ब्‍लॉगर

आरक्षणः एक तीर, कई निशाने

– प्रमोद भार्गव

आजादी के 74 साल के इतिहास में आरक्षण से ज्यादा किसी अन्य मुद्दे ने देश की राजनीति को प्रभावित नहीं किया। आरक्षण का सबसे अधिक लाभ उठाने वाला पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सभी राजनीतिक दलों की आंखों का तारा रहा है। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद अनेक क्षेत्रीय दल इसी के बूते उभरे और प्रदेश की राजनीति में छा गए। अबतक इसका सबसे ज्यादा लाभ यादव, कुर्मी, धाकड़, कुशवाह और जाट जाति के समुदायों ने उठाया है। लेकिन अब संविधान में 127वां संशोधन होने के बाद इसमें सेंध लगने जा रही है। संसद में चल रहे हंगामे के बीच केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 342-ए, 338-बी और 366 में संशोधन विधेयक पेश कर लोकसभा से पारित करा लिया। मजे की बात यह रही कि पेगासस जासूसी और किसान आंदोलन जैसे मुद्दों पर नरेंद्र मोदी सरकार को नाकों चने चबाने की कोशिश में लगा संपूर्ण विपक्ष इस संशोधन के पक्ष में रहा।

दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने इसी साल पांच मई को मराठा आरक्षण संबंधी फैसले को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि आरक्षण के दायरे में जातियों को जोड़ने-घटाने का अधिकार केंद्र के पास है। चूंकि महाराष्ट्र में मराठा आराक्षण का मुद्दा लंबे समय से चला आ रहा है और केंद्र में सत्ताधारी दल भाजपा महाराष्ट्र की सत्ता से बाहर है, इसलिए उसे महाराष्ट्र में अपनी जड़े फिर से मजबूती के लिए मराठों को खुश करना जरूरी था। लिहाजा केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर असहमति जताई थी। बावजूद भाजपा को विपक्षी दलों की आलोचना झेलनी पड़ी थी कि ‘केंद्र ने संघवाद का गला घोंटकर आरक्षण पर फैसले लेने का अधिकार राज्यों से छीन लिया है।’

दरअसल केंद्र सरकार ने ओबीसी की विभिन्न वंचित जातियों में पैठ बनाने की दृष्टि से केंद्रीय कैबिनेट के जरिए ओबीसी की केंद्रीय सूची के वर्गीकरण के लिए आयोग बनाने के फैसले को मंजूरी दे दी थी। यानी इस वर्ग में भी पिछड़ेपन की सीमा को देखते हुए उन्हें आरक्षण को हक दिया जाएगा। एक तरह से यह कोटे के अंदर नया कोटा प्रबंध कर देने का प्रावधान था। महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पाटीदार, राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, कर्नाटक में लिंगायत, आंध्र-प्रदेश में कापू के साथ-साथ उत्तर-प्रदेश और बिहार में भी कई जातियां खुद को आर्थिक और शैक्षिक आधार पर कमजोर मानते हुए पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करने और आरक्षण का लाभ देने की मांग कर रही हैं।

गोया, इस पचड़े में पड़ने की बजाय केंद्र ने पिछड़े वर्ग की नई जातियों की पहचान कर सूची में शामिल करने का राज्यों का अधिकार संशोधन विधेयक लाकर बहाल कर दिया। केंद्र को यह फैसला इसलिए भी लेना पड़ा, क्योंकि उत्तर-प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए जातीय गोलबंदी शुरू हो चुकी है। इसी बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल ने जातीय जनगणना की मांग तेज कर दी। इन सब मांगों के मद्देनजर केंद्र ने इस संशोधन के मार्फत गेंद राज्यों के पाले में डालकर क्षेत्रीय दलों को जातियों के मकड़जाल में उलझाने का काम किया है।

