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चुनौती बनती जा रही बढ़ती आर्थिक असमानता

February 02, 2022

– योगेश कुमार गोयल

पिछले दिनों वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये आयोजित विश्व आर्थिक मंच के दावोस एजेंडा शिखर सम्मेलन के दौरान पेश गैर सरकारी संगठन ‘ऑक्सफैम’ की रिपोर्ट ‘इनइक्वलिटी किल्स’ के अनुसार कोरोना महामारी के दौर में अमीर जहां और अमीर होते जा रहे हैं, वहीं गरीब और गरीब हो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार महामारी के दौरान भारत के अरबपतियों की कुल सम्पत्ति बढ़कर दोगुने से अधिक हो गई और इस दौरान भारत में अरबपतियों की संख्या भी 39 फीसदी बढ़कर 142 हो गई है। देश के दस सर्वाधिक अमीर लोगों के पास इतनी सम्पत्ति है, जिससे पूरे ढाई दशकों तक देश के हर बच्चे को स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा दी जा सकती है।

आर्थिक असमानता पर आई इस रिपोर्ट के मुताबिक 142 भारतीय अरबपतियों के पास कुल 719 अरब अमेरिकी डॉलर यानी 53 लाख करोड़ रुपये से अधिक की सम्पत्ति है और देश के सबसे अमीर 98 लोगों की कुल सम्पत्ति भारत के 55.5 करोड़ सबसे गरीब लोगों की कुल सम्पत्ति के बराबर है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि महामारी के दौरान सबसे धनी 10 फीसदी लोगों ने राष्ट्रीय सम्पत्ति का 45 फीसदी हिस्सा हासिल किया, जबकि निचले स्तर की 50 फीसदी आबादी के हिस्से मात्र छह फीसदी राशि ही आई। रिपोर्ट में सरकार से राजस्व सृजन के प्राथमिक स्रोतों पर पुनर्विचार करने तथा कर प्रणाली के अधिक प्रगतिशील तरीकों को अपनाने का आग्रह करते हुए सुझाव दिया गया है कि इन अरबपतियों पर वार्षिक सम्पत्ति कर लगाने से प्रतिवर्ष 78.3 अरब अमेरिकी डॉलर मिलेंगे, जिससे सरकारी स्वास्थ्य बजट में 271 फीसदी बढ़ोतरी हो सकती है।

कोरोना महामारी के इस दौर में एक ओर जहां करोड़ों लोगों के काम-धंधे चौपट हो गए, लाखों लोगों की नौकरियां छूट गई, अनेक लोगों के कारोबार घाटे में चले गए, वहीं कुछ ऐसे व्यवसायी हैं, जिन्हें इस महामारी ने पहले से कई गुना ज्यादा मालामाल कर दिया है। आंकड़े देखें तो भारत में मार्च 2020 से नवम्बर 2021 के बीच देश के 84 फीसदी परिवारों की कमाई में कमी आई और 4.6 करोड़ लोग तो अत्यंत गरीबी में चले गए। इस बीच जितने लोग पूरी दुनिया में गरीबी के दलदल में फंसे, भारत में यह संख्या उसकी आधी है। एक ओर जहां गरीबों की संख्या बड़ी तेजी से बढ़ी है, वहीं भारत में अब इतने अरबपति हो गए हैं, जितने फ्रांस, स्वीडन तथा स्विट्जरलैंड को मिलाकर भी नहीं हैं। अति धनाढ्य वर्ग तथा अत्यंत गरीबी में फंसे लोगों के बीच की चौड़ी होती खाई अन्य कमजोर वर्गों को भी प्रभावित कर रही है। आर्थिक विषमता चिंताजनक स्थिति तक बढ़ गई है और विश्व बैंक पहले ही चेतावनी दे चुका है कि दस करोड़ से ज्यादा लोग चरम गरीबी में धकेले जा सकते हैं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट में पिछले साल भी स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि यदि कोरोना के कुबेरों से वसूली होती तो भुखमरी नहीं फैलती।

