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लालकिला- जैसी घटना और किसानों का चक्का जाम

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

किसानों का चक्का-जाम बहुत ही शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया और उसमें 26 जनवरी- जैसी कोई घटना नहीं घटी, यह बहुत ही सराहनीय है। उत्तर प्रदेश के किसान नेताओं ने जिस अनुशासन का पालन किया है, उससे यह भी सिद्ध होता है कि 26 जनवरी को हुई लालकिला- जैसी घटना के लिए किसान नहीं, बल्कि कुछ उदंड और अराष्ट्रीय तत्व जिम्मेदार हैं।

जहां तक वर्तमान किसान-आंदोलन का सवाल है, यह भी मानना पड़ेगा कि उसमें तीन बड़े परिवर्तन हो गए हैं। एक तो यह कि यह किसान आंदोलन अब पंजाब और हरियाणा के हाथ से फिसलकर उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से के जाट नेताओं के हाथ में आ गया है। राकेश टिकैत के आंसुओं ने अपना सिक्का जमा दिया है। दूसरा, इस चक्का-जाम का असर दिल्ली के बाहर नाम-मात्र का हुआ है। भारत का आदमी इस आंदोलन के प्रति तटस्थ तो है ही, पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उ.प्र. के किसानों के अलावा भारत के सामान्य और छोटे किसानों के बीच यह अभीतक नहीं फैला है। तीसरा, इस किसान आंदोलन में अब राजनीति पूरी तरह से पसर गई है। चक्का जाम में तो कई छुटपुट विपक्षी नेता खुलेआम शामिल हुए हैं और दिल्ली के अलावा जहां भी प्रदर्शन आदि हुए हैं, वे विपक्षी दलों द्वारा प्रायोजित हुए हैं। हमारे अधमरे विपक्षी दलों को अपनी कुंद बंदूकों के लिए किसानों के कंधे मुफ्त में मिल गए हैं।


किसानों के पक्ष में जो भाषण संसद में और टीवी पर सुने गए या अखबारों में पढ़े गए, उनसे यह मालूम नहीं पड़ता कि उनके तर्क क्या हैं? वे अपनी बात तर्कसम्मत ढंग से अभीतक प्रस्तुत नहीं कर सके हैं। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने संसद में यह लगभग ठीक ही कहा है कि उन तीनों कृषि कानूनों में काला क्या है, यह अभीतक कोई नहीं बता सका है। जैसे सरकार अभीतक किसानों को तर्कपूर्ण ढंग से इन कानूनों के फायदे नहीं समझा सकी है, वैसे ही किसान भी इसके नुकसान आम जनता को नहीं समझा सके हैं।

दूसरे शब्दों में आजकल सरकार और किसानों की यह मुठभेड़ चलती चली जा रही है। यदि इसमें कोई बड़ी हिंसा और प्रतिहिंसा हो गई तो देश का बहुत गहरा नुकसान हो जाएगा। इसे रोकने का सबसे आसान तरीका मैं कई बार सुझा चुका हूं। केंद्र सरकार इन कानूनों को मानने या न मानने की छूट राज्यों को क्यों नहीं दे देती? पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उप्र के मालदार किसानों की मांग पूरी हो जाएगी। उनके लिए तो ये तीनों कानून खत्म हो जाएंगे। ये कानून किसानों के लिए बने हैं या धन्ना-सेठों के लिए, इसका पता अगले दो-तीन साल में अन्य राज्यों से मिल जाएगा।

(लेखक सुप्रसिद्ध पत्रकार और स्तंभकार हैं।)

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