ब्‍लॉगर

किसानों का आंदोलन

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के किसान आंदोलित हैं। उन्हें केंद्र सरकार द्वारा पारित तीन नए कृषि कानूनों उत्पाद, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा कानून, सशक्तिकरण और संरक्षण समझौता कानून पर आपत्ति है। उन्हें भय है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारण की व्यवस्था समाप्त कर सकती है। किसान अपने उत्पाद राज्य के बाहर ले जाने लगेंगे तो कृषि मंडियां खत्म हो जाएंगी। बड़ी कंपनियां अगर अनुबंध पर खेती कराने लगेंगी तो इससे किसानों को नुकसान होगा। वे उनसे ढंग से मोल-तोल नहीं कर पाएंगे। किसान आढ़तियों से पैसा नहीं ले पाएंगे। उन्हें लगता है कि केंद्र सरकार द्वारा संसद से पास ये तीनों कानून मंडी तोड़ने, न्यूनतम समर्थन मूल्य को ख़त्म करने और कॉरपोरेट ठेका खेती को बढ़ावा देने वाले हैं। विपक्षी दलों खासकर कांग्रेस ने पहले से किसानों के दिमाग में यह बात डाल रखी है। हालांकि केंद्र सरकार इस कानून के बनने से पहले और बनने के बाद भी किसानों को सुस्पष्ट कर चुकी है कि उनकी आशंका निराधार है। सरकार जो कुछ भी कर रही है, उसके पीछे उसका उद्देश्य किसानों की आमदनी बढ़ाना है।

देश में 70 प्रतिशत किसान हैं जिसमें 60 प्रतिशत प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से खेती-किसानी पर निर्भर हैं। भारत में 10.07 करोड़ किसानों की हालत दयनीय है, इनमें से 52.5 प्रतिशत किसान कर्ज में दबे हुए हैं। देश में एक किसान के पास औसतन 1.1 हेक्टेयर जमीन है। हर कर्जदार किसान पर औसत 1.046 लाख रुपये का कर्ज है। नाबार्ड के 2017 के अध्ययन से पता चलता है कि भारत में केवल 5.2 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं, 1.8 प्रतिशत के पास पावर टिलर, 0.8 प्रतिशत के पास स्प्रिंकलर, 1.6 प्रतिशत के पास ड्रिप सिंचाई व्यवस्था और 0.2 प्रतिशत के पास हार्वेस्टर हैं। इस असमानता को अगर राज्यवार देखें तो हम पाएंगे कि पंजाब में 31 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं। गुजरात में 14 प्रतिशत और मध्य प्रदेश में 13 प्रतिशत किसानों के पास ट्रैक्टर हैं, जबकि देश में ट्रैक्टर मालिक किसानों का औसत 5.2 प्रतिशत है। इसी तरह आंध्र प्रदेश में 15 प्रतिशत और तेलंगाना के 7 प्रतिशत किसानों के पास पावर टिलर हैं, जबकि भारत का औसत 1.8 प्रतिशत है।

भारतीय किसान यूनियन हरियाणा के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढ़ूनी का कहना है कि ये कानून खेती-किसानी की कब्र खोदने के लिए बनाए गए हैं। वे किसानों के आंदोलन को युद्ध करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि हम युद्ध लड़ने जा रहे हैं। हमें नहीं पता कि रास्ते में क्या होगा? हारेंगे या जीतेंगे लेकिन इरादा हमारा यह है कि हम उनके हर बैरीकेड तोड़ेंगे।

बढ़ूनी जैसे नेताओं को यह तो बताना ही चाहिए कि वे किससे युद्ध लड़ने जा रहे हैं। भारत और यहां की सरकार शत्रु नहीं है जो उससे युद्ध करने की बात कही जा रही है। इसके अतिरिक्त और भी कुछ किसान नेता हैं जो बार-बार दिल्ली कूच करने का आह्वान करते हैं और देश की अर्थव्यवस्था को, यातायात व्यवस्था को अक्सर ध्वस्त करने की कोशिश करते हैं। इसमें अगर योगेंद्र यादव को अपवाद मानें तो वीएम सिंह, बलवीर सिंह राजेवाल और राकेश टिकैत की गणना बड़े किसानों में होती है। देश में छोटे किसानों की संख्या 85 प्रतिशत है और बड़ी जोत के किसान मुट्ठी भर हैं। इतनी छोटी जोत के किसानों का दुनिया का कोई भी कानून भला नहीं कर सकता। छोटे किसानों के यहां तो इतना उत्पादन भी नहीं होता कि वे अपने घर के भोजन व्यय से आगे की सोच सकें। मंडी जाने और अन्य राज्यों में अपने उत्पाद ले जाने का तो सवाल ही नहीं उठता।

