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शाहरुख, सुशांत और राजनीति पर खुलकर बोले मनोज बाजपेयी, बताए पर्सनल लाइफ से जुड़े किस्से

मुंबई (Mumbai) । बड़े- बड़े कलाकर (artist) जब स्क्रीन पर इस एक्टर (actor) के सामने आते हैं तो फेल हो जाते हैं. अब आप सोच रहे होंगे कि हम किसकी बात कर रहे हैं. तो आपको बता दें कि हम मनोज बाजपेयी (Manoj Bajpayee) की बात कर रहे हैं. मीडिया के एक शो ‘सीधी बात’ पर मनोज बाजपेयी ने फिल्म, नेपोटिज्म, पॉलिटिक्स और ओटीटी प्लेटफॉर्म पर खुलकर बात की. साथ ही कुछ पर्सनल लाइफ अपडेट्स भी दिए.

‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ पर कही ये बात
‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ फिल्म पर मनोज ने बात की. उन्होंने बताया कि यह फिल्म आसाराम बापू पर आधारित नहीं है. जब कहानी मुझे बताई गई, जब स्क्रिप्ट लिखी गई तो किसी एक खास व्यक्ति की जीवनी हमारे दिमाग में नहीं थी. पर हां, सोलंकी साहब का जो किरदार मैं कर रहा हूं तो उनका नाम इस्तेमाल करने के लिए उन्होंने हमे इजाजत दे दी थी तो फिल्म में बस वो नाम लिया गया है. फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है. फिल्म थिएटर्स में नहीं, ओटीटी पर आ रही है.


ओटीटी बहुत अच्छा माध्यम
ओटीटी सिर्फ एक प्लेटफॉर्म नहीं है. सिनेमा के अलावा मनोरंजन का एक अलग माध्यम है. कहानियां वहां ज्यादा से ज्यादा और अच्छी कहानियां वह दिखा सकता है. कई लोगों को वह कारोबार दे रहा है. टैलेंटेड लोगों की ओटीटी के जरिए हमारी इंडस्ट्री में एंट्री हो रही है. ओटीटी में काम बढ़ रहा है. लोगों को काम मिला है. सबकुछ अब ओटीटी पर मिल रहा है. ऐसे में लोगों ने थिएटर्स भी जाना कम कर दिया है. क्योंकि लोगों को एक आराम मिल गया है, वह भी घर पर बैठकर मूवी एन्जॉय करने का. वैसे देखा जाए तो ओटीटी के कॉन्टेंट में भी काफी बदलाव हुआ है. कहानियों को और रिफाइन करके दिखाया जाने लगा है.

सिनेमा का क्या भविष्य है?
ओटीटी और थिएटर दोनों ही समान रूप से भविष्य में चल रहे होंगे, ऐसा मेरा मानना है. ओटीटी की अलग ऑडियन्स है. थिएटर की अलग. मैं चाहता हूं कि सिनेमा बड़े, लेकिन उसके लिए लोगों को सिनेमा से जुड़ना होगा. सिनेमा को अगर लोगों से जुड़ना है जो ज्यादा से ज्यादा जनता तक इसे पहुंचाना होगा.

खुद को बताया आम इंसान
मैं सेलिब्रिटी की एलीट क्लास से रिलेट नहीं कर पाता हूं. वहां तक जाने के लिए मुझे उस तरह का बनना पड़ेगा. मुझे नहीं लगता कि मैं अब कुछ और हो सकता हूं. मैं जहां से आया हूं, वहीं का रहना चाहता हूं. मैं अपने आप को बदलना नहीं चाहता. उस श्रेणी में मैं नहीं आना चाहता. मैं फिल्मी जगत का हिस्सा हूं. इसके बीच में नहीं खड़ा हूं. मैं एक साधारण इंसान हूं, मैं उसी में खुश हूं.