ओबीसी के अंदर केंद्रीय सूची में शामिल जातियों को क्या उनकी संख्या के अनुरूप सही अनुपात में राज्य आरक्षण का कितना लाभ दे पाएंगे यह अब उन्हें ही तय करना है। ध्यान रहे कि पिछड़ा वर्ग आयोग ने तीन वर्गो में वर्गीकरण का सुझाव दिया था। एक वर्ग जो पिछड़ा है। दूसरा वर्ग जो ज्यादा पिछड़ा है और तीसरा जो अति पिछड़ा है। यह फैसला भले ही सामाजिक समानता के मुद्दे से जुड़ा है, लेकिन इसका राजनीतिक फलक काफी बड़ा है। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में जो प्रभावी ओबीसी वर्ग है, वह आरक्षण के 27 फीसद कोटे के अधिकांश हिस्से पर काबिज हैं। ओबीसी में जातियों की उप-वर्ग के लिए आयोग बनाने की सिफारिश राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग ने साल 2011 में पहली बार की थी। आयोग की सिफारिश थी कि ओबीसी को तीन उप-वर्ग में बांटा जाएं। इससे पहले 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस संबंध में व्यवस्था दी थी। साल 2012, 2013 व 2014 में संसदीय समितियों ने भी इसकी सिफारिश की थी। उप-वर्ग बनाने का मकसद ओबीसी में सभी वर्गों को बराबर लाभ का मौका देना है।

अक्सर आरोप लगते हैं कि पिछड़ी जातियों में से आर्थिक तौर पर मजबूत कुछ वर्ग ही फायदा उठा रहे हैं। उनके अलावा ज्यादातर पिछड़ी जातियों को फायदा नहीं मिल रहा है। उप-वर्ग बनने पर विशेष जातियों के लिए आरक्षण का बंटवारा हो जाएगा। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामले में 16 नवंबर 1992 को अपने आदेश में व्यवस्था दी थी कि पिछड़े वर्गों को पिछड़ा या अतिपिछड़ा के रूप में श्रेणीबद्ध करने में कोई संवैधानिक या कानूनी बाधा नहीं है। लिहाजा कोई राज्य सरकार ऐसा करना चाहती है तो वह कर सकती है। इस परिप्रेक्ष्य में ओबीसी आयोग की सिफारिश पर 11 राज्य पहले ही अपनी ओबीसी सूची में उप-वर्ग बना चुके हैं। इन राज्यों में आंध्र प्रदेश, तेलगांना, पुड्डुचेरी, कर्नाटक, हरियाणा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडू और जम्मू-कश्मीर शामिल है। इसे नए संशोधन का महत्वपूर्ण पहलू है कि अब पिछड़ा वर्ग सूची में किसी नई जाति को जोड़ने या हटाने का अधिकार राज्य सरकारों के पास रहेगा।

संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने को कहा गया है। इसमें शर्त है कि यह साबित किया जाए कि दूसरों के मुकाबले इन दोनों पैमानों पर पिछड़े हैं, क्योंकि बीते वक्त में उनके साथ अन्याय हुआ है, यह मानते हुए उसकी भरपाई के तौर पर आरक्षण दिया जा सकता है। राज्य का पिछड़ा वर्ग आयोग राज्य में रहने वाले अलग-अलग वर्गो की सामाजिक स्थिति का ब्योरा रखता है। वह इसी आधार पर अपनी सिफारिशें देता है। अगर मामला पूरे देश का है तो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग अपनी सिफारिशें देता है। देश में कुछ जातियों को किसी राज्य में आरक्षण मिला है तो किसी दूसरे राज्य में नही मिला है। मंडल आयोग मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी साफ कर दिया था कि अलग-अलग राज्यों में हालात अलग-अलग हो सकते हैं।

वैसे तो आरक्षण की मांग जिन प्रांतों में भी उठी है, उन राज्यों की सरकारों ने खूब सियासी खेल खेला है, लेकिन हरियाणा मे यह खेल कुछ ज्यादा ही खेला गया है। जाट आरक्षण के लिए मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सरकार ने बीसी (पिछड़ा वर्गद्ध सी नाम से एक नई श्रेणी बनाई थी, ताकि पहले से अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल आरक्षण का लाभ प्राप्त कर रहीं जातियां अपने अवसर कम होने की आशंका से खफा न हों। साथ ही बीसी-ए और बीसीबी-श्रेणी में आरक्षण का प्रतिशत भी बढ़ा दिया था। जाटों के साथ जट सिख, बिशनोई, त्यागी, रोड, मुस्लिम जाट व मुल्ला जाट बीसी-सी श्रेणी में मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण से लाभान्वित हो गए थे। इस विधेयक में यह दृष्टि साफ झलक रही थी, कि जाट आंदोलन से झुलसी सरकार ने यह हर संभव कोशिश की है कि राज्य में सामाजिक समीकरण सधे रहें। लेकिन उच्च न्यायालय ने इन प्रावधानों को खारिज कर दिया था।

