ब्‍लॉगर

वैवाहिक जीवन की विसंगति है ‘मैरिटल रेप’

– प्रभुनाथ शुक्ल

देश का सर्वोच्च न्यायालय ‘मैरिटल रेप’ यानी वैवाहिक बलात्कार पर आगामी 09 मई को अपनी सुनवाई करेगा। स्त्री-पुरुष के वैवाहिक संबंधों को लेकर यह मामला बेहद संवेदनशील है। सवाल उठता है कि क्या शादीशुदा जीवन में ‘बलात शब्द’ का कोई स्थान होना चाहिए। विवाह एक आपसी और जीवनपर्यन्त चलने वाला रिश्ता है। दैहिक संतुष्टि स्त्री-पुरुष संबंधों की एक जरूरत है। यह जीवन की नैसर्गिक आवश्यकता है। लेकिन आधुनिक सभ्यता में ‘मैरिटल रेप’ अब सिर्फ एक शब्द नहीं, हाल के दिनों में स्त्री अधिकार और उसके विमर्श का केंद्र बन गया है। भारत जैसे उदार देश में एक तरफ तीन तलाक और हलाला जैसी कुप्रथाएं पुरुष के एकाधिकार को साबित करती हैं। वहीं ‘मैरिटल रेप’ यानी वैवाहिक बलात्कार भी स्त्री अधिकारों का दमन है।

‘मैरिटल रेप’ सामाजिक विद्रूपता और कुरूपता है। इसके पीछे पुरुष एकाधिकार की गंध आती है। महिलाओं को सिर्फ समर्पण, त्याग, दया और ममता की प्रतिमूर्ति समझना कहाँ का न्याय है। स्त्री और पुरुष अर्धनारीश्वर है। दोनों के बिना किसी एक का अस्तित्व नहीं है। आधुनिक युग में जहाँ ‘लिव इन रिलेशन’ समलैंगिकता और विवाह पूर्व सेक्स आम प्रचलन में है। वहीं इनके संरक्षण के लिए जैसी गैर सामाजिक संस्थाओं का उदय भी हो रहा है। हालांकि कुछ माँग तो भारत जैसे देश के लिए गैर जरूरी हैं। कोई भी अनैतिक संस्कृति निजता नहीं हो सकती। वैवाहिक जीवन में सहमति और असहमति के बीच ‘सेक्स’ स्त्री और पुरुष के बीच द्वंद की दीवार बन है।


वैवाहिक जीवन में ‘बलात्कार शब्द’ का औचित्य ही नहीं होना चाहिए। विवाह जीवन की पहली सहमति है। वह स्त्री-पुरुष के आपसी समझौते का संस्थागत दस्तावेज है।दोनों के बीच ‘दैहिक संतुष्टि’ एक प्राकृतिक शाश्वत सत्य है। दैहिक संतुष्टि पर जितना प्राकृतिक अधिकार स्त्री का है उतना ही पुरुष का है। इस सत्य के पीछे सृष्टि संरचना का एक अनूठा संसार भी है। क्या हम ऐसे विवादों को खड़ा कर जीवन संरचना के ‘शाश्वत सत्य’ को ही मिटाने पर तुले हैं। क्या हम प्राकृतिक सत्य को ही नकारने पर अमादा हैं।

वैवाहिक जीवन में ‘दैहिक संतुष्टि’ स्त्री-पुरुष का प्राकृतिक अधिकार है। इसे सिर्फ स्त्री विमर्श और उसके अधिकार के रूप में नहीं विश्लेषित किया जाना चाहिए। फिलहाल ऐसी बहस कितनी जायज है जब जीवन की निजी आजादी की आड़ में विवाह पूर्व ‘उन्मुक्त सेक्स’ की संस्कृति पनप रहीं है। इस तरह के विवाद से स्त्री-पुरुष संबंध अच्छे नहीं हो सकते।इसके पीछे स्त्री की उन्मुक्तता भी प्रमुख कारण है। वह सैक्स जैसे अधिकार पर पुरुष का एकाधिकार नहीं मानना चाहती। सफल वैवाहिक जीवन में यौन हिंसा का कहीं स्थान नहीं होना चाहिए। यौन हिंसा ही तलाक और दूसरे मुद्दों का कारण बनती है।

