– हृदयनारायण दीक्षित
कोरोना महामारी से विश्व सामाजिक व्यवस्था में उथल-पुथल है। भारत भी अछूता नहीं है। यहां की सामाजिक व्यवस्था में भी अनेक द्वन्द्व हैं। यह ध्यान देने योग्य है। महामारी से बचाव के लिए लम्बे समय तक लोगों को घरों में रहना पड़ा है। महानगरों व नगरों में छोटे घरों की बहुसंख्या है। परिवार के सदस्य अपने घर में 2 गज की दूरी का पालन कठिनाई से कर पा रहे हैं। इंटरनेट के प्रयोगकर्ता कम्प्यूटर जैसे उपकरणों से चिपके हैं। तकनीकी ने उन्हें समाज से अलग कर दिया है। अवसाद बढ़ा है। आत्मीय संवाद घट गया है। आत्मीय संवाद का मजा ही और था। अब यह संवाद आभासी हो गया है। कम्प्यूटर या फोन के माध्यम से दिनभर आभासी वार्तालाप में व्यस्त रहने की आदत बढ़ी है। इस आदत ने सामाजिक सरोकारों को प्रभावित किया है। फेसबुक सहित अनेक माध्यमों से विचार प्रकट करने की आदत बढ़ी है। विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग भी हो रहा है। सिनेमा में वेब सीरीज का प्रवेश हुआ है। वेब सीरीज जैसे माध्यमों से सभ्य और अश्लील का फर्क समाप्त हो रहा है। इन माध्यमों की फिल्में भी गाली-गलौज से भरी हुई हैं।
मनोरंजन भी अश्लील हो रहा है। भारत में प्राचीनकाल से सामाजिक संबंधों की प्रेमपूर्ण परम्परा है। इस परम्परा में शील और मर्यादा के बन्धन रहे हैं। शील और मर्यादा किसी राजा या राज व्यवस्था के आदेश नहीं है। इनका सतत् विकास हुआ है। लगातार दर्शन और चिन्तन के परिणामस्वरूप विकसित प्रेमपूर्ण उदात्तभाव समाज का स्वभाव रहा है। सो वाणी में भी सांस्कृतिक परम्परा का प्रवाह रहा है लेकिन तकनीकी ने परम्परा और आधुनिकता के मातृ-पुत्र संबंध को तहस-नहस कर दिया है। परंपरा को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है।
परम्परा पिछड़ापन नहीं है। इसका विकास लोक के भीतर लोक विचार-विमर्श से हुआ है। परम्परा के इस प्रवाह में काल बाह्य छूटता रहा है और काल संगत जुड़ता रहा है। परम्परा और आधुनिकता की समय विभाजक रेखा नहीं है। सहस्त्रों वर्ष पहले की परम्परा तत्कालीन आधुनिकता है। हमारी आधुनिकता में परम्परा के गुण सूत्र हैं। आधुनिकता भी आगे परंपरा का हिस्सा बनेगी। कोरोना महामारी और तकनीकी का विस्फोट आधुनिक काल की चुनौती है। संप्रति एक नई तरह की व्यक्तिवादी सामाजिक व्यवस्था आकार ले रही है। भौतिक दूरी की आवश्यकता ने सामाजिक संगमन के आनंद रस को घटाया है। सब एक-दूसरे को संदिग्ध कोरोना पाॅजीटिव मान रहे हैं और सभी एक-दूसरे को शक की निगाह से देख रहे हैं।
भारत की परम्परा में शोध और बोध की सचेत उपस्थिति रही है। पूर्वजों ने सचेत रूप में विश्व वरेण्य उदात्त संस्कृति का विकास किया है। सचेत रहने के कारण श्रेयस्कर परिवर्तन हुए हैं। लेकिन अब चुनौती बढ़ी है। तकनीकी और महामारी के आक्रमण ने हम सबको लगभग लाचार कर दिया है। प्रश्न यह है कि क्या हम तकनीक के भार से दबे सांस्कृतिक सामाजिक बदलाव को यथास्थिति स्वीकार कर सकते हैं? क्या हम उदात्तभाव को छोड़कर इस परिवर्तन के लाचार उपकरण बन रहे हैं? तकनीकी का आक्रमण हमारे सचेत मन को अचेत तो नहीं कर रहा है? क्या हम अचेत दशा में महामारी और तकनीकी के अंतर्विरोधों के सामने आत्मसमर्पण तो नहीं करने जा रहे हैं? अनुभव हमेशा प्रमाणिक माने जाते हैं लेकिन महामारी के प्रभाव का अध्ययन अनुभव हमारे पास अभी नहीं है। तकनीकी के प्रभाव का भी समाज पर पड़ने वाला अनुभव हमारे पास नहीं है। इसलिए समाज में संस्कृति, साहित्य कला आदि सभी क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तनों को सचेत रूप में देखना जरूरी है।
