ब्‍लॉगर

अब सरकार पर ‘किसान संसद’ का दबाव

सियाराम पांडेय ‘शांत’

दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसान आंदोलन दम तोड़ रहा था। मीडिया में उसे पहले जैसी तवज्जो नहीं मिल पा रही थी। यह आंदोलन अब किसान केंद्रित कम, नेता केंद्रित ज्यादा हो गया था। ऐसे में संसद के मानसून सत्र के साथ ही दिल्ली में जंतर-मंतर पर किसान संसद का आयोजन कर आंदोलन की बागडोर संभाल रहे किसानों ने एकबार फिर देश का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा की है।किसानों की अपनी जिद है कि वे वर्ष 2024 के अगले संसदीय चुनाव तक इस कानून को लेकर आंदोलन करते रहेंगे। शायद यही वजह है कि दिल्ली में जंतर-मंतर पर किसानों की संसद चल रही है।

वास्तविक संसद में तो दो सदन हैं। जहां पक्ष भी है और विपक्ष भी है लेकिन किसानों की इस संसद में विपक्ष के लिए कोई जगह नहीं है। इस संसद का एक ही उद्देश्य है कि 20 और 22 सितंबर, 2020 को जो तीन नए कृषि सुधार बिल पारित किए गए हैं, सरकार उन्हें वापस ले। संसद में तो दुनिया-जहान के मुद्दे हैं लेकिन यहां एक ही मुद्दा है। संसद से कुछ ही दूर आयोजित इस किसान संसद में 200 किसान भाग ले रहे हैं। 9 अगस्त तक किसान संसद का यह सिलसिला चलेगा। जब से किसान आंदोलन की दिल्ली बॉर्डर से शुरुआत हुई है, तब से संसद का तीसरा सत्र चल रहा है। शीत सत्र, ग्रीष्म सत्र और अब मानसून सत्र लेकिन दिल्ली बॉर्डर पर किसान अब भी जमे हैं। भले ही अब उनमें पहले जैसा उत्साह न हो, उतनी संख्या न हो, वैसा लंगर और भंडारा अब न हो लेकिन उनके तंबू-कनात वैसे ही लगे हुए हैं। किसानों के आंदोलन के चलते गाजियाबाद और दिल्ली बॉर्डर के पास के गांवों के लोगों की दिक्कतें यथावत हैं।

सरकार दर्जनाधिक बार किसान नेताओं से से बात कर चुकी है लेकिन बातचीत किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी। एकबार फिर केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों की आश्वस्त किया है कि सरकार किसान नेताओं से बातचीत के लिए तैयार है। अगर वे कृषि कानून की कमियां बता सकें तो वह उसमें संशोधान-परिमार्जन के लिए भी तैयार है। किसानों के मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में हंगामा हो रहा है। सदन की कार्यवाही स्थगित करनी पड़ रही है।

भाकियू नेता राकेश टिकैत ने किसानों की ट्रैक्टर परेड से पहले कहा था कि दिल्ली ट्रैक्टर की ही भाषा समझती है और 26 जनवरी की किसानों की ट्रैक्टर परेड में उपद्रवी किसानों ने जो कुछ भी किया, यह किसी से छिपा नहीं है। लाल किले की प्राचीर से भारतीय तिरंगा तक उतारकर वहां खालिस्तानी झंडा लहरा दिया। निहंगों ने तो तलवार से कई लोगों को घायल भी किया। ट्रैक्टर से लोगों की कुचलने की कोशिश भी की गई। इस क्रम में ट्रैक्टर पलटने से ट्रैक्टर चालक की मौत हो गई। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने धैर्य का परिचय दिया। पूरे मामले को शांतिपूर्वक संभाला।

इस देश में दो ही नारे लगते रहे हैं-जय जवान और जय किसान। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में इस नारे के साथ जय विज्ञान भी जुड़ गया है। केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की मानें तो देशभर का किसान तीनों नए कृषि सुधारों का समर्थन कर रहा है। सवाल है कि अगर यह सच है तो दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन कर रहे लोग कौन हैं? भाजपा नेत्री और मंत्री मीनाक्षी लेखी ने तो उन्हें मवाली तक कह दिया। उनकी मानें तो असली किसान तो अपने खेतों में काम कर रहा है। यह और बात है कि विपक्ष के प्रतिरोध पर उन्हें अपनी टिप्पणी को वापस लेना पड़ा। किसी भी किसान नेता को मवाली बताना लोकतांत्रिक मर्यादाओं के अनुरूप नहीं है। इससे बचा जाना चाहिए।

किसान नेताओं की मानें तो किसान संसद के आयोजन का मकसद सरकार को यह संदेश देना है कि उनका आंदोलन अभी जिंदा है। वे केंद्र सरकार को यह संदेश देना चाहते हैं कि संसद चलाना वे भी जानते हैं। राकेश टिकैत ने तो यहां तक कहा कि जनता को किसी भी व्यक्ति को इतनी ताकत नहीं देनी चाहिए। उनका इशारा था कि देश में अब त्रिशंकु संसद का ही गठन होना चाहिए। अल्पमत की सरकार बननी चाहिए। उनका मानना है कि सांसद चाहे विपक्षी दल का हो या सत्तापक्ष का, उन्हें संसद में किसानों की आवाज उठानी चाहिए। जो सांसद ऐसा नहीं करेगा, उसके निर्वाचन क्षेत्र में किसान अपनी आवाज बुलंद करेंगे और उनका विरोध करेंगे। यह खुली चेतावनी है और यह शोभनीय हरगिज नहीं है।