आरक्षण के इस सियासी खेल में अगली कड़ी के रूप में महाराष्ट्र आगे आया। यहां मराठों को 16 फीसदी और मुस्लिमों को 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान विधानसभा चुनाव के ठीक पहले कर दिया गया था। यहां इस समय कांग्रेस और राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। सरकार ने सरकारी नौकरियों,शिक्षा और अद्र्ध सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित किया था। महाराष्ट्र में इस कानून के लागू होने के बाद आरक्षण का प्रतिशत 52 से बढ़कर 73 हो गया था। यह व्यवस्था संविधान की उस बुनियादी अवधारणा के विरुद्ध थी,जिसके मुताबिक आरक्षण की सुविधा 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। बाद में मुंबई उच्च न्यायलय ने इस आदेश पर स्थगन दिया और फिर 5 मई 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। इस फैसले के बाद ही केंद्र सरकार ने राज्यों को ओबीसी की सूची में नई जातियां शामिल करने का अधिकार दिया है।

इस कड़ी में राजस्थान सरकार ने सभी संवैधानिक प्रावधानों एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को दरकिनार करते हुए सरकारी नौकरियों में गुर्जर,बंजारा,गाड़िया लुहार,रेबारियों को 5 प्रतिशत और सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को 14 प्रतिशत आरक्षण देने का विधेयक 2015 में पारित किया था। इस प्रावधान पर राजस्थान उच्च न्यायालय ने स्थगन दे दिया था। यदि आरक्षण के इस प्रावधान को लागू कर दिया जाता तो राजस्थान में आरक्षण का आंकड़ा बढ़कर 68 फीसदी हो जाता, जो न्यायालय द्वारा निर्धारित की गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लघंन है। साफ है, राजस्थान उच्च न्यायालय इसी तरह के 2009 और 2013 में वर्तमान कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार द्वारा किए गए ऐसे ही कानूनी प्रावधानों को असंवैधानिक ठहरा चुकी है। लेकिन अब पिछड़ा वर्ग में उप-वर्ग बनाए जाने का मार्ग राज्य ही खोल सकते हैं।

उत्तर-प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 127वें संविधान संशोधन के तत्काल बाद राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के बैठक की और जिन 79 जातियों को पिछड़ा वर्ग में जोड़ने की प्रक्रिया चल रही थी, उस सूची में 39 जातियां और जोड़ दीं। उत्तर-प्रदेश में ओबीसी के 27 फीसदी आरक्षण को तीन हिस्सों में विभाजित किया जाएगा। इसके तहत यादव, अहीर, जाट, कुर्मी, सोनार और चैरसिया को पिछड़ा वर्ग में रखा जाएगा। अति पिछड़ा वर्ग में गिरी, गुर्जर, गोसाईं, लोद, कुशवाहा, कुम्हार, माली और लुहार समेत कुछ अन्य जातियों को 11 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलेगा। अत्यंत पिछड़ा वर्ग में गड़रिया, मल्लाह, केवट, निषाद, राई, गद्दी, घोषी राजभर जातियों को शामिल कर 9 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। इस तरकीब से भाजपा का वोट-बैक मजबूत होगा और समाजवादी पार्टी सिर्फ यादवों में सिमटकर रह जाएगी, यानी बड़े स्तर पर वोट की दृष्टि से राजनीतिक लाभ से वंचित हो जाएगी। उत्तर-प्रदेश की कुल आबादी में ओबीसी की जनसंख्या 54 प्रतिशत मानी जाति है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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