ब्‍लॉगर

क्यों होते हैं भारतीय दूतावासों पर हमले

– आर.के. सिन्हा

हाल के दौर में ब्रिटेन, कनाडा, अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया स्थित भारतीय दूतावासों/ उच्चायोगों पर लगातार हो रहे उग्र प्रदर्शन तथा हमले सिद्ध कर रहे हैं कि उपर्युक्त देशों की पुलिस तथा सुरक्षा एजेंसियां कितनी काहिल और नकारा हैं। वे इन हमलों को रोकने में नाकाम हैं। ये शर्मनाक है। बीते कुछ दिन पहले लंदन स्थित भारतीय उच्चायोग में लहरा रहे तिरंगे झंडे का जिस बेशर्मी से अपमान किया गया, उससे हरेक राष्ट्रवादी भारतीय का कलेजा फट रहा है। सारा भारत लंदन की घटना के कारण गुस्से में है। जिस भारतीय मूल के ऋषि सुनक के ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनने पर सारा भारत गर्व महसूस कर रहा था, वे अपने पुरखों के देश के तिरंगे का अपमान झेलते रहे।


उन्हें भारत से कुछ सबक लेना चाहिए जहां पर 160 देशों के दूतावास तथा उच्चायोग कार्यरत हैं। पर मजाल है कि कोई प्रदर्शनकारी उनके अंदर चला जाए। उस देश के राष्ट्र ध्वज का अपमान करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। देखिए, भारत में बसे तिब्बती हर साल 10 मार्च को तिब्बत आजादी दिवस पर नई दिल्ली के चीन दूतावास के बाहर अवश्य प्रदर्शन करते हैं। 10 मार्च, 1959 को तिब्बत में विद्रोह हुआ, इसके बाद दलाई लामा को भारत में शरण लेनी पड़ी। तभी से तिब्बती 10 मार्च को अपने राष्ट्रीय दिवस के तौर पर मनाते आ रहे हैं। ये तिब्बती चीनी दूतावास के बाहर जोरदार तरीके से प्रदर्शन करते हैं। ये प्रदर्शनकारी चीन के दूतावास की ओर बढ़ने का प्रयास भी करते हैं। इस क्रम में इनकी पुलिस के साथ हाथापाई की नौबत भी आ जाती है। जाहिर है, तिब्बती चीनी दूतावास के बाहर अपने तिब्बत की आजादी के लिए नारेबाजी करते हुए प्रदर्शन करते हैं। इनके हाथों में तिब्बत सरकार के झंडे, पोस्टर और बैनर रहते हैं। पर, इन्हें कभी पुलिस एक सीमा से आगे बढ़ने की अनुमति नहीं देती।

हालांकि तिब्बत के सवाल पर भारत की नीति एकदम साफ है। भारत यह मानता है कि चीन ने तिब्बत पर अवैध कब्जा कर रखा है। पर जब बात चीनी दूतावास पर प्रदर्शन की आती है तो भारत सरकार किसी भी सूरत में यह इजाजत नहीं देती कि तिब्बती प्रदर्शनकारी चीनी दूतावास पर हमला कर दें। हां, इन्हें दूतावास से थोड़ी दूर रहकर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन की अनुमति तो मिलती है। इसी नीति पर ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, कनाडा तथा अमेरिका को भी चलना चाहिए था। पर ये अपने दायित्वों का निर्वाह करने में विफल रहे। इसके लिए इन्हें भारत से माफी मांगनी चाहिए।

बेशक, तिब्बती आगे भी चीनी दूतावास पर प्रदर्शन करेंगे। जब तक तिब्बत आजाद नहीं हो जाता तब तक इनके विरोध प्रदर्शन जारी रहेंगे। तिब्बती प्रदर्शनकारी अपने चेहरे पर काले रंग का मास्क पहन कर और कुछ गालों पर तिब्बती झंडा बनाकर प्रदर्शन करते हैं।

