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पश्चिम बंगाल की सियासत एकबार फिर उबाल पर

मोहन सिंह
पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव के पहले और नतीजे आने के बाद राज्य की राजनीति रोज नए मोड़ पर खड़ी दिखाई देती है।लगातार जारी राजनीतिक हिंसा, ममता सरकार और राज्यपाल जगदीप धनकड़ के बीच बढ़ते टकराव, नारदा स्टिंग ऑपरेशन में शामिल चार तृणमूल नेताओं की गिरफ्तारी की वजह से न सिर्फ पश्चिम बंगाल की सियासत एकबार फिर उबाल पर है, बल्कि नए सिरे से संवैधानिक संकट पैदा होने की संभावना भी बढ़ गयी है। संभावना इस बात की है कि पश्चिम बंगाल से निकली राजनीतिक आवाज की अनुगूँजें देश में विपक्षी राजनीति की दशा-दिशा तय करने की कोशिश में है।
एक ऐसे समय में, जब कोरोना महामारी का संकट लगातार बढ़ रहा है। वक्त की मांग और लोगों की लोगों की आपातकाल में जरूरतों के मद्देनजर, आदर्श स्थिति तो यह होती कि राजनीति को कुछ समय के लिए दरकिनार कर राज्य और केंद्र सरकार बेहतर तालमेल के साथ लोगों के आँसू पोछने का काम करती, पर हो रहा है वह सबकुछ जो राजनीति की काली कोठरी में सबके चेहरे पर कालिख पोत रहीं है। एक लोकतांत्रिक देश में संघात्मक ढांचे की धज्जियां उड़ाई जा रही है। राज्यपाल नामक संस्था सवालों के घेरे में खड़ी है। बढ़ती हिंसक घटनाओं की वजह से लोग दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में लोगों के जानमाल, इज्ज़त खतरे में है, पर राज्य की राजनीति पूरे शवाब पर है। इस कोरोना काल में केंद्र और राज्य के बीच एक-दूसरे के सहयोग के बजाय स्थिति रोज तनावपूर्ण स्थिति होती जा रही है। नारदा घोटाले का मामला पिछले पांच साल से राज्य की राजनीति को मथ रहा है। पर इसबार सवाल ऐसे समय सामने आया है जब देश विपत्ति काल से गुजर रहा है और राज्य की चुनी हुई सरकार राजनीतिक हिंसा पर काबू पाने में अक्षम साबित हो रही है। हालांकि सीबीआई जांच के दायरे में आये नेताओं की पूछताछ और छापों के दौरान ममता बनर्जी और केंद्रीय जांच एजेंसी के बीच टकराव कोई नयी बात नहीं है।
सवाल है कि क्या हिंसक राजनीति पश्चिम बंगाल का स्थायी चरित्र हो गया है? वाम मोरचा और ममता बनर्जी के शासनकाल में एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति विकसित हुई, जहां विपक्ष के मनोबल को हर तरह तोड़ने की कोशिशें होती हैं, इस क़दर कि कोई सिर उठाने की जुर्रत न करे। इस प्रवृत्ति में बदलाव की कोशिश के बजाय इसे हवा देने में ममता बनर्जी ज्यादा माहिर हैं। इसलिए केंद्रीय सत्ता से निरंतर टकराव अपने मंत्रियों के किये धत्कर्मों के बचाव के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का सीबीआई दफ्तर में छह घंटे तक अघोषित धरना देकर नई केंद्रीय सत्ता से टकराव की, जांच एजेंसियों के काम में अड़ंगेबाजी की नयी मिसाल पेश कर रही हैं। क्या ममता बनर्जी के लिए ऐसा करते हुए दिखना जरूरी है? 
महात्मा गांधी की राय है कि प्रकृति का यह नियम है कि जो सत्ता जिस तरह से प्राप्त होती है, उसे वैसे ही टिकाए और बचाये रखा जा सकता है। किसी और प्रकार से नहीं। गाँधीजी की यह भी मान्यता रही है कि पुरुषों के मुकाबले स्त्रियां अहिंसा की ज्यादा बेहतर सिपाही हो सकती हैं। आत्मोसर्ग के साहस के लिए स्त्री हमेशा पुरुष से श्रेष्ट रही हैं। यह भी कि हृदयहीन साहस के लिए पुरुष हमेशा स्त्री से आगे रहा है। पिछले दस साल से ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री है। तीसरी बार पश्चिम बंगाल की सता की बागडोर उनके हाथों में है।पर आज ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल हिंसक राजनीति का नया मॉडल पेश कर रहा है।

याद करें, आजादी के लगभग बीस साल बाद 1967 के दौर को। उसी बंगाल में जलपाईगुड़ी जिले के नक्सलबाड़ी नामक जगह से एक ओर उग्र वामपंथी आन्दोलन का जन्म हो रहा था। दूसरी ओर कलकत्ता में ही डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में सोशलिस्ट पार्टी गैर कांग्रेसवाद की रणनीति के तहत और न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर हिंदी भाषी कई राज्यों से कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर रही थी। बिना किसी हिंसक राजनीति का सहारा लिये, अबतक सत्ता की राजनीति से वंचित सामाजिक समूहों को साधते हुए। उन समूहों को जिसकी दस्तक भारत में नब्बे के दशक की राजनीति से लेकर आजतक की राजनीति को गहरे में प्रभावित कर रही है। उस दौर में कांग्रेसी सरकारों से देशवासियों का मोहभंग होने लगा था। वह दौर देश में साझा सरकारों के बनने का दौर था। बंगाल में भी कांग्रेस में टूट हुई। अजय मुखर्जी के नेतृत्व में बांग्ला कांग्रेस ने सीपीएम नेता ज्योति बसु के साथ मिलकर सरकार बनायी। अजय मुखर्जी मुख्यमंत्री बने और ज्योति बसु उपमुख्यमंत्री।
