ब्‍लॉगर

कृषि कानून में नहीं, नेताओं के मन में काला

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

किसान आंदोलन सुर्खियों में है। सड़क से लेकर संसद तक किसान आंदोलन चर्चा के केंद्र में है। केंद्र सरकार द्वारा पास तीन कृषि कानूनों का विरोध हो रहा है। उसे काला कानून बताकर वापस लेने की मांग की जा रही है। जो दल आज कह रहा है कि सत्ता में आए तो तीनों कानून रद्द करेंगे, जब उस दल की सरकार थी तो इसी तरह का कानून लाने की वकालत कर रही थी। आज वह विपक्ष में है तो इस कानून में काला नजर आ रहा है। सत्ता पक्ष कह रहा है कि रंग नहीं, कानून का संदर्भ देखो। विरोध में संदर्भ देखने की परंपरा नहीं है। विरोध तो बस खत्म करने में यकीन रखता है।

किसान नेताओं के अपने तर्क हैं। न मंच टूटेगा और न किसान मोर्चा टूटेगा। 26 जनवरी से भी बड़ा आंदोलन होगा। पहले चार लाख ट्रैक्टर लाए थे, अब चालीस लाख लाएंगे। एक किसान नेता कह रहा है कि सरकार गिराने का उसका इरादा नहीं, सरकार बस किसानों की समस्या हल करे। किसान मोर्चा के दो नेता कह रहे हैं कि जब हरियाणा सरकार गिरेगी तब केंद्र को किसानों की ताकत का पता चलेगा। बात जोर-आजमाइश की हो रही है। समूचा किसान आंदोलन भटका हुआ है।


सत्ता पक्ष को पता है कि यह आंदोलन सभी किसानों का नहीं है, मुट्ठी भर बड़े किसानों का है। लेकिन इसके राजनीतिकरण को लेकर वह परेशान भी है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि माओवादियों, खालिस्तानी आतंकवादियों की रिहाई की मांग कर आन्दोलनजीवियों ने किसानों के आंदोलन को अपवित्र कर दिया है। टेलीफोन वायर तोड़ने, टोल प्लाजा पर कब्जा करने पर उन्होंने चिंता जाहिर की है। आन्दोलनजीवियों पर निशाना भी साधा है, यह भी कहा है कि जो लोग अपना आंदोलन खड़ा नहीं कर पाते, वे किसी के भी आंदोलन का हिस्सा बन जाते हैं। चौधरी चरण सिंह, डॉ. मनमोहन सिंह के नजरिये का उल्लेख कर उन्होंने आन्दोलनजीवियों को आईना भी दिखाया है। कांग्रेस पर तो सीधा हमला किया है और यहां तक कह दिया है कि कांग्रेस न अपना भला कर सकती है और न देश का।

संसद में हंगामे की वजह उन्होंने विपक्ष के भय को बताया है। उनके हिसाब से हंगामा इसलिए हो रहा है कि कुछ लोग चाहते हैं कि जो झूठ किसान कानूनों को लेकर उन्होंने फैलाया है, उसे लोग जान न जाएं। उसका पर्दाफाश न हो जाए। उन्होंने किसानों से भी यह पूछा है कि नए कानूनों के पास होने के बाद उनका कौन-सा पूर्व का अधिकार छिन गया है। उन्होंने विपक्ष के तर्कों पर भी प्रहार किया है कि जब किसान कृषि सुधार कानून मांग ही नहीं रहे तो आप कानून क्यों ले आए। इसपर प्रधानमंत्री ने कहा है कि मांगने के लिए मजबूर करने वाली सोच लोकतंत्र की सोच नहीं हो सकती। प्रधानमंत्री ने आन्दोलनजीवियों और आंदोलनकारियों के बीच का फर्क किए जाने पर जोर दिया है।

इससे सबक लेने की बजाय राजनीतिक दल आन्दोलनजीवी की बांग लगाने लगे हैं। कुछ खुद को आन्दोलनवादी कहने लगे हैं। आंदोलन पवित्र तभी होता है, जब उसमें मिलावट न हो। राजनीतिक घालमेल न हो। इस आंदोलन को तो पहले दिन से ही राजनीतिक समर्थन रहा है। आज भी है। किसान आंदोलन तो बहाना है, निशाना कहीं और है। जिस तरह इस आंदोलन को विदेशी फंडिंग हो रही है, उसे भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। राकेश टिकैत एक ओर तो यह कहते नजर आते हैं कि सरकार आंदोलन को लंबा खींचना चाहती है, दूसरी ओर वे खुद अक्टूबर-नवम्बर तक आंदोलन को चलाने की बात कर रहे हैं। इस विरोधाभास को किस तरह देखा जाएगा?

किसान आंदोलन के चलते विपक्ष देश में, खासकर उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत करना चाहता है लेकिन जनता सब जानती है कि कौन क्या कर रहा है। अच्छा होता कि आंदोलन की पवित्रता-अपवित्रता के मकड़जाल में फंसने की बजाय उसे खत्म करने-कराने पर विचार होता। अर्द्धसत्य दुख ही देते हैं, इसे जितनी जल्दी समझ लिया जाएगा, उतना ही उचित होगा। जब सर्वत्र ताकत दिखाने का खेल चल रहा हो तो स्याह-सफेद होना स्वाभाविक है। कानून काला नहीं है, कालिमा तो मन में है, उसका शोधन होना चाहिए।जब सब पैतरे पर हों तो बात वैसे भी नहीं बनती। राजनीतिक दल अपनी फितरती पैतरों से बाज आएं, तभी इस देश के किसानों का भला हो सकेगा। आशंकाओं की राजनीति देश का बेड़ा गर्क ही करेगी।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)

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