राजनीति राष्ट्रजीवन को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा सक्रिय कर्म क्षेत्र है। कोरोना और तकनीकी ने लोकमत निर्माण के तरीकों पर गहरा प्रभाव डाला है। राजनैतिक दल अपने अभियानों में महामारी के प्रभाव के कारण तकनीकी के अधीन हो रहे हैं। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग नया जनसम्पर्क साधन बना है। लेकिन यह शुद्ध आभासी है। प्रत्यक्ष सम्पर्क घटा है। चिंतन लेखन पर भी तकनीकी का प्रभाव बढ़ रहा है। राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों में हम सब तकनीकी के अधीन हो गये हैं। भारतीय मनीषा ने लगातार सृजन किया है। इस सृजन परम्परा ने जीवन के वास्तविक आनंद पर लगातार शोध व बोध का काम किया है। जान पड़ता है कि हम अनजाने में पूर्वजों के अनुभव से प्राप्त रचनात्मक अनुभूति व अनुभव को खोने की स्थिति में जा रहे हैं। बौद्धिक और तार्किक उपलब्धियाॅं पृष्ठभूमि में हैं। स्वाभाविक सांस्कृतिक संवेदनशीलता की ओर हमारा ध्यान नहीं जा रहा है। सहानुभूति और सहयोग की बातें पृष्ठभूमि में हैं। मूलभूत प्रश्न है कि सहस्त्रों वर्ष प्राचीन संस्कृति की उपलब्धियाॅं क्या हम अचेत मन से छोड़ रहे हैं? क्या हम विकल्पहीन हैं।
विश्व के चिकित्सा विज्ञानी कोरोना महामारी बचाव के टीके की खोज में संलग्न हैं। देर-सबेर इसका टीका खोज लिया जायेगा। संप्रति महामारी के साथ जीने और सांस्कृतिक तत्वों का आनंद लेने का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन इस दौरान हमारे सांस्कृतिक भावबोध पर भी तकनीकी का हमला है। हमारे अंतरंग जीवन में भी तकनीकी का प्रवेश हो रहा है। यह लगातार हमको तकनीकी का लती बना रहा है। महामारी से बचाव संभव है लेकिन तकनीकी के सांस्कृतिक प्रभाव से लड़ना मुश्किल है। बेशक तकनीकी की उपयोगिता है लेकिन तकनीकी हमारा मार्गदर्शन नहीं कर सकती। तकनीकी के लत के घोड़े पर लगाम लगानी ही होगी। तकनीकी त्याज्य नहीं है। इसकी उपयोगिता है। लेकिन हम सबको तकनीकी को अपना सहयोगी बनाना होगा। तकनीकी को भी संस्कृति संवर्द्धन के हित में प्रयोग करना अनिवार्य है। सारी दुनिया को एक परिवार जानने वाली भारतीय संस्कृति के मूलभूत तत्वों का संरक्षण संवर्द्धन अनिवार्य है। महामारी से जूझने में हाथ न मिलाने की जगह नमस्कार आदर्श विकल्प है और नमस्कार भारतीय परंपरा है। इसमें आत्मभाव है। जीवन में आत्मीयता की महत्ता है। सामाजिकता की महत्ता है।
मानवता का हर हाल में संरक्षण और विकास अपरिहार्य है। हम आगे-आगे चले और तकनीकी पीछे-पीछे। हमारा मन विचार, व्यवहार और रुचि अरुचि ध्यान देने योग्य है। तकनीकी ने हमारे विचार, व्यवहार और रुचि-अरुचि को बाजार से जोड़ने का काम किया है। बाजार का उद्देश्य लाभ होता है और संस्कृति का उद्देश्य लोकमंगल। महामारी के दौरान भी बाजार ने अवसर का लाभ उठाया है। इस दौरान हुई विज्ञापनबाजी ने मनुष्य के मन में भय पैदा किया है। सब्जी धोने के भी उत्पादों का प्रचार हुआ है। अनेक ऐसे ही नए उत्पादों को भी सैनेटाइज करने के नाम पर तमाम नए उत्पाद बाजार ने दिए हैं। बाजार ने तकनीकी का लाभ उठाया है और महामारी का भी। पीछे लगभग 7-8 माह से प्रत्येक मनुष्य डरा हुआ उपभोक्ता बन गया है।
रुचियाँ बदली जा रही हैं। रुचियों के बदलाव से सामाजिक व्यवस्था भी बदल सकती है। लेकिन सामाजिक व्यवस्था में सकारात्मक बदलाव की गुंजाइश नहीं दिखाई पड़ती। हमारे राष्ट्र जीवन में रुचि और अरुचि का निर्धारण नैतिकता के बन्धन में भी रहा है। तकनीकी और बाजार ने हमारी सांस्कृतिक रुचियों पर भी आक्रमण किया है। संस्कृति और सभ्यता के प्रति प्रमाणिक नई पीढ़ी का निर्माण थम गया है। नई पीढ़ी में तकनीकी के प्रति आत्मसमर्पण भाव बढ़ा है। हम तकनीकी के अधीन नहीं रह सकते हैं। हम उसके नियन्ता बनकर ही जीवन के मूलभूत सांस्कृतिक तत्वों के संवर्द्धन में सफल हो सकते हैं।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा अध्यक्ष हैं।)
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