किसानों की इस संसद की वजह से 5 हजार सुरक्षाकर्मियों को नई दिल्ली में तैनात करना पड़ा है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल और त्वरित कार्रवाई बल की कई कंपनियां जंतर-मंतर पर तैनात करनी पड़ी है। इलाके में सीसीटीवी कैमरे लगाने पड़े हैं। यह सब इसलिए कि किसान आंदोलित होकर गणतंत्र दिवस की घटना को न दोहरा सकें। वैसे भी गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय राजधानी में प्रदर्शनकारी किसानों की ट्रैक्टर रैली के दौरान हुई हिंसा के बाद यह पहला मौका है जब अधिकारियों ने किसान संघों को शहर के अंदर प्रदर्शन करने की अनुमति दी है। किसान संघों को संसद आयोजित करने या आंदोलन करने का पूरा हक है लेकिन उन्हें यह भी सोचना होगा कि आजादी के बाद से नरेंद्र मोदी की सरकार बनने तक यानी कि 2014 तक किसानों के हित में क्या हुआ था और अब क्या हुआ या हो रहा है। यह पहली सरकार है जिसके एजेंडे में किसानों का विकास प्रमुख है। मोदी सरकार के हर बजट में किसानों के लिए भारी-भरकम व्यवस्था की गई है। कई लंबित सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने का काम भी मोदी सरकार में ही हुआ है। वर्ष 2021 में ही किसानों के लिए केंद्र सरकार और अन्य भाजपा शासित राज्यों में किसानों के लिए जितना काम हुआ है, उतना तो कभी नहीं हुआ।

चाहे केंद्र में अटल सरकार रही हो या मोदी सरकार, उसने गांव को शहर से जोड़ने के लिए संपर्क मार्गों का निर्माण कराया। गांवों में सचिवालय और शहरों जैसी सुविधा देने की कोशिश की। किसानों के विकास के लिए सरकारी खजानों का मुंह खोला है। हर किसान को दो हजार रुपये मासिक की सहायता प्रदान की है। इसके बाद भी सरकार की नीति और नीयत पर अविश्वास समझ से परे है।

कुछ किसान नेताओं और विपक्षी दलों को लगता है कि इन कृषि सुधार कानूनों के बहाने सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की सरकारी खरीद और वर्तमान मंडी व्यवस्था से पल्ला झाड़कर कृषि बाजार का निजीकरण करना चाहती है जबकि सरकार ने सुस्पष्ट कर दिया है कि उसके तीनों सुधारवादी कानूनों से कृषि उपज की बिक्री के लिए एक नई वैकल्पिक व्यवस्था बनेगी जो वर्तमान मंडी व एमएसपी व्यवस्था के साथ-साथ चलती रहेगी। इससे फसलों के भंडारण, विपणन, प्रसंस्करण, निर्यात के क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा और किसानों की आय बढ़ेगी। पहले कानून में किसानों को अधिसूचित मंडियों के अलावा भी अपनी उपज को कहीं भी बेचने की छूट प्रदान की गई है। सरकार का तर्क है कि इससे किसानों का मंडियों में शोषण रुकेगा। उनकी फसल के ज्यादा खरीदार होंगे और किसानों को फसलों की अच्छी कीमत मिलेगी।

दूसरा कानून ‘अनुबंधित कृषि’ को लेकर है जो बुवाई से पहले ही किसान को अपनी फसल तय मानकों और कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा देता है। तीसरा कानून ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम’ में संशोधन को लेकर है जिससे अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, आलू और प्याज़ सहित सभी कृषि खाद्य पदार्थ अब नियंत्रण से मुक्त होंगे। इन वस्तुओं पर कुछ विशेष परिस्थितियों के अलावा स्टॉक की सीमा भी अब नहीं लगेगी।

यह और बात है कि तमाम दावों के बाद भी सरकार किसानों की आशंकाओं को दूर नहीं कर पाई है। किसानों को गुमराह करने में विपक्षी दल और बिचौलिए भी बराबर की भूमिका निभा रहे हैं। इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि देश के 5 प्रतिशत से भी कम किसानों की ही कृषक उपज मंडियों तक आवाजाही है। 95 प्रतिशत किसान इतनी छोटी जोत के हैं कि उनके पास उतना उत्पादन होता ही नहीं कि वे उसे मंडी तक ले जा सकें। वे अपनी जरूरत के हिसाब से अपना धान-गेहूं बिचौलियों को बेच देते और अपना काम चला लेते हैं। उन्हें तो सरकार से जो अनुदान मिल रहा है, वह सोने में सुहागा की तरह है। इस आंदोलन के पीछे कुछ मुट्ठी भर बड़े किसान हैं जो सरकार पर दबाव बनाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं और सरकार भी इस बात को समझती है। इसलिए अब भी समय है जब किसान नेताओं को आंदोलन से परहेज करना चाहिए और सरकार को अपने तरीके से किसानों के उन्नयन का मौका देना चाहिए।

किसान आंदोलन से इस देश को, रेल सेवा को, परिवहन सेवा को और यहां तक इस देश के आमजन को कितनी परेशानी हुई है, कितना नुकसान हुआ है, इसकी कल्पना भी कठिन है। इसलिए अब भी समय है जब सरकार और किसानों को इस मुद्दे को प्रतिष्ठा का सवाल न बनाते हुए मध्य का रास्ता निकालने पर गौर करना चाहिए। यह देश और आंदोलन झेल नहीं सकता।

समानांतर संसद का चलना बुरा नहीं है लेकिन इस देश का किसान संदेशों की खेती में नहीं, वास्तविक खेती में यकीन रखता है। किसान अपने खेत में हैं, इस बात को सरकार बखूबी जानती है। आंदोलनकारी किसी राजनीतिक प्रभाव में अगर आंदोलित भी रहें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए भी जरूरी है कि यथार्थ के धरातल पर आया जाए और वही किया जाए जो देशहित के अनुरूप हो।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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