भारत में 29 फीसदी महिलाएं वैवाहिक जीवन में यौन हिंसा का शिकार हैं। गांव और शहर में इसका अंतर साफ-साफ दिख सकता है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के एक आंकड़े अनुसार यौन हिंसा का सबसे अधिक प्रभाव ग्रामीण इलाकों में देखने को मिलता है। ग्रामीण इलाकों में 32 फीसदी और शहरों में 24 फीसदी महिलाएं वैवाहिक जीवन में यौनिक हिंसा का शिकार हैं। महिलाओं को ऐसी हिंसा से बचने के लिए डॉमेस्टिक वायलेंस एक्ट (घरेलू हिंसा कानून) भी है। दुनिया के 185 देशों में सिर्फ 77 में ‘मैरिटल रेप’ पर कानून बना है। बाकी 108 देश में 74 देश ऐसे हैं जहां महिलाओं को रिपोर्ट दर्ज कराने का अधिकार है। भारत के समेत 34 देशों में मैरिटल रेप को लेकर कोई कानून नहीं है। आधुनिक परिवेश में यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है। क्योंकि विवाह नामक संस्था को बनाए रखना भी हमारी सामाजिक चुनौती है। हम एक अच्छी स्त्री चाहते हैं, लेकिन हमें एक अच्छा पुरुष भी बनना होगा। अदालत के किसी भी फैसले का असर समाज पर दूरगामी हो सकता है। सरकार और संवैधानिक संस्थाओं को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा।

भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार शहरी 24 फीसदी महिलाएं इस समस्या से पीड़ित हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि 18 से 49 साल की महिलाएं जो विवाहित हैं संबंध बनाने के दौरान यौनिक हिंसा की शिकार होती हैं। इसके पीछे पुरुष की सेक्सुअल उन्मुक्तता भी सबसे प्रमुख कारण बनती है। तमाम स्थितियों में पुरुष नशे की हालत में महिलाओं से संबंध बनाते हैं। पुरुष की उग्र यवन चाहत की वजह से महिलाएं शारीरिक रूप से चोटिल होती हैं। वैवाहिक जीवन में स्त्री-पुरुष का संतुष्ट होना दोनों के लिए आवश्यक है।

इंडियन पैनल कोर्ट की धारा 375 के तहत इस तरह मामले दर्ज किए जाते हैं। हालांकि अनिच्छा से किए गए शारीरिक संबंध एक तरह से कानूनी संरक्षण भी दिया गया है। इसमें कहा गया है अगर पति-पत्नी की उम्र 15 साल से अधिक है तो वह बलात संबंध यानी मैरिटल रेप की श्रेणी में नहीं आता है। मेरे विचारधारा से यह गलत व्याख्या है। जब हमारे देश में बालिग होने की उम्र 21से 18 साल है फिर इस व्याख्या का कोई मतलब नहीं निकलता है। स्त्री-पुरुष के अधिकारों को लेकर बेमतलब साबित होता है।

‘मैरिटल रेप’ के मसलों को अदालत में सुलझाने के बजाय आपसी सहमति निपटाना जरूरी है। ऐसी स्थिति विवाह नामक संस्था को ठेस पहुंचाती है। हम वैवाहिक स्त्री-पुरुषों के बीच समानता के अधिकार के पोषक हैं। वैवाहिक जीवन में हम बलात का समर्थन नहीं करते हैं। लेकिन कुछ ऐसी स्थितियां होती हैं जिसमें पुनर्विचार की आवश्यकता है। क्योंकि स्त्री-पुरुष के बीच नैसर्गिक संबंध एक आवश्यकता है। फिलहाल पूरा मामला देश की शीर्ष अदालत में विचाराधीन है। हमें उसके फैसले का इंतजार करना होगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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