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गोपीनाथ बरदलोई: पूर्वोत्तर के उन्नायक

अरविंद कुमार राय
‘भारत रत्न’ से विभूषित गोपीनाथ बरदलोई को याद करना पूर्वोत्तर भारत को राष्ट्रीय धारा के साथ जोड़े रखने की उनकी कोशिशों को जानने की तरह है। ज्ञातव्य है कि आजादी के पहले संपूर्ण पूर्वोत्तर असम के रूप में ही पहचान रखता था और विभाजन के समय उसे पाकिस्तान में मिलाने के प्रयास हुए थे। गोपीनाथ बरदलोई ने न केवल उसे भारत का अंग बनाये रखने में योगदान दिया, वरन सही मायनों में वे पूर्वोत्तर के उन्नायक भी थे। उनका  जन्म छह जून, 1890 को असम के नगांव जिला के रोहा गांव में हुआ था। इनके पिता बुद्धेश्वर तथा माता प्राणेश्वरी थीं। उन्होंने एमए तथा फिर कानून की परीक्षाएं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण कीं। वर्ष 1922 में एक स्वयंसेवक के नाते वे कांग्रेस में शामिल हुए। सविनय अवज्ञा तथा असहयोग आंदोलन में वे कई बार जेल गये। पूर्वोत्तर भारत प्रायः शेष भारत से कटा रहता है; पर बरदलोई ने वहां के स्वाधीनता संग्राम को देश की मुख्यधारा से जोड़कर रखा।
1946 में बनी अंतरिम सरकार में वे असम के मुख्यमंत्री बने। इसके बाद अंग्रेजों ने स्वाधीनता और विभाजन की योजना के लिए ‘कैबिनेट मिशन’ बनाया। जिन्ना असम को भी पाकिस्तान में मिलाना चाहते थे। 1905 में बंग-भंग के समय अंग्रेज इस षड्यंत्र का बीज बो ही चुके थे। ऐसे विकट समय में गोपीनाथ बरदलोई ने सैकड़ों रैलियों का आयोजन किया। समाज के प्रबुद्ध लोगों के प्रतिनिधिमंडल शासन तथा कांग्रेस के केन्द्रीय नेताओं के पास भेजे। इससे जिन्ना का षड्यंत्र विफल हो गया। सरदार पटेल ने इस पर उन्हें ‘शेर-ए-असम’ की उपाधि दी।
स्वतंत्रता के बाद असम के मुख्यमंत्री बनते ही उन्हें शरणार्थी समस्या का सामना करना पड़ा। पूर्वी पाकिस्तान के बनते ही वहां के हिन्दुओं पर कट्टरपंथी टूट पड़े। लाखों लोग जान बचाकर बंगाल और असम में आ गये। बरदलोई ने सम्पूर्ण प्रशासनिक तंत्र को काम में लगाकर हिन्दुओं के पुनर्वास की सुचारु व्यवस्था की। इस समय असम के मुसलमान नेताओं ने अपने समर्थकों को भड़काया कि लाखों बाहरी हिन्दुओं के आने से यहां के स्थानीय मुसलमान अल्पसंख्यक हो जाएंगे। इससे मुसलमानों ने दंगे प्रारम्भ कर दिये। इस समस्या को भी बरदलोई ने बड़े धैर्य से संभालकर वातावरण शांत किया।

उस समय पूरा पूर्वोत्तर भारत असम ही कहलाता था। उसकी सीमाएं चीन और पाकिस्तान से मिलती थीं। राज्य में छोटे-छोटे अनेक जनजातीय समूह थे। यहां ईसाई मिशनरियों ने भी अपना जाल बिछा रखा था। वे इन्हें भारत से अलग होने के लिए प्रेरित करने के साथ ही आर्थिक तथा सामरिक सहयोग भी देते थे। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यातायात की भी समस्या थी। ऐसे वातावरण में बरदलोई ने बड़ी कुशलता से शासन का संचालन किया। उनका मत था कि असम की दुर्दशा का मुख्य कारण अशिक्षा है। अतः उन्होंने कई विश्वविद्यालय तथा तकनीकी, चिकित्सा, पशु शिक्षा विद्यालय आदि प्रारम्भ कराये। उन्होंने गुवाहाटी में उच्च न्यायालय की भी स्थापना की। संवैधानिक उपसमिति के अध्यक्ष के नाते उन्होंने जनजातियों के अधिकारों की रक्षा की। इस प्रकार जहां एक ओर उन्होंने असम को भारत में बनाये रखा, वहां अपने राज्य के लोगों के हितों की भी उपेक्षा नहीं होने दी।
बरदलोई एक अच्छे लेखक भी थे। जेल में रहकर उन्होंने अनासक्ति योग, श्री रामचंद्र, हजरत मोहम्मद, बुद्धदेव आदि पुस्तकें लिखीं। वे सादा जीवन उच्च विचार के समर्थक थे। सदा खादी के वस्त्र पहनने वाले, गांधीजी के परम भक्त बरदलोई का पांच अगस्त, 1950 को निधन हो गया। अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने मरणोपरांत 1999 में उन्हें भारत रत्न से विभूषित किया।
(लेखक हिंदुस्थान समाचार के असम ब्यूरो चीफ हैं।)
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