ब्‍लॉगर

प्राकृतिक आपदाओं की भेंट चढ़ते जवान

– प्रभुनाथ शुक्ल

अरुणाचल प्रदेश के कामेंग इलाके में हिमस्खलन की वजह से सेना के सात जवान शहीद हो गए। जवानों की शहादत उस स्थान पर हुई जहां हमारे देश की सीमा चीन से लगती है। प्राकृतिक आपदाओं में सेना के जवानों की शहादत हमारे लिए बड़ा सवाल है। गृह और रक्षा मंत्रालय को एक साथ मिलकर प्राकृतिक आपदाओं में जवानों की शहादत को रोकना चाहिए। भू और मौसम वैज्ञानिकों के साथ सेना की तकनीकी विभाग को मिलकर इस प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए रणनीति बनानी चाहिए। क्योंकि बर्फ़ीले तूफान की भेंट चढ़कर अब तक एक हजार से अधिक जवान शहीद हो चुके हैं।

मौसम की गड़बड़ी की वजह से सेना के जवानों को एयरलिफ्ट नहीं किया जा सका। भारी हिमस्खलन होने से सभी सात जवान शहीद हो गए। एवलॉन्च और हिमस्खलन जैसी प्राकृतिक आपदाएं कोई नयी नहीं है। हमारे जवान दुर्गम पहड़ी इलाकों में हजारों फीट की ऊचाई पर देश की रक्षा करते हैं। सेना की शहादत और पराक्रम को भूनाने वाली सरकारों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। पूरा देश भारतीय जवानों पर गर्व करता। हम बर्फ़ीली ठंड में जब कमरों में वार्मर लगा कर राजाई में गहरी नींद लेते हैं तो हमारा जवान एवलांच और हिमस्खलन जैसी प्रकृतिक आपदा में शहीद होता है।अनावश्यक किसी जवान की शहादत से राष्ट्र को भारी क्षति पहुंचाती है। शहादत की कीमत आम भारतीय परिवार किस तरह चुकाता है, इसकी पीड़ा कोई उसी से पूछे जिनके सपने और उम्मीदें लुट जाती हैं।

‘ऐ मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुबार्नी..’स्वर कोकिला लता जी अब हमारे बीच नहीं रहीं। यह अमर गीत लिखने वाले कवि प्रदीप भी नहीं हैं, लेकिन लता और प्रदीप जी अमर हो गए। इस गीत को सुनकर हर भारतीय के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शहीदों के सम्मान में आँसू निकल आते हैं। सीना गर्व से फूल उठता है। उसके अंदर एक सैनिक का जज्बा जाग उठता है। लेकिन सेना के लिए हमारी चिंता कितनी है सवाल इस बात का भी है।

आपको याद होगा 2017 में श्रीनगर के गुरेज सेक्टर में एवलांच यानी बर्फीले तूफान में 15 जवानों की मौत ने देश को हिलाकर रख दिया। एवलांच मौत की सुनामी बन कर आया था। हमने अपने जाबाज जवानों को बेमतलब खो दिया था। जवान दुश्मन के खिलाफ जंग लड़ते नहीं प्राकृतिक कहर में मारे गए। वह भी जिस चौकी पर जवान शहीद हुए वह हमारे लिए बेहद महत्वपूर्ण थी। कुछ ऐसा ही अरुणाचल प्रदेश के कामेंग इलाके में हिमस्खलन की वजह से हुआ।

हमारे सैनिक प्राकृतिक आपदा का शिकार क्यों होते हैं।क्या हमारे पड़ोसी मुल्क चीन, अमेरिका और रूस के जवान भी बर्फीली सीमा पर इस तरह शहीद होते हैं। अगर नहीं तो हमने क्या इस बारे में कभी सोचा? जवानों की सुरक्षा के लिए हमने कोई तंत्र अब तक क्यों नहीं विकसित किया? सिर्फ जवानों की शहादत पर घड़ियाली आंसू बहाने से क्या हम जिम्मेदारियों से बच सकते हैं। सरकारों को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

