ब्‍लॉगर

रूसी सुरक्षा की उपेक्षा कर महाविनाश रोकना मुश्किल

– विकास सक्सेना

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध शुरू हुए एक सप्ताह से ज्यादा समय बीत चुका है। इस दौरान दोनों देशों के बीच दो दौर की वार्ता के बावजूद कोई समाधान नहीं निकला है। इसके विपरीत नाटो देशों की तरफ से यूक्रेन को हथियार मुहैया कराए जा रहे हैं। ऐसे में यह जंग किसी भी क्षण विश्वयुद्ध का रूप ले सकती है जिसका खामियाजा पूरी दुनिया को भुगतना पड़ सकता है।

रूसी हमलों में तबाही के बावजूद यूक्रेन के राष्ट्रपति जमीनी हकीकत और रूस की सीमा सुरक्षा संबंधी आशंकाओं को समझने के लिए तैयार नहीं है। एक हास्य टीवी कार्यक्रम (कॉमेडी शो) की जबरदस्त लोकप्रियता के चलते हास्य कलाकार (कॉमेडियन) से यूक्रेन के राष्ट्रपति बने वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की आम नागरिकों को हथियार देने, कैदियों को रिहा करके जंग में शामिल करने, यूरोपीय संघ में शामिल होने का आवेदन करने और रूस पर जवाबी हमले की धमकियां देने जैसे अपरिपक्व और भड़काऊ कदमों से यूक्रेन के साथ-साथ पूरी दुनिया की समस्या को बढ़ा रहे हैं। अमेरिका समेत सभी नाटो देश आर्थिक प्रतिबंधों के जरिए रूस को काबू में करने के प्रयास कर रहे हैं लेकिन कोई भी रूस की सीमा सुरक्षा से जुड़ी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास नहीं कर रहा है जिसके बिना महाविनाश को रोक पाना अत्यंत मुश्किल दिखाई दे रहा है।

यूक्रेन संकट ने क्यूबा मिसाइल संकट की याद दिला दी है जब सोवियत संघ और अमरीका के बीच हालात इतने तनावपूर्ण हो गए थे कि पूरी दुनिया पर परमाणु युद्ध का खतरा मंडराने लगा था। दरअसल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उभरी दो महाशक्तियों सोवियत संघ और अमरीका के बीच लम्बे समय तक वर्चस्व की जंग चलती रही। अमरीका नहीं चाहता था कि सोवियत संघ की साम्यवादी विचारधारा का विश्व के दूसरे क्षेत्रों में विस्तार हो। इसके लिए उसने जिस रणनीति को अपनाया उसे ट्रूमैन सिद्धांत के तौर पर जाना गया। इसके जवाब में सोवियत संघ ने 1948 में बर्लिन की नाकेबंदी कर दी जिससे अमरीका और पश्चिमी यूरोप के देशों की चिंताएं बढ़ गईं। अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अमरीका के नेतृत्व में 12 देशों ने 04 अप्रैल 1949 को उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) की स्थापना की। इससे निपटने को सोवियत संघ ने 1955 में पूर्वी यूरोप के देशों के साथ वारसा संधि की ताकि शक्ति संतुलन बना रहे।

सोवियत संघ पर दबाव बनाने के लिए 1960 के आसपास अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने उसकी घेराबंदी शुरू कर दी। कहा जाता है कि अमरीका ने 1958 में ब्रिटेन, 1961 में तुर्की और इटली में 100 ज्यादा परमाणु मिसाइलों को तैनात कर दिया था। इसकी जानकारी मिलने पर सोवियत संघ ने भी अमरीका पर सामरिक बढ़त बनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया। इधर अमरीकी कांग्रेस ने सितम्बर 1962 में एक प्रस्ताव पारित किया जो उसके हितों पर खतरा होने की स्थिति में क्यूबा के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की अनुमति देता था। इसके साथ ही उसने कैरेबियाई सागर में सैन्य अभ्यास की भी घोषणा कर दी। इससे साम्यवादी विचारधारा के शासन वाले क्यूबा की सुरक्षा चिंताएं बढ़ गई। ऐसे में सोवियत संघ के तत्कालीन प्रथम सचिव निकिता ख्रुश्चैव और क्यूबा के प्रधानमंत्री फिदेल कास्त्रो के बीच क्यूबा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए वहां परमाणु मिसाइलें तैनात करने पर सहमति बनी।

