खरी-खरी

हर दर्द पर मरहम लगाया… आक्रोश की आग को स्याही बनाया… तब जाकर अग्निबाण ने स्वरूप पाया…

  • अग्निबाण का 45वें वर्ष में प्रवेश

यह अखबार नहीं जुनून है… यह कलम की स्याही नहीं जमानेभर के दिलों का खौलता खून है… जहां लोग मायूस हो जाते हैं… आक्रोश से फडफ़ड़ाते हैं… व्यवस्थाओं पर गुर्राते हैं… मनमानी पर बौखलाते हैं… जुल्म और ज्यादती को सह नहीं पाते हैं… लेकिन कुछ कर नहीं पाते हैं, तब हम कलम चलाते हैं… न प्रभाव देखते हैं… न सामथ्र्य देखकर पीछे हटते हैं… न प्रभुत्व से घबराते हैं और न ही खबरों की बोली लगाते हैं… सच और केवल कड़वा सच परोसकर आईना दिखाते हैं… अच्छाई को पुरस्कार और बुराइयों के तिरस्कार की भावनाओं से अखबार चलाते हैं… यह संस्कार है हमारा, जो हमें अपने अखबार के संस्थापक प्राण-पुरुष स्व. श्री नरेशचंद्रजी चेलावत से मिला… 43 वर्ष पहले जब न साधन थे और न ही साध्य… न कोई शाम का अखबार समझता था… न शाम को अखबार पढ़ता था… एक नई पठन संस्कृति को स्थापित कर उन्होंने शहर को पहला शाम का अखबार दिया… और उसे प्रसारित करने में अपना सर्वस्व झोंक दिया… निष्ठा, कर्मठता, लगन, धैर्य और साहस का अद्भुत संघर्ष व समर्पण करते प्राण-पुरुष ने इस शहर का विश्वास हासिल करके ही दम लिया… और मात्र 6 वर्ष की अवधि में ही अखबार को प्रचलन के मुकाम पर पहुंचाकर महाप्रयाण कर लिया… उनकी कर्म-साधना में पाठकों के प्रति जो जुनून, जज्बा और जिम्मेदारी थी उसका निर्वहन हमारी जवाबदारी रही… हमने सत्य को स्वीकारा, समझौतों को नकारा… हमने निर्भीकता को स्वीकारा, दुर्बलता को नकारा… हमने निष्पक्षता का पक्ष लिया और चाटुकारिता को लताड़ा… यह सब इसलिए संभव था, क्योंकि हमारे पास लाखों पाठकों की ताकत थी… हर हिमाकत की हिम्मत थी… हर जुल्म से टक्कर लेने का जज्बा था और सच लिखने की हसरत थी… यह तब संभव हो पाया जब अखबार के संस्थापक ने हमें एक गुरुमंत्र सिखाया… उन्होंने समझाया कि व्यक्ति से नहीं व्यवस्था से संघर्ष करो… व्यक्ति को बदलने के बजाय उसके विचारों को बदलने का प्रयास करो… यदि उसके गलत कामों को नकारो तो उसकी अच्छाई को भी स्वीकारो… कलम से जिसका अभिमान उतारो, उसका मान भी संवारो… जब आप सामथ्र्यवान का मान और चरित्र को पवित्र करने की क्षमता रखने लग जाओगे, तब वह समाज के लिए संस्कार बन जाएगा और अखबार पाठशाला कहलाएगा… उन्हीं संस्कारों और विचारों को पथ-प्रदर्शक मानकर हम कलम चला रहे हैं… शब्दों के चित्र बना रहे हैं… जज्बातों की जिम्मेदारी निभा रहे हैं… समरथ को नहीं दोष गोसाई के बजाय समरथ में क्यों दोष गोसाई की पंक्तियों को चरितार्थ करते हुए एक जिम्मेदार राष्ट्र की परिकल्पना में जिए जा रहे हैं… अपने संस्थापक के एक और महामंत्र को सफलता का साधन बना रहे हैं…वो कहते थे लोग अखबार पढ़ें उससे पहले आप उनको पढ़ो… तब से हम आपको पढ़े जा रहे हैं… पढ़े जा रहे हैं…और आपको ही लिखे जा रहे हैं… लिखे जा रहे हैं… आपके आशीष की लाखों कामनाओं के साथ हम आज 45वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं… यूं ही पलक-पांवड़े बिछाए रखना… भरोसा रखना और हौसला देते रहना…

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