विश्व के कई अन्य देशों के साथ भारत में भी बढ़ती आर्थिक असमानता काफी चिंताजनक है क्योंकि बढ़ती विषमता का दुष्प्रभाव देश के विकास और समाज पर दिखाई देता है और इससे कई तरह की सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियां भी पैदा होती हैं। करीब दो साल पहले भी यह तथ्य सामने आया था कि भारत के केवल एक फीसदी सर्वाधिक अमीर लोगों के पास ही देश की कम आय वाली सत्तर फीसदी आबादी की तुलना में चार गुना से ज्यादा और देश के अरबपतियों के पास देश के कुल बजट से भी ज्यादा सम्पत्ति है। आज विश्व आर्थिक पत्रिका ‘फोर्ब्स’ की अरबपतियों की सूची में सौ से भी ज्यादा भारतीय हैं जबकि तीन दशक पहले तक इस सूची में एक भी भारतीय नाम नहीं होता था। हालांकि देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ना प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात होनी चाहिए लेकिन गर्व भी तो तभी हो सकता है, जब इसी अनुपात में गरीबों की आर्थिक सेहत में भी सुधार हो।

बहरहाल, ऑक्सफैम की रिपोर्ट में मांग की गई है कि धनी लोगों पर उच्च सम्पत्ति कर लगाते हुए श्रमिकों के लिए मजबूत संरक्षण का प्रबंध किया जाए। दरअसल बड़े औद्योगिक घरानों पर टैक्स लगाकर सार्वजनिक सेवाओं के लिए आवश्यक संसाधन जुटाए जा सकते हैं। कुछ विशेषज्ञों का मत है कि देश के शीर्ष धनकुबेरों पर महज डेढ़ फीसदी सम्पत्ति कर लगाकर ही देश के कई करोड़ लोगों की गरीबी दूर की जा सकती है लेकिन किसी भी सरकार के लिए यह कार्य इतना सहज नहीं है। दरअसल यह जगजाहिर है कि बहुत से राजनीतिक फैसलों पर भी अब इन धन कुबेरों का ही नियंत्रण होता है। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के कारण वहां के समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता पर गहरी चिंता व्यक्त की थी। इसके अलावा बौद्ध धर्मगुरू दलाईलामा तथा ईसाई धर्मगुरू पोप फ्रांसिस सहित कुछ अन्य प्रमुख हस्तियां भी बढ़ती आर्थिक असमानता पर निशाना साधते हुए कह चुकी हैं कि अत्यधिक धन पिपासा समाज में एक नई प्रकार की निरंकुशता को जन्म देती है। बहरहाल, संयुक्त राष्ट्र जैसी कुछ वैश्विक संस्थाओं के अलावा कुछ देशों की सरकारें हालांकि गरीबी उन्मूलन, बेरोजगारी और आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए वर्षों से प्रयासरत हैं लेकिन बेहतर परिणाम सामने आते नहीं दिख रहे।

1980 के दशक की शुरूआत में एक फीसदी धनाढ्यों का देश की कुल आय के छह फीसदी हिस्से पर कब्जा था लेकिन बीते वर्षों में यह लगातार बढ़ता गया है और तेजी से बढ़ी आर्थिक असमानता के कारण स्थिति बिगड़ती गई है। आर्थिक विषमता आर्थिक विकास दर की राह में बहुत बड़ी बाधा बनती है। दरअसल जब आम आदमी की जेब में पैसा होगा, उसकी क्रय शक्ति बढ़ेगी, देश की आर्थिक विकास दर भी तभी बढ़ेगी। अगर ग्रामीण आबादी के अलावा निम्न वर्ग की आय नहीं बढ़ती तो मांग में तो कमी आएगी ही और इससे विकास दर भी प्रभावित होगी। हालांकि बढ़ती आर्थिक असमानता को कम करना सरकार के लिए बहुत बड़ी आर्थिक-सामाजिक चुनौती है लेकिन अगर सरकारों में दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो इस असमानता को कम किया जा सकता है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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