ब्‍लॉगर

सर्वधर्म सद्भाव से समस्या का समाधान

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
सर्वधर्म सद्भाव भारत का प्रचलित शब्द है। यहां के जैसी विविधता दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है। जहां कुछ अंशों में मजहबी अंतर है, वहां तनाव व्याप्त है। लोग एक-दूसरे को संदेह से देखते हैं। सभ्यताओं के संघर्ष का विस्तृत इतिहास है। आधुनिक समय में भी उसके तत्व विद्यमान है। आतंकी गतिविधियों ने अमेरिका से लेकर यूरोप तक वर्ग विशेष को बेगाना बना दिया है। यहां सर्वधर्म सद्भाव की कोई अवधारणा नहीं है। जबकि समाधान इसी से संभव है। खासतौर पर येरुसलम में यह विचार कसौटी है। यहां स्थायी शांति का अन्य कोई माध्यम नहीं है।
येरुशलम मजहबी रूप से बेहद संवेदनशील क्षेत्र है। यहां से यहूदी, ईसाई व मुसलमानों की आस्था जुड़ी है। इनमें से किसी को भी नजरअंदाज करना संभव नहीं है। इस सम्बंध में कोई भी समाधान शांति व सौहार्द से ही संभव है। यहां सदैव संघर्ष से स्थिति बिगड़ती रही है। इसबार भी यही हुआ। फिलिस्तीनियों ने यथास्थिति का उल्लंघन किया। इस्राइल का सुरक्षाबल इस प्रकार की गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं करता। यहीं से संघर्ष प्रारंभ हुआ। बताया गया कि हमास ने इजरायल पर करीब एक हजार रॉकेट दागे हैं। सेंट्रल और दक्षिणी इजरायल में लगातार रॉकेट गए। हमास ने तेल अवीव, एश्केलोन और होलोन शहर पर रॉकेट गए।
दुश्मनों के प्रति इस्राइल की नीति स्पष्ट है। वह छेड़ने वाले को छोड़ता नहीं है। फिलिस्तीनी आतंकी संगठन हमास इस बात से अनजान नहीं है। फिर भी वह समय-समय पर इस्राइल को आजमाता है और प्रत्येक बार उसे भारी नुकसान का सामना करना पड़ता है। इसबार भी ऐसा हुआ। हमास द्वारा दागे गए रॉकेट इजराइल के मिसाइल डिफेंस सिस्टम आयरन डोम से नष्ट कर दिए गए। इस्राइल सजग ना रहता, तो हमास के हमले से यहूदी बस्तियों में बड़ी तबाही होती। इस्राइल ने अपनी चिर परिचित शैली में जवाब दिया। वह तेज हवाई हमले करने के साथ ही जमीनी लड़ाई की भी तैयारी कर रहा है। सीमा पर हथियारबंद टुकड़ियों के साथ रिजर्व सैनिकों को तैनात किया गया है। इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने कहा है कि हमास को इसबार बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। इस्राइल ने फिलिस्तीनी हमास के युद्धविराम प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया। इजरायल के निशाने पर मुख्य रूप से हमास का टनल था। इसके अलावा हमास के भूमिगत इंफ्रास्ट्रक्चर को भारी नुकसान हुआ है।
1988 में यासिर अराफात ने मध्यपूर्व में इस्राइल के अस्तित्व को मान्यता देते हुए स्वतन्त्र फिलिस्तीन निर्मांण की नीति घोषित की थी। इसके बाद ही समाधान की संभावना दिखाई दी थी। किंतु इस नीति के विरोध में हमास की गतिविधियां बढ़ने लगी थी। इससे इस्राइल को शांति प्रक्रिया रोककर जवाबी कार्यवाई का मौका मिला। इसके लिए उस समय भी हमास ही जिम्मेदार था। मध्यपूर्व में यहूदी राष्ट्र के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। अल अक्शा मस्जिद से मुसलमानों की आस्था जुड़ी है। यहूदियों की आस्था यहां के टेंपल माउंट से जुड़ी है। दावा है कि यहां उनके दो प्राचीन पूजा स्थल हैं। जिनमें पहले को किंग सुलेमान ने बनवाया था। बेबीलोन्स ने इसे तबाह कर दिया था। फिर उसी जगह यहूदियों का दूसरा मंदिर बनावाया गया जिसे रोमन साम्राज्य ने नष्ट कर दिया था। इसका उल्लेख बाइबिल में भी बताया जाता है।
जाहिर है कि इस्राइलियों का दावा सर्वाधिक प्राचीन है। इस समय यहां इजरायल का कब्जा है। यरुशलम में ही ईसाइयों द चर्च ऑफ द होली सेपल्कर है। मान्यता है कि ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था। यहीं प्रभु यीशु के पुनर्जीवित हो उठने वाली जगह भी है। 1967 के युद्ध में इजराइल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा कर लिया था। पूरे यरुशलम को ही वह अपनी राजधानी मानता रहा है। फिलिस्तीनी भी इसे अपनी भावी राजधानी के रूप में देखते हैं। इजराइल का वर्तमान भू भाग कभी तुर्की के अधीन था। तुर्की का वह साम्राज्य ओटोमान कहलाता है। जब 1914 में पहले विश्व युद्ध के दौरान तुर्की के मित्र राष्ट्रों के खिलाफ होने से तुर्की और ब्रिटेन के बीच युद्ध हुआ। ब्रिटेन ने युद्ध जीतकर ओटोमान साम्राज्य को अपने अधीन कर लिया।
जियोनिज्म विचार के अनुसार यहूदियों ने अपनी मूल व मातृभूमि को पुनः हासिल करने का संकल्प लिया था। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपनी स्थापना के दो वर्ष बाद फिलिस्तीन को दो हिस्सों में बांटने का निर्णय लिया। इस प्रकार इस्राइल अस्तित्व में आया। 1993 में इस्राइली नेतृत्व व अराफात दोनों ने लचीला रुख दिखाते हुए ओस्लो समझौता किया था। इसके अनुसार इस्राइल ने पहली बार फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन को मान्यता प्रदान की थी। यह भी तय हुआ था कि पश्चिमी तट के जेरिको और गाजा पट्टी में फिलिस्तीनियों को सीमित स्वयत्तता प्रदान की जाएगी। 1996 में गाजा पट्टी क्षेत्र के करीब दस लाख मतदाताओं ने अट्ठासी सीटों के लिए मतदान किया था। इसी परिषद ने बाद में यासिर अराफात को फिलिस्तीन का राष्ट्रपति निर्वाचित किया था। 1997 में अराफात की पहल पर फिर एक समझौता हुआ। इससे तय हुआ कि पश्चिमी तट का अस्सी प्रतिशत हिस्सा तीन चरणों में फिलिस्तीन को सौप दिया जाएगा। लेकिन हर बार हमास की गतिविधियों ने शांति प्रयासों को विफल किया है। इससे इस्राइल को फिलिस्तीन पर हमले का अवसर मिलता है। जाहिर है कि हमास को दशकों से जारी अपनी आतंकी मानसिकता बदलनी होगी। इस संवेदनशील मसले का समाधान शांति वार्ता से ही निकल सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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