आंदोलन का नेतृत्व करने वाले किसान नेताओं का कहना है कि सरकार पूंजीपतियों के हाथों में खेल रही है लेकिन उन्हें भी तो बताना चाहिए कि वे किसके लिए राजनीति खेल रहे हैं। उन्हें यह सब करने के लिए किसका समर्थन और पैसा मिल रहा है? कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी का दावा है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वे हाल ही में संसद में पारित तीनों कानूनों को फाड़कर रद्दी की टोकरी में डाल देंगे।

एक ओर पूरा देश कोरोना से जूझ रहा है। मास्क लगाने और सामाजिक दूरी बढ़ाने की बात हो रही है, वहीं कांग्रेस और वामदल दिल्ली ही नहीं, देश के कई राज्यों में कोरोना संक्रमण बढ़ाने की फिराक में हैं। जो किसान नेता एक लाख से अधिक किसानों को दिल्ली लाने का काम कर रहे हैं और इसके लिए पुलिस बैरिकेडिंग तोड़ रहे हैं, उन्हें यह तो सोचना चाहिए कि वे देश के किसानों को महाघातक कोरोना के गाल में झोंकने को क्यों आमादा हैं? किसान नेताओं का उद्देश्य किसान का भला करना है या प्रधानमंत्री आवास घेरकर शक्ति प्रदर्शन करना? अगर वे वाकई किसानों के हितैषी हैं तो उन्हें आंदोलन की बजाय संवाद का मार्ग चुनना चाहिए था।

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की इस बात में दम है कि किसानों के मुद्दों पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। कृषि कानूनों में सुधार किसानों के हित में है। वह कृषि विज्ञान केंद्रों का ज्ञान और राज्यों के संसाधनों का लाभ छोटे किसानों तक पहुंचाए जाने तथा गांव-गांव फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स लगाने पर जोर दे रहे हैं। कृषि का क्षेत्र भी लाभप्रद हो और इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रोजगार के अवसर सृजित हो, इस दिशा में केंद्र व राज्य सरकारें लगातार काम कर रही हैं। आईसीएआर के जरिये कृषि शिक्षा को सतत बढ़ावा दिया जा रहा है। कृषि निर्यात बढ़ाने के लिए भी सरकार लगातार प्रयास कर रही हैं। कृषि क्षेत्र आय केंद्रित भी बने, इस पर सरकार का पूरा ध्यान है।

छोटे रकबे में भी किसानों की आय वृद्धि के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीएम किसान योजना लागू की। देश के 86 प्रतिशत छोटे किसानों का रकबा तो नहीं बढ़ाया जा सकता, लेकिन उन्हें तकनीकी समर्थन देकर, किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ)से जोड़कर उन्हें समृद्ध करने की दिशा में सरकार आगे तो बढ़ ही रही है। 10 हजार नए एफपीओ बनाने, एक लाख करोड़ रुपए के कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर फंड, 10 हजार करोड़ रुपए के निवेश से छोटी फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स की स्थापना, मछलीपालन, पशुपालन, मधुमक्खी पालन व अन्य माध्यमों से कृषि क्षेत्र में निजी निवेश बढ़ाने सहित अन्य उपाय कर सरकार किसानों की समृद्धि के लिए प्रयासरत है। उसका मानना है कि गांव-गांव इंफ्रास्ट्रक्चर होगा तो किसान उपज बाद में उचित मूल्य पर बेच सकेंगे। छोटी फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स गांव-गांव खुलने से भी किसानों को लाभ मिलेगा। मृदा स्वास्थ्य परीक्षण में भी इस सरकार ने रिकार्ड कार्य किया है।

ऐसे में यह कहना कि नरेंद्र मोदी सरकार किसान विरोधी है, किसी लिहाज से उचित नहीं। किसान नेताओं को सरकार को दुश्मन मानने की बजाय संवाद की राह अपनानी चाहिए। इस विषम कोरोना काल में आंदोलन के जरिये किसानों को संक्रमण की जद में जाना किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। छोटे किसानों को भी पता होना चाहिए कि इस तरह के आंदोलनों का लाभ अंतत: बड़े किसानों को ही होता है। छोटे किसानों की हालत तो बस प्यासे चातक पक्षी की ही तरह होती है। कुल मिलाकर यह आंदोलन भी गांठ से मजबूत किसानों को ही लाभ देगा।

(लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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