मनाया जा रहा है।

पिछले 46 वर्षों से प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस का आयोजन किया जा रहा है लेकिन चिंता की बात यही है कि इतने वर्षों में भी महिलाओं की स्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ है। जब हम महिलाओं के साथ लगातार सामने आती आपराधिक घटनाओं को देखते हैं तो सिर शर्म से झुक जाता है। वर्तमान सदी को महिलाओं के लिए समानता सुनिश्चित करने वाली सदी बनाने का आग्रह करते हुए संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस कह चुके हैं कि न्याय, समानता तथा मानवाधिकारों के लिए लड़ाई तबतक अधूरी है, जबतक महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव जारी है। पूरी दुनिया में भले महिला प्रगति के लिए बड़े-बड़े दावे किए जाते हैं पर हकीकत यही है कि महिला सुरक्षा के लाख दावों के बावजूद उनकी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।

संयुक्त राष्ट्र महिला के आंकड़ों के अनुसार विश्वभर में 15-19 आयु वर्ग की करीब डेढ़ करोड़ किशोर लड़कियां जीवन में कभी न कभी यौन उत्पीड़न का शिकार होती हैं। करीब 35 फीसदी महिलाओं और लड़कियों को अपने जीवनकाल में शारीरिक एवं यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। हिंसा की शिकार 50 फीसदी से अधिक महिलाओं की हत्या उनके परिजनों द्वारा ही की जाती है, वैश्विक स्तर पर मानव तस्करी के शिकार लोगों में 50 फीसदी व्यस्क महिलाएं हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन तीन में से एक महिला किसी न किसी प्रकार की शारीरिक हिंसा का शिकार होती हैं। हाल ही में एक ताजा अध्ययन में एक और चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है, जिसमें 78.4 फीसदी महिलाओं ने स्वीकार किया कि उन्होंने सार्वजनिक स्थल हिंसा झेली है। करीब 68 फीसदी महिलाओं ने माना कि उन्होंने सार्वजनिक परिवहन में सफर करते समय हिंसा का अनुभव किया और इनमें से 38.5 फीसदी महिलाएं ऐसी हिंसा चुपचाप सह गई क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उन्हें क्या करना है।

महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों को इसी से समझा जा सकता है कि महिला सुरक्षा के लिए बने तमाम कानूनों के बावजूद अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे महिला पुलिसकर्मियों तक से छेड़छाड़ और उन पर हमला करने से भी नहीं डरते। 3 मार्च 2021 को दिल्ली के द्वारका इलाके में चलती बस में एक युवक में 29 वर्षीया महिला कांस्टेबल से छेड़छाड़ शुरू कर दी लेकिन कांस्टेबल द्वारा विरोध करने और पुलिस में शिकायत करने की धमकी देने पर युवक महिला कांस्टेबल के सिर पर हेलमेट से वार कर बस से कूदकर फरार हो गया। हाल ही में राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में महिला अपराध के एक नृशंस मामले में जमानत पर बाहर आए दुष्कर्म के एक आरोपी ने पीड़िता को हत्या के इरादे से जिंदा जलाने का प्रयास किया। हादसे में पीड़िता 70 फीसदी तक झुलस गई और उसकी हालत गंभीर बनी हुई है। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गत दिनों 12 वर्षीया बच्ची को बलात्कारी ने रेप के बाद मारकर अपने घर में गाड़ दिया। बच्ची अपने खेत में खाना खाने के बाद उसके घर पानी मांगने गई थी लेकिन उस बेचारी को क्या पता था कि उसे पानी नहीं बल्कि उसके बदले ऐसी दर्दनाक मौत मिलेगी। बिहार के सीतामढ़ी जिले के एक गांव में गांव के ही रहने वाले चार दबंग युवकों ने नाबालिग लड़की का अपहरण कर उसके साथ रेप किया और जघन्य वारदात की वीडियो बनाकर उसे सोशल मीडिया में वायरल कर दिया। हैरानी की बात यह कि पुलिस द्वारा इस मामले में करीब एक सप्ताह बाद कदम उठाया गया।

समूची मानवता को शर्मसार करती ऐसी घटनाएं सिस्टम पर भी गंभीर सवाल खड़े करती हैं। ऐसी कोई भी वीभत्स घटना सामने आने के बाद हर बार एक ही सवाल खड़ा होता है कि आखिर भारतीय समाज में कब और कैसे मिलेगी महिलाओं को सुरक्षा? कब तक महिलाएं घर से बाहर कदम रखने के बाद इसी प्रकार भय के साये में जीने को विवश रहेंगी? निर्भया कांड के बाद कानूनों में सख्ती, महिला सुरक्षा के नाम पर कई तरह के कदम उठाने और समाज में आधी दुनिया के आत्मसम्मान को लेकर बढ़ती संवेदनशीलता के बावजूद आखिर ऐसे क्या कारण हैं कि बलात्कार के मामले हों या छेड़छाड़ अथवा मर्यादा हनन या फिर अपहरण अथवा क्रूरता, ‘आधी दुनिया’ के प्रति अपराधों का सिलसिला थम नहीं रहा? इसका एक बड़ा कारण तो यही है कि कड़े कानूनों के बावजूद असामाजिक तत्वों पर कड़ी कार्रवाई नहीं होती। हैदराबाद की बेटी दिशा का मामला हो या उन्नाव पीड़िता का अथवा हाथरस या बुलंदशहर की बेटियों का, लगातार सामने आते इस तरह के तमाम मामलों से स्पष्ट है कि केवल कानून कड़े कर देने से ही महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध थमने वाले नहीं हैं। इसके लिए सबसे जरूरी है कि तमाम सरकारें प्रशासनिक मशीनरी को चुस्त-दुरूस्त करने के साथ ऐसे अपराधों के लिए प्रशासन की जवाबदेही सुनिश्चित करें। इन मामलों में कोताही बरतने वाले जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाए जाएं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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