ब्‍लॉगर

‘अब्बाजान’ की संसदीयता पर बेमतलब का हंगामा

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

सत्र चाहे संसद का हो या विधान मंडल का, घेरना और घिरना तो आम बात है। तंज के बिना काम तो वैसे भी नहीं चलता। बहस की स्थिति यह होती है कि न सत्तापक्ष बहस चाहता है और न ही विपक्ष। बहुधा देखने में यह आता है कि सदन में होने वाली बहस में जन सरोकारों से जुड़े मुद्दे गायब हो जाते हैं और अनावश्यक मुद्दों पर हंगामा और शोर-शराबा होता रहता है। ऐसे में सत्र का अधिकांश समय बर्बाद हो जाता है। विरोध करना वैसे भी आसान होता है। इसलिए विधानसभा या विधान परिषद के सदस्यों को समस्या के साथ उसका समाधान जरूर सुझाना चाहिए। सदन में जैसा निर्णय हो, उसका स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन अपनी बात रखने में कैसा संकोच।

उत्तर प्रदेश में विधानसभा के मानसून सत्र के पहले दिन विपक्षी दलों के विधायकों ने विरोध का जबर्दस्त नवोन्मेष किया। कोई बैलगाड़ी से आया तो कोई रिक्शे से। कोई ठेला लिए आया।जाहिर सी बात है कि यह सब डीजल-पेट्रोल की महंगाई के विरोध में हुआ होगा लेकिन माननीय अपने वाहनों के इस्तेमाल पर जरूरत भर रोक लगाकर देश और प्रदेश को एक सकारात्मक संदेश तो दे ही सकते हैं।

अपने देश में अच्छी बात यह है कि यहां लोग प्रतीकों से ही काम चला लेते हैं। उन्हें पता है कि प्रतीक का मामला क्षणिक होता है। यथार्थ में अपने विधानसभा क्षेत्र से लखनऊ पहुंचना कष्टसाध्य तो है ही, माननीयों के धैर्य की परीक्षा भी है। मीडिया में फोटो आए, बस काम खत्म। उसके बाद न बैलगाड़ी की कद्र होती है और न ही रिक्शे-ठेले की। सदन से लौटते वक्त भी कभी किसी नेता ने इस तरह का नवोन्मेष किया हो, ऐसा देखने-सुनने में तो नहीं आया।

अब्बाजान को लेकर विधान परिषद में जमकर हंगामा हुआ। मुख्यमंत्री ने तो यहां तक पूछ लिया कि क्या ‘अब्बाजान’ शब्द असंसदीय है। मुस्लिमों के वोट की राजनीति करने वालों को अब्बाजान शब्द से परहेज क्यों हैं? मुख्यमंत्री को भी सोचना होगा कि अब्बाजान शब्द के प्रयोग से नहीं, उसके कहने के तरीके से है। अब्बाजान पूरी तरह संसदीय शब्द है लेकिन वह कहा कैसे और किस परिप्रेक्ष्य में गया, महत्वपूर्ण यह है। जब कोई शब्द व्यंग्य की तरह चुभे तो उसका प्रभाव कुछ ऐसा ही होता है। इंद्रप्रस्थ की सभा में जाते हुए जब जल की जगह थल के भ्रम में दुर्योधन पानी में गिर गया तो द्रौपदी ने एक मजाक किया था। उसने कहा था कि ‘अंधे के बेटे भी अंधे ही होते हैं’ और इसकी परिणिति महाभारत जैसे युद्ध के रूप में हुई थी।

यह सच है कि समाजवादी पार्टी का अनुराग मुस्लिम समाज से कुछ ज्यादा ही रहा है। मुस्लिम-यादव के एमवाई समीकरण के लिए हमेशा उसकी आलोचना होती रही है। साध्वी ऋतंभरा ने तो अयोध्या आंदोलन के दौर में मुलायम सिंह यादव को मुल्ला मुलायम तक कह दिया था। कारसेवकों पर गोली चलवाने के मामले को मुस्लिम वोट की फसल के रूप में तब्दील करने में मुलायम सिंह यादव ने वैसे भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। अगर उनके लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अब्बाजान शब्द का प्रयोग एक टीवी चैनल पर किया है तो इस पर अखिलेश यादव और उनके पार्टीजनों का भड़कना स्वाभाविक भी है। अखिलेश यादव ने तो तत्काल अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर दी थी कि मुख्यमंत्री अपनी वाणी पर संयम रखें, वर्ना मैं भी उनके पिता के बारे में कुछ अप्रिय बोल दूंगा।

