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लता मंगेशकर: विदा होना मां का

– आर.के. सिन्हा

लता मंगेशकर का शरीर पूरा हो गया। सरस्वती पूजा के दूसरे दिन माँ विदा हो गईं। लगता है जैसे माँ सरस्वती इस बार अपनी सबसे प्रिय पुत्री को ले जाने स्वयं आयी थीं। लता मंगेशकर का हमारे बीच न रहने का मतलब है कि वाग्देवी की एक वरद लौ बुझ चुकी है। लता माता ने अपने निर्दोष सुरों से भारतीय संगीत वांग्मय को समृद्ध बनाया। उन्होंने हमें भाव कातर, अहिंसक, रचनात्मक और आशावान बनाने में मदद की। उनकी साधना आत्म यज्ञ की तरह थी।

सुर कोकिला लता मंगेशकर किम्वदंती का पर्याय बन चुकी थीं। उनके गीतों के कद्रदान दुनिया भर में मौजूद हैं। जितनी लोकप्रिय वे अपने देश में थीं, उतनी ही लोकप्रियता उन्हें सरहद पर पाकिस्तान में भी मिली। उनकी आवाज़ और गायकी की खुबसूरती है कि पर्दे पर कमसिन नायिकाओं की शोखी, चंचलता, अल्हड़पन व रूठने-मनाने को अभिव्यक्त करने में जितनी जीवंतता महसूस की जाती है, उतना ही भावप्रवणता मां-बहनों के किरदारों पर फिल्माये गानों में देखने को भी मिलती है।

क्या भारत भूल सकता है
27 जनवरी,1963 को। उस दिन दिल्ली में लता मंगेशकर ने नेशनल स्टेडियम में जब अपना अमर गीत गाया तो हजारों लोग रो रहे थे। वहां चीन के साथ हुई जंग में शहीद हुए जवानों की याद में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। उस जंग के परिणामों के कारण देश हताश था। लता मंगेशकर ने जैसे ही ‘ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी…” गया तो वहां उपस्थित अपार जनसमूह के साथ-साथ प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की आँखें भी नम हो गयी थीं।

ख़ालिस हिन्दी गीत के तौर पर “ज्योति कलश छलके” जैसे कालजयी प्रस्तुति है तो “ऐ मालिक तेरे बंदे हम” जैसे गीत निराशा के क्षणों में गहन अंधकार से निकलने की रौशनी देता है। गांधीवादी जीवन दर्शन का प्रभाव इसकी प्रस्तुति में झलकती है। यह गीत चेतना को स्पंदित कर आश्वस्ति का भाव जगाता है। अध्यात्म के स्तर पर परंपरागत जीवन मूल्य-बोध का असर के बावजूद आशावाद को ज़िंदा रखने का पाठ है।

ऐसे स्वच्छ निर्मल मन के व्यक्तित्व दुर्लभ होते हैं जैसे लता जी थी। संस्कृत के श्लोकों का गायन हो या रामचरितमानस का गायन हो या उर्दू की गजल हो या बांगला का कोई गीत हो, वे एक समान सहजता से सुमधुर स्वर में गाकर श्रोताओं को कुछ क्षणों में उसी स्वप्नलोक में पहुंचा देती थी।

वे अपने स्वर के साथ सदैव हमारे पास अमर रहेंगी, समय कोई भी आये। उनके स्वर कभी नहीं लडखड़ाये, उनकी आवाज में वही ताजगी थी जो किसी बच्चे की आवाज में होती है, यह उनके शुद्ध चरित्र और निर्मल मन की स्वामिनी थी। उनकी प्रशंसा और श्रद्धांजलि में शब्द नहीं मिल रहे।

मृत्यु सदैव शोक का विषय नहीं होती। मृत्यु जीवन की पूर्णता है। लता जी का जीवन जितना सुन्दर रहा है, उनकी मृत्यु भी उतनी ही सुन्दर हुई है। उनके जैसा सुन्दर और धार्मिक जीवन विरलों को ही प्राप्त होता है। लगभग पाँच पीढ़ियों ने उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुना है और हृदय से सम्मान दिया है।

उनके पिता ने जब अपने अंतिम समय में घर की बागडोर उनके हाथों में थमाई थी, तब उस तेरह वर्ष की नन्ही जान के कंधे पर छोटे-छोटे चार बहन-भाइयों के पालन की जिम्मेवारी थी। लता जी ने अपना समस्त जीवन उन चारों को ही समर्पित कर दिया। और अब जब वे गयी हैं तो उनका परिवार भारत के सबसे सम्मानित प्रतिष्ठित परिवारों में से एक है। किसी भी व्यक्ति का जीवन इससे अधिक सफल क्या होगा?

लता मंगेशकर की पवित्र शख्सियत का ही परिणाम था कि आजाद भारत के सभी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री उनसे आदर भाव से मिलते थे। उनका कद देश के किसी भी नागरिक से बड़ा था। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से लेकर मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेन्द्र मोदी से उनके निजी संबंध थे।

वह जब राज्यसभा सदस्य थीं तब ही उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया था। यह बात साल 2001 की है। उन्हें पद्म भूषण 1969 में, पद्म विभूषण 1999 में और दादा साहेब फाल्के पुरस्कार 1989 में मिल गया था। जाहिर है, वह इन सब पुरस्कारों को लेने के लिए भी राजधानी आती रहीं।

लता मंगेशकर ने 1983 में राजधानी के इंद्रप्रस्थ स्टेडियम में अपने पसंदीदा गीत सुनाकर दिल्ली को कृतज्ञ किया था। उस कार्यक्रम का आयोजन भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने किया था ताकि कपिल देव के नेतृत्व में वर्ल्ड कप क्रिकेट चैंपियन बनी भारतीय टीम के खिलाड़ियों को पुरस्कृत किया जा सके। लता जी ने यहां कार्यक्रम पेश करने के बदले एक पैसा नहीं लिया था। उस कार्यक्रम में उन्होंने- रहें ना रहें हम महका करेंगे… – ऐ मालिक तेरे बंदे हम… अजीब दास्तां है ये… मेरी आवाज ही पहचान है… आज फिर जीने की तमन्ना है… जैसे अपने अमर गीत सुनाए थे। इस बीच, जबसे उनका राज्यसभा का कार्यकाल 2005 में समाप्त हुआ तो फिर वह संभवत: इधर नहीं आईं।

कितना अद्भुत संयोग है कि अपने लगभग सत्तर वर्ष के गायन कैरियर में लगभग 36 भाषाओं में हर रस/भाव के 50 हजार से भी अधिक गीत गाने वाली लता जी ने अपना पहले और अंतिम हिन्दी फिल्मी गीत के रूप में भगवान का भजन ही गाया है। ‘ज्योति कलश छलके’ से ‘दाता सुन ले’ तक की यात्रा का सौंदर्य यही है कि लता जी न कभी अपने कर्तव्य से डिगीं न अपने धर्म से! इस महान यात्रा के पूर्ण होने पर हमारा रोम-रोम आपको प्रणाम करता है लता जी। हम जितना चाहें इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमने अपने जीवनकाल में लता मंगेशकर को देखा-सुना है।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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