फरवरी 2016 में भी हमारे 10 जवान इसी तरह शहीद हुए थे, जिसमें मेजर हनुमनथप्पा भी शामिल थे, जिन्हें कई दिन बाद बर्फ से बाहर निकाला गया, लेकिन हम उन्हें बचा नहीं पाए। हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं में एवलांच यानी बर्फीला तूफान और हिमस्खलन ठंड के मौसम में समान्य घटना है। हजारों फीट ऊंची पर्वत श्रृंखलाओं पर बर्फीले तूफान की वजह से मोटी परत जम जाती है। अधिक दबाब की वजह से जब यह नीचे आती है तो इसे एवलांच कहा जाता है। इसकी गति सीमा 100 से 150 किमी प्रतिघंटा की होती है, जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते।

हिमालयी इलाकों में सीमा की सुरक्षा बेहद खतरनाक है। जवानों का एक-एक कदम जोखिम भरा होता है। यंत्रों के माध्यम से जांच परख के बाद वह अपना कदम बढ़ाते हैं। एक-दूसरे के साथ रस्सियों के सहारे आपस में बंधे होते हैं। ऑक्सीजन कम होने से सांस लेना भी मुश्किल होता है। बर्फीली गर्तो में समाने का डर हमेशा बना रहता है। वहां तापमान माइनस से कई डिग्री नीचे रहता है।

सफेद बर्फ पर जब सूरज की रौशनी पड़ती है तो उससे आंखों की रौशनी जाने का भी खतरा बना रहता है। इसीलिए जवान विशेष प्रकार का चश्मा पहनते हैं। एवलांच और हिमस्खलन से जवानों को कैसे सुरक्षित रखा जाए अभी तक इसकी तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। यह हमारे सिस्टम की सबसे बड़ी नाकामी है। इस पर कभी विचार नहीं किया गया कि एवलांच जैसे बर्फीले तूफान से सीमा पर तैनात जवानों को कैसे बचाया जाए।

हम मंगल ग्रह पर सिर्फ तीन साल में उपग्रह भेज कर अपनी कामयाबी का झंडा बुलंद कर सकते हैं। मिसाइल तकनीक में दुनिया में भारत का लोहा मनवा सकते हैं, लेकिन जवानों की सुरक्षा के लिए वैज्ञानिक कसौटी पर खरा सुरक्षा कवच नहीं तैयार कर सकते। आखिर क्यों?

डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गनाइजेशन यानी डीआरडीओ ने 2004 में (डब्लूपीएमएस) नामक सिस्टम विकसित करने की प्लानिंग बनाई थी। जिसे वैरियबल साइकोलॉजिकल मॉनिटरिंग सिस्टम का नाम दिया था। संक्षिप्त में उसे स्मार्ट वेस्ट भी कहा गया। इस तकनीक के माध्यम से बर्फीली सीमा पर तैनात जवानों को एक सेंसर लगी जैकेट दी जाती। उस सेंसर के जरिए जवानों की पूरी लोकेशन और स्वास्थ्य की जानकारी कमांडिंग कंट्रोल कैंप को मिलती रहती। संयोग से अगर जवानों की टीम हिमस्खलन या बर्फीले तूफान में फंस गयी तो सेंसर के जरिए वह जानकारी बेसकैंप तक पहुंच जाती, जिससे पूरी यूनिट सतर्क हो जाती और फंसे जवान को सुरक्षित निकालने का प्रसास किया जाता। लेकिन अभी तक यह सुविधा सेना को उपलब्ध हुईं या नहीं यह हम नहीं कह सकते। वैसे वर्तमान सरकार सेना के तकनीकी विकास, सुरक्षा और उनकी सुविधाओं को लेकर अधिक संवेदनशील है, लेकिन सेना प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए बहुत कुछ करना है।

सेना के संपूर्ण विकास और उसकी सुरक्षा के लिए अलग से रणनीति बननी चाहिए। रक्षा और गृहमंत्रालय को इस पर त्वरित नीतिगत फैसले की जरूरत है।भारतीय सेना प्राकृतिक विषमताओं वाले दुर्गम इलाकों में काम करती है, जिससे उसके स्वास्थ्य और सुरक्षा का मसला हमेशा खड़ा रहता है। सेना के लिए एक खास वैज्ञानिक और तकनीकी यूनिट का विकास होना चाहिए, जिसका काम सिर्फ सेना की सुरक्षा और उसकी तकनीकी सुविधाओं का ख्याल रखे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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