मुख्यमंत्री पद की अपनी गरिमा होती है। इसलिए शब्दों का चयन करते वक्त मुख्यमंत्री को उस गरिमा का ध्यान रखना चाहिए और मुख्यमंत्री तो संत भी हैं, ऐसे में उन्हें तो बोलते वक्त कबीर की नसीहतों पर अवश्य विचार करना चाहिए- ‘हिए तराजू तोल के तब मुख बाहरि आनि।’ वैसे भी अब्बाजान का मामला इतना बड़ा नहीं है कि उसके लिए सदन का महत्वपूर्ण समय बर्बाद किया जाए। जनता की बहुतेरी ऐसी समस्याएं हैं, जिन पर सरकार को घेरा जा सकता है। पहले विधायक अध्ययन करके पूरी तैयारी के साथ सदन में आते थे और जनहित के मुद्दों को उठाया करते थे लेकिन अब वह बात रही। न प्रतिपक्ष के लोग बहस करना चाहते हैं और न ही सत्तापक्ष चाहता है कि बहस हो। इसलिए सत्र से पहले ही ऐसे कुछ बिना सिर-पैर के मुद्दे जान-बूझकर उछाल दिए जाते हैं जिसका कोई फायदा नहीं होता।

किसी दल के एक नेता के विचार निजी हो सकते हैं, लेकिन उसे पूरी पार्टी का विचार मान लेना उचित नहीं है। सपा के मुस्लिम सांसद बर्क के बयान पर सपा को तालिबान समर्थक कहना उचित नहीं है। हालांकि बर्क भी अपने बयान से पलट गए हैं और कह रहे हैं कि उनके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया है। इधर अलीगढ़ को हरीगढ़ और देवबंद को देववृंद करने की मांग उठ रही है। नाम तो देश या प्रदेश में किसी भी स्थान का बदला जा सकता है, बदला भी जाता रहा है लेकिन उससे अगर आम जनता को कोई लाभ होता है तो इस तब्दीली का कोई मतलब भी है।

मानसून सत्र के पहले दिन देवबंद में पुलिस के आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) का कमांडो सेंटर बनाने, मेरठ, बहराइच और जेवर समेत कई और जगहों पर एटीएस की इकाई स्थापित करने का विचार सराहनीय है लेकिन उसके समय पर सवाल उठना स्वाभाविक है। हालांकि नेपाल से सटे और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आतंकी गतिविधियों को देखते हुए ऐसा करना प्रदेश की जरूरत भी है लेकिन ऐसा करने भर से आतंकी गतिविधियां रुक जाएंगी,यह मुमकिन नहीं है। इसके लिए सम्यक निगरानी की जरूरत होगी। किसी भी पक्ष द्वारा इस तरह की बयानबाजी नहीं होनी चाहिए जो दिल दुखाने वाली हो। वैक्सीन किसी व्यक्ति की नहीं होती, देश की होती है। उस पर जनता को गुमराह करने की बजाय जनता को वैक्सीनेशन को लेकर प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

विपक्ष को अनुपूरक बजट के गुण-दोष पर, विकास कार्य की कमियों और अच्छाइयों पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। शालीनता के दायरे में संयमित रूप से भी अपनी बात कही जा सकती है। विधायकों और सांसदों का आचरण लोकमानस को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। सारी ऊर्जा अगर वे सड़क पर ही खर्च कर देंगे तो सदन में वे क्या करेंगे, चिंतन तो इस पर भी होना चाहिए। विधानसभा और विधान परिषद के मानसून सत्र के समय का सर्वाधिक समय उपयोग में आए, इस पर विचार कर नेताओं को अपनी रणनीति तय करनी चाहिए। नवोन्मेष करना ही है तो सदन में करें, नए विचारों, नए सुझावों के साथ करें। विरोध-विरोध के लिए नहीं, मुद्दों और सिद्धांतों पर हो, तभी उसकी सार्थकता है।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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