मैं बॉक्स ऑफिस के सहारे नहीं
मैं हमेशा चाहता था और चाहता हूं कि सिनेमा में काबिलियत पर काम मिले. हमेशा बॉक्स ऑफिस, बॉक्स ऑफिस न करें. मैं अगर खुद को देखूं तो 30 साल के करियर में मेरी सबसे ज्यादा बुरी रही हैं. मेरी फिल्में सबसे ज्यादा फ्लॉप रही हैं. मैं बॉक्स ऑफिस नंबर की वजह से यहां सिनेमा में नहीं हूं. मैं इसलिए यहां टिका हुआ हूं क्योंकि मुझे अच्छी फिल्में मिलीं (कहीं न कहीं), मुझे अच्छा काम मिला. अच्छे लोगों के साथ काम करने का मौका मिला. जब तक मुझे फिल्में मिलती रहेंगी तो मैं काम करता रहूंगा. इस इंडस्ट्री से जुड़ा रहूंगा.

फिल्मों का चुनाव कैसे करते हैं?
मुझे इन्डिपेंडेट पैरलल सिनेमा से बहुत प्यार है. जब सिनेमा इजाद हुआ तो हमारे दिमाग में यह नहीं था कि इससे बहुत पैसा कमाया जाएगा. यह कहानी बताने का माध्यम बना था. मैं चाहता हूं कि अच्छी कहानियां बनें. मैं सिर्फ पैसों के लिए काम नहीं करता. मैं एक्सप्रेशन और स्टोरीटेलिंग दोनों के लिए काम करता हूं. हालांकि, इन दोनों के बीच का बैलेंस आज के समय में खत्म हो चुका है, पर मेरे लिए सिनेमा का मतलब है किरदार निभाना. जिस किरदार को निभाने से मुझे बल मिले, डायरेक्टर मेरे काम को टैलेंट की तरह देखे, मैं उस तरह काम करना पसंद करता हूं. जो किरदार मैं करता हूं उसमें बहुत मेहनत लगती हैं. मैं वो करता हूं. जब फिल्म इंटरनेशन लेवल पर दिखाई जाती है और परफॉर्मेंस की वहां सराहना मिलती है तो वह बात मेरे लिए बहुत बड़ी है. मुझे बहुत खुशी मिलती है.

फिल्म पैसों के लिए या अपने संतोष के लिए?
मैं कमर्शियल फिल्में करता रहा हूं. आगे भी करूंगा. मैं जिन फिल्मों के लिए सोचता हूं कि यह मेरी तरह की है तो उसे मैं करूंगा. जो किरदार जनता से जुड़ा हो, मैं वो करूंगा. पैसा बहुत जरूरी चीज है, लेकिन उसकी सीमा तो मुझे समझनी पड़ेगी. कि कितना पैसा. तो क्या मैं अपने टैलेंटे को पैसे से तोलूं, नहीं. मैं अगर देखता हूं कि मार्केट में रहने के लिए मुझे कुछ काम करना होगा तो मैं फिल्म करता हूं. कुछ फिल्में मैं खुद के लिए करता हूं जो कमर्शियल नहीं होतीं.

मैं कुछ मिनट के रोल करना पसंद नहीं करता हूं. मैं अगर कमर्शियल फिल्मों में गया तो रोल वही होगा जो मुख्य नायक का होगा. पोस्टर पर भी मैं रहूंगा तो ही रहूंगा उस कमर्शियल फिल्म में. वरना नहीं करूंगा. आप इसे ईगो कह सकते हैं.

एक फिल्म का कितना पैसा ले रहे हैं?
इस सवाल पर मनोज ‘आती रहेंगी बहारें’ गाना गुनगुनाने लगते हैं. मनोज ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया.

मुंबई में पहली पार्टी
दोस्त सौरभ शुक्ला के साथ मनोज जब मुंबई गए तो उन्होंने वहां पहली पार्टी की. जब मैं मुखर्जी नगर, दिल्ली में रहता था तो वहां हमारे यहां दो न्यूजपेपर आते थे. एक जिसने बांधा हुआ ता और बाकी एक सबके लिए. न्यूजपेपर की दो चीजें की जाती थीं. एक मुर्गा खरीदा जाता था. और एक ओल्ड मंक की मिल्ट्री कैंटीन से बोतल मंगाई जाती थी. हम सभी मिलकर खाना बनाते थे. फिर सारे बैठकर टैरेस पर खाते-पीते थे. इतने अनुभव के बाद वो आनंद आजतक नहीं आया.

