भोपाल न्यूज़ (Bhopal News)

सूरमा के बतोले

सूबे के जिन काबिल सहाफियो ने कुलहिंद लेवल की मकबूलियत हासिल करी हे उनमें एक नाम मरहूम शाहिद मिर्जा का भी है। यूं तो आज सत्ताइस मई को शाहिद भाई की यवमें पैदाइश है… बाकी इसी सत्ताइस और अठ्ठाइस मई 2007 की दरम्यानी रात को उनका इंतकाल भी हुआ था। सत्तर की दहाई के आखिर में इंदौर की सरजमी से तब के सबसे हरदिल अजीज अखबार नई दुनिया से उनकी सहाफत परवान चढ़ी। आठ बरस इस अखबार में उन्होंने तारीखी काम किया। बाद के कुछ बरस मिर्जा ने भास्कर और राजस्थान पत्रिका में बिताए। पत्रिका में उनका खम्माखनी कालम बेहद मकबूल हुआ। पत्रकारिता में वे राजेंद्र माथुर की खोज थे। रज्जू बाबू जब नवभारत टाइम्स गए तो शाहिद मिर्जा को भी दिल्ली लिए गए। सहाफत में आई नई पीढ़ी उनके हुनर से कम ही परिचित है। बाकी भाई मियां का कई जुबानों पे लपक कमांड था। जित्ती उम्दा हिंदी लिखते थे उत्ती शुस्ता उर्दू भी जानते थे। अंग्रेजी के अलावा मराठी और पंजाबी भी बोल और समझ लेते थे। वे जो लिखते वो लाजवाब होता और सहेजने लायक भी। उनके पास लफ्जों की दौलत ए बेपाया थी। वे जुबान की इस दौलत को जमके खर्च करते। सियासी, आर्ट एंड कल्चर सहित कई हस्तियों को उन्होंने इंटरव्यू किया। आज जबकि अखबारों में पत्रकारों की नई जमात ने भाषा का कबाड़ा किया हुआ है शाहिद मिर्जा के पुराने मजमून उनके लिए मिसाल हो सकते हैं। शाहिद जितना अच्छा लिखते थे उससे कही बेहतर बोलते थे। हर मोजू पर उन्हें महारत हासिल थी। वे किस्सागोई के अंदाज में लाजवाब बोलते थे। कला हो या संस्कृति, रंगकर्म हो या कविता या फिर सियासत, आप मिर्जा को जिस रूप में भी याद करेंगे उन्हें बेजोड़ ही पाएंगे। उन्हें चलता फिरता रिफरेंस और चलता फिरता एनसाइक्लोपीडिया कहा जाता था। शाहिद जब तक जिए उन्होंने सहाफत को अपना ओढऩा बिछौना, खाना पीना बनाया। वे बेहद फक्कड़ और फकीराना मिजाज के इंसान थे। खानपान के बेहद शोकिन पत्रकार के कई किस्से आज भी इंदौर में मशहूर हैं। उनके खास दोस्त, दिलीप चिंचालकर, प्रभु जोशी, अतुल लागू, आदिल कुरेशी, प्रमोद गणपत्ये भी अब इस दुनिया में नहीं हैं। अलबत्ता उनके समकालीन प्रकाश हिंदुस्तानी, राजेश बादल, विभूति शर्मा से उनके किस्से सुने जा सकते हैं। शाहिद भाई अक्सर पैदल चलते या फिर ऑटो में। इंदौर का कोई खाऊ पियु ठिया न होगा जिसे मिर्जा ने आबाद न किया हो। उनके फरिश्ता सिफत अंदाज का आलम ये था कि वो ऑटो वालों से कभी छुट्टे पैसे वापस नहीं लेते थे। होटल्स के वेटर सोचते थे कि मिर्जा उनकी टेबल पर बैठे। वे कई बार खाने के बिल से ज्यादा टिप दे दिया करते। उनकी पंद्रहवीं बरसी पर अग्निबाण परिवार की तरफ से उन्हें खिराजे अकीदत।

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