कम्युनिस्ट पार्टी, जो सत्ता प्राप्ति के लिए हिंसक राजनीति को जायज मानती रही है, उससे अलग हुए समूह ने ही बंगाल के जलपाईगुड़ी के नक्सलबाड़ी इलाके से हिंसक राजनीति की शुरुआत की। इस आंदोलन के प्रमुख नेता थे, चारु मजूमदार, जंगल संथाल और कानू सान्याल। इस आन्दोलन को कलकत्ता प्रेसीडेंसी कालेज और खड़गपुर प्रौद्योगिकी संस्थान के छात्रों का भरपूर सहयोग मिला। जमींदारों के खिलाफ विद्रोह से शुरू हुए आंदोलन ने हाशिये पर खड़े दलित, शोषित, वंचित समूहों को लामबंद किया। सत्ता और सामाजिक ताने बाने में बदलाव के जुनून के साथ शुरू इस आंदोलन की बुनियादी धारणा रही है कि सत्ता की ताकत बंदूक की नली से निकलती है। इन उसूलों में विश्वास करने वाला समूह सीधे सत्ता में तो काबिज नहीं हुआ। पर देश के कई पिछड़े इलाकों में खासकर आदिवासी इलाके में आज भी यह आंदोलन सत्ता के सामने हिंसक गतिविधियों के चलते खासा चुनौती पेश करता रहा है।
पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार के वक्त भी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटाचार्य की सरकार को ऐसी कई चुनौतियों से दो चार होना पड़ा था।खुद ममता बनर्जी वाममोर्चा शासनकाल में कई हिंसक हमलों का सामना कर चुकी हैं। पर लगता नहीं कि ममता बनर्जी और उनके तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने इस हिंसक राजनीति से कोई सबक सीखा है, बाजदफा तो यह लगता है कि हिंसक राजनीति का नया मॉडल, नये तेवर के साथ पश्चिम बंगाल की राजनीति को नई दिशा देने की ओर उन्मुख है। भ्रष्टाचार के आरोप में आरोप में घिरे मंत्रियों के बचाव में राज्य की मुख्यमंत्री सीबीआई कार्यालय में पूरे लाव-लश्कर के साथ छह घंटे धरना प्रदर्शन कर यह जताने की कोशिश कर रही हैं कि इस लोकतंत्र का एक मतलब भीड़ की ताकत भी है। यह संदेश उस बंगाल से है जो दावा करता रहा है कि बाकी देश जिस बात को दस साल बाद सोचता है, बंगाल उसपर दस साल पहले सोच चुका होता है। इस प्रकट दावे के पीछे सच्चाई भी है कि बंगाल से ही देश में नवजागरण से लेकर देश की आजादी के आंदोलन को दिशा, दार्शनिक आधार और नेतृत्व मिलता आया है।
आज के पश्चिम बंगाल में जो राजनीतिक माहौल पैदा हुआ है, उसके पीछे उस मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है जो लोगों में क्रोध, भय और घृणा और अराजकता की स्थिति पैदा कर रहा है। इस हिंसक राजनीतिक संस्कृति के मनोविज्ञान को समझाते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण का कहना था कि सरकार को यह समझना चाहिए कि कुछ परस्थितियों में हिंसा लोगों के दिलों में ही भड़क उठती है।दूसरे तरह की हिंसा वह है, जो असमाजिक तत्वों के द्वारा की जाती है। तीसरे तरह की हिंसा इस वक्त पश्चिम बंगाल में उन सीमावर्ती इलाकों में ज्यादा हो रही हैं, जो बांग्लादेश की सीमा से सटे हैं और जहां अल्पसंख्यकों की आबादी अपेक्षाकृत अधिक है।
दुनिया के दो महान साहित्यकारों गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और मुंशी प्रेमचंद ने क्रोध, भय, घृणा और साहस के मनोविज्ञान को समझाते हुए बखूबी इन पर रोशनी डाला है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का कथन है कि जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप से कह नहीं सकता, उसी को क्रोध अधिक आता है। दूसरी ओर मुंशी प्रेमचंद का दावा है कि यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और घृणा ही है जो पाखंड और धूर्त्तता का दमन करती है। यह भी कि जिस तरह घृणा का उग्र रूप भय है, उसी तरह भय का प्रचंड रूप साहस है। आत्मरक्षा प्राणी का सबसे बड़ा धर्म है और हमारी सभी मनोवृत्तियां इसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं।
अब इस मनोवैज्ञानिक के आलोक में आज के पश्चिम बंगाल के राजनीतिक हालात को परखने की जरूरत है। एक ऐसे समाज में जहां राजनीतिक परिस्थितिवश विभिन्न समुदायों, जातीय समूहों के बीच घृणा का माहौल अपने चरम पर है। क्रूरता और दुःसाहस की पराकाष्ठा देखने को मिल रही है। राजनीतिक द्वेषवश बदले की भावना मानवीयता की सारी सीमाएं लांघ रही हैं। इन परिस्थितियों के मद्देनजर रामधारी सिंह दिनकर एक कविता याद आती है- सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है। सूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, कांटों में राह बनाते हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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