14 साल से रात का खाना नहीं खाया
मेरे दादा जी की मृत्यू 94-95 साल की उम्र में हुई. रोज सुबह 4 बजे उठकर पूजा-पाठ करते थे. शाम में 6 बजे खाना खा लेते थे और फिर कुछ नहीं खाते थे. मैं कई डायटीशियन्स के पास गया. वजन बढ़ रहा है. नींद ठीक से नहीं आ रही है. पर फिर मैंने बाबा का रूटीन ट्राय करना शुरू किया. दो हफ्ते मैंने यही किया. शाम 6 बजे खाना खाकर बैठ जाता था. मैंने उस दौरान शराब का सेवन भी छोड़ दिया. तब जाकर मेरा वजन कम होना शुरू हुआ और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक हुआ. डॉक्टर से मिला तो उन्होंने बताया कि अगर हर व्यक्ति रात का खाना छोड़ दे तो उसकी आधे से ज्यादा बीमारियां ठीक हो जाएंगी.

पहली अमिताभ संग फिल्म ‘अक्स’
अमिताभ बच्चन के साथ मेरा फैन बॉय मोमेंट नहीं था. मैंने एक एक्टर की तरह उनके साथ काम किया. मैंने अमिताभ जी के साथ काम किया, वह अबतक के शानदार को-स्टार रहे. उनके जितना बड़ा को-स्टार अबतक मेरे लिए कोई हुआ नहीं. गांव से भागकर मैं एक एक्टर बनना चाहता था. जब मुझे अमिताभ संग काम करने का मौका मिला तो मैं अच्छा काम करना चाहता था. उनकी छांव में नहीं रहना चाहता था. मैंने फिल्म में सिर्फ अपना टैलेंट दिखाया. मैंने अपना काम 200 फीसदी सही करने का सोचा और उनके साथ काम करना अच्छा सफर रहा.

शाहरुख और मनोज बैचमेट रहे
शाहरुख के साथ मैंने ‘वीर जारा’ में काम किया. हम दोनों की ट्रैक इंडस्ट्री में अलग रहा है. हम दोनों का फिल्मों को चुनने का जॉनर भी अलग है. मैं जहां तक जा सकता था, मैं वहां तक आया. मुझे अपनी यात्रा पर गर्व है. पर साथ ही शाहरुख के लिए दिल में बहुत सम्मान भी है. उसने बहुत झेला है. उसने क्या-क्या बनाया, कैसे-कैसे बनाया. जिस हालत में था वो वहां से निकलकर अपने लिए यह मुकाम हासिल करना, यह बहुत बड़ी बात है. शाहरुख बहुत हार्डवर्किंग है. मैं आज भी शाहरुख के लिए दिल से दुआएं निकालता हूं. जो चीज वो चाहता था, उसे पाने के लिए शाहरुख ने अपनी हड्डियां तक तोड़ीं.

आउटसाइडर कहता है तो अच्छा लगता है
शाहरुख खान आउटसाइडर है, पर उसने जो अपनी जगह बनाई बहुत बड़ी है. उसके साथ सब बैठना-उठना चाहते हैं. पर मेरी लिए ये दुनिया अलग है. मुझे अच्छा लगता है जू लोग मुझे एक आउटसाइडर कहकर बुलाते हैं. मेरा रास्ता एकदम अलग है. फिल्म इंडस्ट्री में हूं लेकिन मैंने अपनी राह बनाई. परिवावाद का शिकार मैं नहीं हुआ हूं क्योंकि जिस तरह का रोल मैं करता हूं वो उस तरह के रोल नहीं कर सकते जो मैंने किए. मेरे तरीके की फिल्में स्टार नहीं बनाती. हम जैसे लोग जो बाहर से आए हैं वो नेपोटिज्म को मन से लगाना थोड़ा बंद कर दें. जो लोग बाहर से आ रहे हैं, उनका परिवार या उनके माता-पिता एक ही चीज है वो है उनकी काबिलियत. अगर आपके अंदर टैलेंट नहीं है और नेपोटिज्म, नेपोटिज्म चिल्लाएंगे तो आपका कुछ नहीं हो सकता. काम सीखकर मुझे काम मिला है. आपको सिनेमा में काम नहीं मिल रहा तो आप थिएटर करिए. नेपोटिज्म बहुत सालों से है. पर बार-बार इसे एक्स्क्यूज बनाकर खुद की पीड़ा को बताया, वह चीज गलत है.