यूं तो तिब्बती दशकों से चीनी दूतावास के बाहर प्रदर्शन करते हैं, पर इनका सबसे मुखर प्रदर्शन 2008 के बीजिंग ओलंपिक खेलों से पहले हुआ था। तब हजारों तिब्बतियों ने राजधानी की सड़कों से गुजरते हुए चीनी दूतावास का रुख किया था। इन्हें तब बड़ी संख्या में हिन्दुस्तानियों का भी साथ और सहयोग मिला था। तब सारी दुनिया में बसे तिब्बती विश्व बिरादरी से गुजारिश कर रहे थे कि वे बीजिंग खेलों का बहिष्कार करें। इनकी राजधानी में पुलिस से झड़पें भी हुई थी। तिब्बती एक्टिविस्ट पुलिस को चकमा देकर चीनी दूतावास की दीवारों पर चढ़ने की भी कोशिश कर रहे थे। पर सुरक्षा कर्मियों ने इन्हें किसी चीनी राजनयिक या फिर दूतावास की इमारत को क्षति पहुंचाने की इजाजत नहीं दी थी।

मुझे चीनी दूतावास के बाहर अटल बिहरी वाजपेयी के अनोखे प्रदर्शन की भी याद आ रही है। उसका यहां पर उल्लेख करना चाहूंगा। भारत-चीन के बीच जब 1962 में जंग छिड़ी हुई थी तब अटल बिहारी वाजपेयी ने चीनी दूतावास पर दर्जनों भेड़ों के साथ प्रदर्शन किया था। दरअसल तब चीन ने भारत पर एक हास्यास्पद आरोप लगाया था कि उसने सिक्किम की सीमा से 800 भेड़ें चुरा ली है। चीन ने भारत से उन भेड़ों को वापस करने की मांग की थी। चीन की इस मांग के जवाब में अटल जी ने जनसंघ के प्रदर्शन की अगुवाई की थी। वे तब तक लोकसभा के सदस्य हो चुके थे और अपने ओजस्वी भाषणों के चलते देशभर में अपनी पहचान बना चुके थे। प्रदर्शनकारी नारे लगा रहे थे कि विस्तारवादी चीन भेड़ों के मसले पर विश्व युद्ध चाहता है।

इस बीच, लंदन में तिरंगे के अपमान के विरोध में राजधानी दिल्ली में ब्रिटिश उच्चायोग के बाहर सिखों ने प्रदर्शन किया। ये ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगा रहे थे। पर प्रदर्शनकारियों को उच्चायोग के बाहर ही पुलिस फोर्स ने रोक दिया। प्रदर्शनकारियों ने खालिस्तानियों के खिलाफ नारेबाजी की। उन्होंने ही तिरंगे का घोर अनादर किया था। ये प्रदर्शनकारी ब्रिटेन सरकार की काहिली के खिलाफ भी नारेबाजी कर रहे थे। साफ है कि अगर हमारे यहां भी लंदन की तरह से लचर सुरक्षा इंतजाम होते तो कुछ भी अप्रिय घट सकती थी।

राजधानी की बुजुर्ग हो रही पीढ़ी को याद होगा कि चाणक्यपुरी स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग के बाहर भी लगातार प्रदर्शन होते रहे हैं। जब 1970 में पाकिस्तान की सेना पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में नरसंहार कर रही थी तब विरोध में दिल्ली के बंगाली समाज ने बार-बार पाकिस्तान उच्चायोग को घेर कर प्रदर्शन किया। उन प्रदर्शनों में अध्यापक, लेखक, चित्रकार, छात्र वगैरह भाग लेते थे। तब भी किसी को ये इजाजत नहीं थी कि कोई पाकिस्तानी उच्चायोग की इमारत या फिर तिलक मार्ग स्थित उच्चायुक्त के बंगले के बाहर सीमाओं को लांघे।

राजधानी में मित्र देश इजराइल का दूतावास पृथ्वीराज रोड पर है। इसके आसपास सुरक्षा व्यवस्था हमेशा चाक-चौबंद रहती है। मजाल है कि कोई परिंदा भी पर मार ले। हालांकि इसके आसपास कई विस्फोट तो किए गए हैं। पर इजराइली दूतावास को कभी नुकसान नहीं हुआ। यकीन मानिए कि अगर भारत की सुरक्षा एजेंसियां इजराइली दूतावास की कायदे से सुरक्षा ना कर रही होती तो कुछ भी हो सकता था। चरमपंथी इस्लामिक संगठनों के निशाने पर यह हमेशा रहती है। तो ये अंतर है हमारा और उन देशों का जहां पर भारतीय दूतावासों-उच्चायोगों पर लगातार हमले हो रहे हैं। इन पर तुरंत काबू पाना होगा।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)

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