क्यूबा में सोवियत संघ की परमाणु मिसाइलों की तैनाती के बाद अमरीका के जासूसी विमान ने 14 अक्टूबर 1962 को इसकी सूचना दी। अमरीका के फ्लोरिडा तट से महज 150 किलोमीटर दूर यूएसएसआर की परमाणु मिसाइलों की तैनाती की खुफिया जानकारी से अमरीका में हड़कंप मच गया। इन मिसाइलों के मारक क्षेत्र में अमरीका का बहुत बड़ा भाग आ गया। इससे निपटने के लिए अमरीका ने क्यूबा पर सीधे आक्रमण करने के बजाए उसके खिलाफ सीमित सैन्य कार्रवाई के साथ उसकी समुद्री नाकेबंदी कर दी। क्योंकि क्यूबा पर आक्रमण करने की स्थिति में सोवियत संघ भड़क सकता था, जिससे अमरिका के साथ सीधे युद्ध हो सकता था।

हालांकि कैनेडी प्रशासन ने क्यूबा की समुद्री नाकेबंदी को स्पष्ट करते हुए बताया कि यह सिर्फ आक्रामक हथियारों के संगरोध तक सीमित है। लेकिन अमरीका की कार्रवाई से सोवियत संघ इतना भड़क गया कि वह हमला करने को तैयार हो गया। लगभग एक माह तक चले अत्यंत तनावपूर्ण माहौल के बाद अंततः निकिता ख्रुश्चैव और जॉन एफ कैनेडी के बीच समझौता हो गया। सोवियत संघ ने क्यूबा से अपनी मिसाइलें हटाने की घोषणा की और अमरीका ने भी गुप्त रूप से इटली और तुर्की में तैनात परमाणु मिसाइलों को हटा लिया।

वर्चस्व की लड़ाई को लेकर वर्ष 1962 में जिस तरह दुनिया के सामने परमाणु युद्ध का खतरा खड़ा हो गया था कुछ वैसे ही हालात रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग से बन गए हैं। दरअसल 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद वारसा संधि और नाटो जैसे संगठनों की प्रासंगिकता खत्म हो गई थी। इसीलिए 25 फरवरी 1991 को हंगरी में हुई एक बैठक में वारसा संधि को समाप्त करने की घोषणा कर दी गई। लेकिन नाटो को खत्म करने के कोई कदम नहीं उठाए गए। हालांकि रूस को इस बात का भरोसा दिया गया कि यूक्रेन और जॉर्जिया को नाटो का सदस्य नहीं बनाया जाएगा।

इस भरोसे के बावजूद दुनिया की एकमात्र महाशक्ति अमरीका ने अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए नाटो का विस्तार शुरू कर दिया और सिर्फ 12 देशों से शुरू हुए नाटो की सदस्य संख्या 2019 में बढ़कर 30 हो गई। यहां तक कि रूस की उत्तर पश्चिम सीमा पर स्थित देश एस्टोनिया, लातेविया और लिथुआनिया को 2004 में नाटो का सदस्य बना लिया गया। ये तीनों देश पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे। नाटो की नियमावली के मुताबिक इसके किसी भी सदस्य पर हमला सभी नाटो देशों के खिलाफ युद्ध की घोषणा माना जाता है और सदस्य देशों में नाटो की संयुक्त सेना की तैनाती की जा सकती है।

नाटो के विस्तार से रूस की सीमा सुरक्षा संबंधी आशंकाएं खड़ी हो गईं। इसीलिए सोवियत संघ का ही हिस्सा रहे जॉर्जिया ने जब नाटो का सदस्य बनने में रूचि दिखाई तो 2008 में रूस ने उस पर हमला करके इसके दो क्षेत्रों अबकाजिया और दक्षिणी ओसेशिया को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया। इसके बाद जब यूक्रेन ने नाटो का सदस्य बनने के बारे में सोचना शुरू किया तो रूस ने उसके एक हिस्से क्रीमिया पर 2014 में कब्जा कर लिया।

रूस की तमाम चेतावनियों को दरकिनार कर अब एकबार फिर यूक्रेन नाटो की सदस्यता हासिल करने की कोशिश कर रहा है। अमरीका और दूसरे नाटो देशों से मदद की उम्मीद में उसने रूस की चेतावनियों की परवाह नहीं की जिसका खामियाजा उसे भारी तबाही के रूप में चुकाना पड़ रहा है। रूस ने पूर्वी यूक्रेन के दो शहरों दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र देश घोषित कर दिया है। अब ये देश रूस समर्थित विद्रोहियों के कब्जे में हैं।

पहली नजर में कोई भी रूस की कार्रवाई को यूक्रेन की सम्प्रभुता पर हमला करार दे सकता है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि उत्तर पश्चिम सीमा के बाद यूक्रेन में नाटो सेना की तैनाती रूस के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकती है। रूस की इस आशंका को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में यूक्रेन संकट के तार्किक समाधान और विश्व को महाविनाश से बचाने के लिए रूस की सीमा सुरक्षा संबंधी आशंकाओं को दूर करना आवश्यक है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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