सुशांत राजनीति का शिकार हुआ
सुशांत को मानसिक तौर पर कई चीजें परेशान कर रही थीं. वो मेरे से डिसकस करता था. जिस तरह का एक्टर वो बनना चाहता था, वहां जाने के लिए बहुत सारी पॉलिटिक्स से गुजरना पड़ेगा. उस पोजीशन को लेने के लिए बहुत राजनीति होती है तो सुशांत वह नहीं झेल पा रहा था. पर यह राजनीति उसको सहन करने की शक्ति नहीं थी. वह सहन नहीं कर पाया. वह बच्चा था. इसलिए आगे की चीजें हुईं. अगर आप मेरी बात करेंगे तो मैं मोटी चमड़ी का आदमी हूं. मुझे वहां तक नहीं जाना है, जहां राजनीति हो रही हो.

राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं
मेरी राजनीति में कोई इच्छा नहीं. मेरे पिता और बाबा दोनों जनसंघ की पार्टी से रहे, पर मैं 18 साल की उम्र से एक्टर ही बनना चाहता था. मैं पेरेंट्स से दूर था. मेरे लिए यह ड्रॉबैक रहा कि मैंने अपने माता-पिता को बूढ़ा होते नहीं देखा. मुझे यह सोचकर बहुत खराब महसूस होता है. मैं पेरेंट्स को बूढ़े होते देखना चाहता था. राजमीति में जाने का पहले भी नहीं था. आज भी नहीं है. मीडिया मुझे बेतिया की सीट से न जाने कितनी बार खड़ी कर चुकी है. पर सच बात यह है कि भाई, सिनेमा छोड़कर मैं कहीं नहीं जा रहा हूं. मोदी जी भी कहेंगे तो मैं माफी मांग लूंगा. मैं नहीं कर पाऊंगा. जो व्यक्ति बेतिया से जीत रहा है सीट, वो मेरा क्लासमेट रहा है. मैं बस पर्दे पर राजनीति का रोल कर सकता हूं, पर रियल लाइफ में नहीं.

अपूर्व ने बताया फिल्म की कहानी में क्या खास था
‘सिर्फ एक बंदा काफी है’ फिल्म विवादों से घिरी है. आसाराम बापू के समर्थक फिल्म को घेर रहे हैं. मनोज ने अपना पल्ला झाड़ते हुए फिल्म के डायरेक्टर अपूर्व पर बात डाल दी. अपूर्व ने कहा कि जब मुझे कहानी बताई गई तो मुजे यह टॉपिक बहुत सेंसिटिव लगा. जब फिल्म में माइनर की स्टोरी बताई तो मुझे लगा कि लोगों तक यह कहानी पहुंचनी ही पहुंचनी चाहिए. इसलिए मैंने यह फिल्म बनाई.

मनोज ने कहा कि मैं एक नए डायरेक्टर के साथ काम करना चाहता था. मुझे अपूर्व मिले. इन्होंने मुझे कहानी बताई तो मैं इसे करने के लिए तैयार हो गया. बता दें कि अपूर्व की यह पहली फिल्म है.

अपूर्व ने कहा कि मैंने अच्छी भावना से फिल्म बनाई है. मैंने स्पेशली ध्यान रका है कि किसी की भावनाओं को आहत हम न करें. आसाराम बापू पर वह फिल्म है ही नहीं. पब्लिक डोमेन में है फिल्म. सच्ची घटना पर आधारित है. फिल्म देखिए आप, इसके बाद लोगों को पता चलेगा कि आसाराम बापू पर यह है या नहीं.

साहित्य से जुड़े हैं मनोज
फिल्म में मनोज ने बताया कि दिनकर जी की एक कविता रखी गई है. उससे मेरा कुछ लेना-देना नहीं. पर हां मैं वह कविता यहां बोल सकता हूं. मनोज ने कविता सुनाई.

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