अक्ल के अंधे लगाते हैं, खुद के गले में फंदे… चले थे पठान का विरोध करने, बालीवुड की सफल फिल्म बना डाला… पहले ही हफ्ते अरबों का मालिक बना डाला… ऐसा लगा जैसे विरोधियों ने फिल्म की सफलता की सुपारी ली थी… जो नहीं जाना चाहते थे… कथानक से लेकर एक्शन-डायरेक्शन को समझना चाहते थे… दरें घटने का इंतजार करना चाहते थे… उन्हें भी बॉक्स ऑफिस पर धका डाला… पहले दिन पहले शो की चाहत में पहले हफ्ते की पहली फिल्म बना डाला… भगवा रंग से लेकर बेशर्म रंग तक दिखा डाला… शाहरुख को फिर किंग खान बना डाला… पता नहीं कब समझेंगे नारेबाज… सबकी अपनी सोच है… सबकी अपनी समझ है… सवा अरब लोगों का यह देश मुट्ठीभर लोगों के नजरिये से नहीं चलता है… हर व्यक्ति समझता है कि कहां धर्म की दीवारें होती हैं… कहां मजहबी विचारधाराएं चलती हैं… कहां सोच विराम लेती है… कहां संकुचित विचारधाराओं की बेडिय़ां दिखती हैं… चंद लोग देश की सोच के ठेकेदार नहीं बन सकते… उलजुलूल विरोध की उंगली पकडक़र नहीं चल सकते… फिल्मों में लोग मजहब नहीं मनोरंजन देखते हैं… किसी फिल्म से जोश भरकर निकलते हैं तो कहीं सबक भी मिलते हैं… कुछ फिल्में देशप्रेम सिखाती है तो कुछ आतंक को मिटाती है… एक फिल्म के पीछे हजारों लोगों की मेहनत छुपी होती है… सैकड़ों की रोजी चलती है… फिल्म में एक शाहरुख ही नहीं कइयों की किस्मत दांव पर लगती है और उनकी किस्मत चंद नासमझो की मोहताज नहीं रहती है… फिल्में प्रेम करना सिखाती हैं… कत्र्तव्य का बोध कराती हैं… संघर्ष की कहानियां हौंसला बढ़ाती हैं… गद्दारों को अंजाम तक पहुंचाती हैं… कई कहानियां हमारे जीवन की हकीकत से ही निकलकर परदे पर आती हैं… उसे नफरत के चश्मे से देखना… लोगों की भावनाओं को भडक़ाना… हिंसा पर उतर आना… विरोधियों को असली जिंदगी का विलेन बना डालती है… और विलेन की धुलाई दर्शकों को अच्छी लगती है… इसीलिए जिस फिल्म का विरोध जितने चरम पर होता है… वो फिल्म उतनी सफल हो जाती है… देश की जनता अपना फैसला सुनाती है… कोई भी कहानी किसी शाहरुख पर जाकर नहीं ठहर जाती है… जब जनता पठान बनती है तो विरोधियों की पठानी धरी रह जाती है…
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